poems

Wednesday, 24 September 2025

कुछ याद उन्हें भी कर लो

 आज 23 सितंबर है। आज ही के दिन राव तुलाराम की 1863 में मृत्यु हुई थी। अतः आज के दिन नसीबपुर - नारनौल के युद्ध में 16 नवंबर 1857 को अंग्रेजों से लड़ते शहीद हुए स्वतंत्रता सेनानियों की याद में राजकीय अवकाश रखा जाता है। अब इस बात का जवाब मैं नहीं दे पाऊंगा कि जब युद्ध 16 नवंबर को हुआ तो शहीदी दिवस 23 सितंबर को क्यों मनाया जाता है। आज सुबह से नसीबपुर के शहीद स्मारक में नेताओं का तांता लगा हुआ है। मेडिकल कॉलेज नाम विवाद में इस बार का शहीदी दिवस कुछ खास ही हो गया है। किंतु इस युद्ध के जिन नायकों को भुला दिया गया बस मेरा यह लेख उनको समर्पित है! जो लड़े, मरे और गुमनाम रह गए।

1857 में झज्जर ढाई सौ गांवों के साथ हरियाणा की सबसे बड़ी रियासत था। नवाब अब्दुर्रहमान खान इसका शासक था। झज्जर का नवाब अंग्रेजों और बहादुर शाह जफर दोनों को खुश रखना चाहता था और असल में दोनों को ही मूर्ख बना रहा था। इसका सेनापति समद खान और सेना अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ना चाहते थे। इन परिस्थितियों में समद खान ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उधर भट्टू का शहजादा मोहम्मद अजीम भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर बैठा। इधर रेवाड़ी परगना के लगभग 87 गांवों की इस्मतरारी जागीर (ऐसी जागीर जिसमें जागीरदार के पास केवल रिवेन्यू इकट्ठा करने का अधिकार रहता था) के जागीरदार राव तुलाराम ने भी अंग्रेजों से विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों ने झज्जर और हिसार पर हमला बोलकर वहां के किलों पर अपना अधिकार कर लिया, झज्जर के नवाब को गिरफ्तार करके दिल्ली भेज दिया गया जहां अगले साल जनवरी में उसे फांसी की सजा दे दी गई। समद खान झज्जर की सेना लेकर कर निकल गया। भट्टू का शहजादा भी अपनी सेना के साथ निकल गया। इधर रेवाड़ी में अंग्रेजों के आने से पहले ही तुलाराम ने रेवाड़ी छोड़ दी। कुछ समय उपरांत इन तीनों राज्यों की सेना राजस्थान के सिंघाना में इकट्ठी हुई। सवाल यह था कि अब क्या किया जाए। उधर मारवाड़ के आऊवा के ठिकानेदार ठाकुर कुशाल सिंह ने अंग्रेजों और मारवाड़ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा अंग्रेज कमांडर का सर काट के किले के द्वार पर टांग दिया। कुशाल सिंह के साथ 6 और ठिकानेदार थे। कुशाल सिंह चाहता था कि मेवाड़ के ठिकानेदारों को साथ ले कर ही दिल्ली पर हमला किया जाए किन्तु उसके साथियों का कहना था कि तुरंत दिल्ली जाया जाए। आसोप के ठिकानेदार ठाकुर श्योनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह, आलनियावास के ठाकुर अजीत सिंह, बांजवास के ठाकुर जोध सिंह, सीनाली के ठाकुर चांद सिंह, सलूंबर के प्रतिनिधि के रूप में सुंगडा के ठाकुर सुखत सिंह तथा आऊवा के प्रतिनिधि ठाकुर पुहार सिंह के नेतृत्व में इन ठिकानों की सेना दिल्ली की ओर कूच कर गई। अंग्रेज सेना की जोधपुर लीजियन, एरिनपुरा और डीसा के विद्रोही पुरबिया सैनिक भी इन से आ मिले। जब यह लोग सिंघाना पहुंचे तब तक दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था। हरियाणा के उपरोक्त राज्यों की सेना के साथ ये सेनाएं भी मिल गईं। अंग्रेजों से लड़ने का फैसला हुआ और इन संयुक्त सेनाओं ने रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया किंतु रेवाड़ी को उपयुक्त स्थान न मानकर यह लोग वापस नारनौल आ गए क्योंकि नारनौल अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह थी जिसमें पहाड़ी पर एक किला था। चूंकि झज्जर सबसे बड़ी रियासत था अतः उसकी सेना सबसे बड़ी थी और युद्ध का नेतृत्व झज्जर का सेनापति समद खान ही कर रहा था। इस युद्ध में ठाकुर दलेल सिंह के नेतृत्व में कांटी से भी एक रिसाला शामिल हुआ था। क्योंकि कांटी भी झज्जर का ही भाग था अतः संभवत यह रिसाला झज्जर की सेवा में ही रहा होगा। रेवाड़ी के दल का नेतृत्व राव रामलाल तथा किशन गोपाल के हाथ में था। दोपहर के समय पहले झड़प नसीबपुर में हुई तथा बाद की लड़ाई नारनौल में हुई। आज की पुरानी कचहरी की छतों पर मोर्चे लगा कर पुरबिये अपनी बंदूकों के साथ बड़ी बहादुरी से लड़े। शाम होते होते अंग्रेजों की विजय हुई तथा क्रांतिकारी सेना तितर बितर हो गई। अंग्रेजी सेना के घुड़सवारों ने तीन मील तक पुरबिया 'पंडी' सैनिकों को दौड़ा-दौड़ा कर काट डाला। क्रांतिकारी सेना के लगभग 500 तथा अंग्रेजों के 80 सैनिक काम आए जिनमें अंग्रेज सेनापति जेरार्ड भी था। पूरा नारनौल शहर खाली हो गया गलियां लाशों से पट गईं। इसके बाद विद्रोहियों को ढूंढ ढूंढ कर पकड़ा गया तथा 33 लोगों को फांसी दे दी गई। मरने वालों और फांसी पाने वालों में स्वाभाविक रूप से मुसलमान अधिक थे। झज्जर और भट्टू का क्षेत्र अंग्रेजों की मदद करने वाले जींद, पटियाला तथा नाभा के बीच तीन भागों में बांट दिया गया। ऊपर का इलाका जींद को, दादरी, कानोड़ और नारनौल के क्षेत्र पटियाला तथा कांटी तथा बावल के परगने नाभा को मिले।

इस युद्ध के जिन योद्धाओं और बलिदानियों का नाम भुला दिया गया शहीदी दिवस पर उन्हें भी श्रद्धांजलि।


संदर्भ - 

के सी यादव -the revolt of 1857 in Haryana 

NA Chick - Annals of the Indian rebellion

खड़गावत Rajasthan's role in the struggle of 1857 


राकेश चौहान 

#RSC

Friday, 19 September 2025

श्राद्ध

 कहते हैं कि औरंगजेब के व्यवहार से दुःखी होकर शाहजहां ने कहा कि 'तुझ से अच्छे तो काफ़िर ही हैं जो अपने मरों का भी हर साल श्राद्ध करते हैं।' कुछ मुसलमानों से सुनता हूं कि उन से पिछली पीढ़ी तक उनके घरों में श्राद्ध होता रहा है। दीवाली पूजन और पंडित से पूछ कर बच्चे का नामकरण तो मेवात के मेव हाल ही तक करते रहे हैं। बेशक औरंगजेब की समझ से तो काफ़िरों की हत्या और मंदिरों के विध्वंस द्वारा हिंदुस्तान से कुफ्र ख़त्म करना सर्वोत्तम मार्ग था किंतु उसके वामपंथी वारिसों को पता है कि विध्वंस किसका करना है। उन्होंने इस्लाम के जबरन धर्मांतरण, मारकाट और मंदिर तोड़ने से लेकर जजिया, कर माफी, इनाम, नौकरी और सूफीवाद के पूरे पैटर्न को बारीखी से समझा है। उन्होंने गोवा इंक्विजिशन से ले कर चावल के बदले मजहब के ईसाइयत के व्यापार को भी करीब से देखा है। वामपंथियों को भली भांति पता है कि इन मजहबों के हथकंडों को अपने बौद्धिक हथियारों से कैसे 'ब्लैंड' करना है। यह विडम्बना नहीं अपितु होशियारी है कि वामपंथ पश्चिम में जहां ईसाईयत और इस्लाम का विरोधी है वहीं भारत में यह दोनों उसके औजार हैं। ऐसा कोई भी मौका आने पर मैं वामपंथियों की प्रशंसा किए बिना नहीं रहता। प्रशंसा क्या मेरा तो मन करता है कि किसी वामपंथी का सर फोड़ कर उसका भेजा चूम लूं! श्राद्ध पर  सुनिए उनके बोल! 'जिंदे मां-बाप की कदर करते नहीं और मरने के बाद श्राद्ध करते हैं!' जैसे श्राद्ध न हुआ मां-बाप की बेकद्री का फ़रमान हो गया। 'बामन को खीर जिमाने से क्या मेरे पूर्वजों के पेट में चला जाएगा?' अरे बामन तो अकेला ही जीमेगा बाकी तो तेरा कुनबा ही डकारेगा।

      मेरे परदादा की मृत्यु मेरे दादाजी के बचपन में ही हो गई थी। उन्हें अपने पिता का साथ बहुत कम मिला होगा। दादाजी अपने पिता का श्राद्ध सामान्य से बढ़कर करते थे। दादी बहुत स्वादिष्ट खीर बनाती थीं। उन्हीं की देखरेख में एक - डेढ़ मन दूध की खीर दो - तीन बार में बनती और ब्राह्मणों तथा परिवार के साथ- साथ लगभग सारा कुनबा ही जीमने आता। यह दृश्य दादाजी के चेहरे पर अपार संतोष ले आया करता। आज दादी का श्राद्ध है। परसों मां का पहला श्राद्ध था। रसोई से बाहर आती भोजन सुगंध के बीच बरामदे में पिताजी को कुर्सी पर खामोश बैठे देख कर मैंने एक अप्रत्याशित सवाल पूछ लिया। 'जी अम्माजी की याद आ रही है?' (दादी को हम अम्माजी ही बोलते थे) जवाब में पिता जी का गला भर आया और हम दोनों ही भावुक हो गए! कुछ चीज़ें समय पर ही ठीक से समझ आती हैं!

राकेश चौहान
#RSC

Wednesday, 17 September 2025

रंगा सियार

 मैं दृढ़ता से यह बात कहता आया हूं कि नव बौद्धवाद, ईसाईयत का लांचिंग पैड है। हिंदू से बौद्ध और बौद्ध से ईसाई। इस रूट को ठीक से समझ लीजिए। मुझे इस में भी लेशमात्र संशय नहीं कि नवबौद्धवाद को ईसाई मिशनरियां ही संचालित कर रही हैं। मजेदार तो यह है कि मेरी यह धारणा दिन प्रतिदिन दृढ़ इसलिए होती जा रही है क्योंकि इसको साबित करने के लिए कोई ना कोई आ खड़ा होता है। 

रंगा सियार कहानी शायद बचपन में सब ने सुनी होगी। यह पंचतंत्र में एक ऐसे सियार की कहानी है जो भूख से व्याकुल होकर शहर में पहुँचता है और कुत्तों से बचने के लिए एक धोबी के घर में रखे नील वाले पानी से भरी नांद में कूद जाता है। नीला हो कर वह जंगल लौटता है और दावा करता है कि उसे वन देवी ने राजा बनाकर भेजा है। परंतु, एक दिन जब अन्य सियार 'हुआं-हुआं' करते हैं, तो वह भी अनजाने में वैसा ही कर बैठता है, पहचान उजागर होने पर जानवर उसे मार देते हैं। 

नवबौद्धों के भावी ईसाई होने में अगर आपको शक है तो दोनों की भाषा मिलाइए। ईसाई विश्व में जहां भी जाते हैं, सब से पहले वहां के स्थानीय धर्म को पाप और देवी देवताओं को दुष्ट बताते हैं। यही हाल नवबौद्धों का है। इन्हें अपनी सुंदरता नहीं दिखानी दूसरे में बदसूरती पहले तो गढ़नी है और फिर जोर-शोर से उजागर करनी है। आम हिंदू को ईसाई बनाना आसान नहीं है लेकिन उसे बौद्ध बनाना ज्यादा कठिन नहीं। वह बौद्ध हुआ तो समझ लीजिए ईसाईयत का आधा काम हो गया। इस्लाम का भी सब से बड़ा शिकार बौद्ध ही थे। अफगानिस्तान, आज का पाकिस्तान, सिंध और पूरी गंगा यमुना पट्टी बौद्ध थी! जी वही जो आज मुसलमान है! जो डिगा है वो गया है! फिर भी आपको ईसाई - नव बौद्ध गठबंधन में संदेह है तो नवबौद्धों की शपथ आपने सुनी-पढ़ी नहीं। यदि अब भी संदेह बाकी है तो देश के मुख्य न्यायाधीश की भाषा सुन लीजिए न, इस में और ईसाई मिशनरियों की भाषा में कोई फर्क नहीं। इस व्यक्ति की टिप्पणी सुनकर मुझे तनिक भी आश्चर्य इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नव बौद्धों की इस भाषा का मैं आदी हूं, बस फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार रंगे सियार ने विक्रमादित्य के न्याय सिंहासन पर बैठ कर 'हुआं-हुआं' की है! इन रंगे सियारों की पोल खुलने पर समाज को क्या करना चाहिए? मुझे नहीं पता! 

अजीब इत्तेफाक है ना कि नवबौद्धों का रंग भी नीला ही है!

जै भीम, नमो बुद्धाय!


राकेश चौहान 

#RSC