सब से
पहले एक मित्र द्वारा भेजा चुटकुला पढ़िए-
एक ट्रेन
में चार मौलवी बड़ी हड़बड़ी के साथ चढ़े और अपना सामान ले कर टॉयलेट में छिप गए टीटी
की नजर उन पर पडी और उन्हें बाहर खींच कर बोला टिकट दिखाओ, उनके पास टिकट भी थी। टीटी हैरान, बोला छुप क्यों रहे हो? वो चारों रोते
हुए हाथ जोड़ कर बोले हम सब कुछ छोड़-छाड़ कर भाग रहे हैं क्यों कि मोदी जी मियां-मार
अभियान चला रहे हैं जिस में उन्होंने फ़ौज को भी शामिल कर रखा है, हमें जाने दो
हुजुर। टीटी अपना सर पीटते हुए बोला अरे मूर्खों वो मियां-मार नहीं ‘म्यांमार’
अभियान है।
अब जरा
मनोरंजन को भूल कर इस चुटकुले में छिपी विडंबना पर गौर कीजिए। इस देश में जो भी हो
रहा है उसे ऐसा रंग दिया जा रहा है जैसे कि वो मुस्लिमों के खिलाफ हो। ये प्रचार
होता है कि इस्लाम खतरे में है। अभी सूर्यनमस्कार पर इस तरह बवाल मचाया गया कि
किसी भोले भाले मुसलमान को तो सूर्य देखने से ही नफरत हो जाए। बड़ा अजीब लगता है यह
देख कर कि शरीर और मष्तिष्क को स्वस्थ रखने की हज़ारों वर्षों के अन्तराल में
विकसित हुई वैज्ञानिक विधाओं को कैसे एक धर्म का ढक्कन लगा कर मानव जाति की एक बड़ी
आबादी से परे कर दिया जा रहा है। आज पैगम्बर मोहम्मद की रूह को सब से ज्यादा दुख उनके
द्वारा दी गयी नसीहतों के दुरूपयोग पर हो रहा होगा। इस्लाम वाकई खतरे में है और वो
खतरा हैं खुद को मुस्लिम कहने वाले इस्लाम के ठेकेदार। दुनिया में जिस पुस्तक का सब से ज्यादा दुरूपयोग हुआ वह है कुरान और
जिन वचनों को तोड़ मरोड़ कर भोले भाले लोगों के सामने पेश किया गया वे हैं कुरान के
उपदेश। नसीहतों, उपदेशों, और निर्देशों (guidelines) पर आधारित मतों में मुझे सब से ज्यादा खतरा
उन के गलत स्पष्टीकरण (misinterpretation) का नजर आता है।
जिस को जैसा भाया उसने वैसा पाया। आम इन्सान को जैसा बता दिया वैसा उसने मान लिया।
कम से कम भारत में तो ऐसा हो ही रहा है। और भारत में ही क्या पूरे विश्व में ही
ऐसा हो रहा है। जरा नजर दौड़ाइए! और सब से बड़ी विडंबना तो ये है कि इस्लाम को और
मुस्लिमों को सब से बड़ा ख़तरा इस्लामिक देशों में ही है। आज की तारीख में अगर
मुस्लिम सुरक्षित हैं तो गैर मुस्लिम देशों में। आखिर मुस्लिम देशों में क्या
दिक्कत है? वहां तो सब मुसलमान ही हैं! असल में तो वहां अन्य सम्प्रदायों के लोगों
को अपने रीतिरिवाज और पूजा पद्धति का पालन करने पर विविध प्रकार के प्रतिबन्ध हैं।
पर दिक्कत वही है, कुरान में लिखे उपदेशों का मनमाने तरीके से प्रयोग। कुरान का
अनेक भाषाओँ में अनुवाद किया गया। हिंदी में भी। मैंने भी पढ़ा। अजीब लगा कि सब
शब्दों का हिंदी अनुवाद हो गया पर अल्लाह का नहीं किया गया अर्थात इस्लाम का ठेकेदार
अल्लाह को भगवान लिखने में डर गया कि कहीं इस्लाम को खतरा न पैदा हो जाए। मुझे
पूरा यकीन है कि अन्य भाषाओँ के अनुवाद में भी ऐसा ही हुआ होगा। इस्लाम को एक
एयरटाइट जार में बंद कर के रख दिया गया है कि बाहर की हवा उसे ख़राब कर देगी। अरे
इस्लाम के ठेकेदारों इसे सांस लेने दो, अन्य विचारों से साक्षात्कार करने दो अगर
इस में दम होगा तो इस्लाम का परचम खुद ही दुनिया भर में लहराने लगेगा।
आस्तिक-नास्तिक होना
व्यक्तिगत निर्णय है एक ईश्वर को मानता है दूसरा नहीं। मत मानो भाई इस से भगवान की सेहत पर
क्या असर पड़ता है। परन्तु धर्म एक दूसरी चीज है। मूर्ति पूजा करना या काबे की तरफ
मुंह कर के उपासना करना धर्म नहीं है। धर्म यानि धारण करने योग्य। और धारण करने
योग्य वह होता है, जो सही होता है, सम्यक होता है। धर्म तो सनातन है संस्कारों में
आता है। जब ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात आती है, जिस दर्शन में पूरी पृथ्वी को
परिवार मानने की बात हो वहां क्या बचता है। जहाँ ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु
निरामया:’ मूल में हो उस को झटकने की बात बड़ी अजीब लगती है। जहाँ चींटियों,
पशुओं-पक्षियों तक को भोजन देना संस्कारों में शामिल हो उस सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह
लगाना बड़ा अजीब लगता है। मुझे पूरा विश्वास है कि दुनिया के हर संप्रदाय में अपने
माता-पिता, बुजुर्गों का सम्मान किया जाता होगा। अपनी व गाँव की बहन बेटियों के
प्रति इज्जत तथा वात्सल्य का भाव रखा जाता होगा। जीवों के प्रति दया का भाव भी
होगा। देश के लिए चिंता भी होगी। अगर यह सनातन है तो भी यह इस्लाम के लिए कैसे
घातक है। ठीक है कि कुरान के अनुसार अल्लाह के सिवाय किसी के सामने सर झुकाने की
आज्ञा नहीं है पर ठेकदारों ने सर झुकाने का मतलब शाब्दिक रूप से ‘सर झुकाना’ ही
बना दिया न कि ईश्वर और उसकी सत्ता को सर्व शक्तिमान मानना। मैंने कुछ मुस्लिम मित्रों
को अन्य धर्मग्रन्थ पढ़ने की बात पर असहज पाया कि कहीं कुफ्र न हो जाए! अरे एक
विचार को आपने कैसा बना दिया! जिसे अन्य विचारों से साक्षात्कार की इजाज़त ही नहीं
है! मक्का और मदीना से चल कर इस्लाम पूरे विश्व में फैला (यहाँ मैं इसे फैलाने के तरीकों
पर चर्चा नहीं कर रहा हूँ) वहां की संस्कृति में घुस कर वहां के लोगों को अपना
अनुयायी बना लिया पर वहां का हुआ नहीं। कहीं इस्लाम खतरे में न पड़ जाए इस डर से इसे
बाहरी हवा लगने से बचा कर रखा गया। इस्लाम के ठेकेदारों को तो यहाँ तक डर है कि
यदि ‘अल्लाह’ शब्द का अनुवाद स्थानीय भाषा में कर दिया गया तो पूरा का पूरा इस्लाम
ही डह पड़ेगा इसलिए यह बात ठोंक ठोंक कर दिमाग में घुसाई जाती है कि छठी शताब्दी में
‘अल्लाह’ ने अपना सम्पूर्ण ज्ञान एक व्यक्ति को दे दिया और उसके बाद उसने अपने दूत
भेजने बंद कर दिए बस अब अपने दिमाग के दरवाजे बंद कर लो अब कुछ नहीं बचा। यानि
मानव सभ्यता ने अब तरक्की करनी बंद कर दी! जब इन्सान के विवेक पर ताला लगा दिया
जाए तो ऐसे में क्या आश्चर्य कि चार लोग म्यांमार अभियान को मियां-मार अभियान
समझकर कर भाग खड़े हों।