poems

Wednesday, 24 September 2025

कुछ याद उन्हें भी कर लो

 आज 23 सितंबर है। आज ही के दिन राव तुलाराम की 1863 में मृत्यु हुई थी। अतः आज के दिन नसीबपुर - नारनौल के युद्ध में 16 नवंबर 1857 को अंग्रेजों से लड़ते शहीद हुए स्वतंत्रता सेनानियों की याद में राजकीय अवकाश रखा जाता है। अब इस बात का जवाब मैं नहीं दे पाऊंगा कि जब युद्ध 16 नवंबर को हुआ तो शहीदी दिवस 23 सितंबर को क्यों मनाया जाता है। आज सुबह से नसीबपुर के शहीद स्मारक में नेताओं का तांता लगा हुआ है। मेडिकल कॉलेज नाम विवाद में इस बार का शहीदी दिवस कुछ खास ही हो गया है। किंतु इस युद्ध के जिन नायकों को भुला दिया गया बस मेरा यह लेख उनको समर्पित है! जो लड़े, मरे और गुमनाम रह गए।

1857 में झज्जर ढाई सौ गांवों के साथ हरियाणा की सबसे बड़ी रियासत था। नवाब अब्दुर्रहमान खान इसका शासक था। झज्जर का नवाब अंग्रेजों और बहादुर शाह जफर दोनों को खुश रखना चाहता था और असल में दोनों को ही मूर्ख बना रहा था। इसका सेनापति समद खान और सेना अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ना चाहते थे। इन परिस्थितियों में समद खान ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उधर भट्टू का शहजादा मोहम्मद अजीम भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर बैठा। इधर रेवाड़ी परगना के लगभग 87 गांवों की इस्मतरारी जागीर (ऐसी जागीर जिसमें जागीरदार के पास केवल रिवेन्यू इकट्ठा करने का अधिकार रहता था) के जागीरदार राव तुलाराम ने भी अंग्रेजों से विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों ने झज्जर और हिसार पर हमला बोलकर वहां के किलों पर अपना अधिकार कर लिया, झज्जर के नवाब को गिरफ्तार करके दिल्ली भेज दिया गया जहां अगले साल जनवरी में उसे फांसी की सजा दे दी गई। समद खान झज्जर की सेना लेकर कर निकल गया। भट्टू का शहजादा भी अपनी सेना के साथ निकल गया। इधर रेवाड़ी में अंग्रेजों के आने से पहले ही तुलाराम ने रेवाड़ी छोड़ दी। कुछ समय उपरांत इन तीनों राज्यों की सेना राजस्थान के सिंघाना में इकट्ठी हुई। सवाल यह था कि अब क्या किया जाए। उधर मारवाड़ के आऊवा के ठिकानेदार ठाकुर कुशाल सिंह ने अंग्रेजों और मारवाड़ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा अंग्रेज कमांडर का सर काट के किले के द्वार पर टांग दिया। कुशाल सिंह के साथ 6 और ठिकानेदार थे। कुशाल सिंह चाहता था कि मेवाड़ के ठिकानेदारों को साथ ले कर ही दिल्ली पर हमला किया जाए किन्तु उसके साथियों का कहना था कि तुरंत दिल्ली जाया जाए। आसोप के ठिकानेदार ठाकुर श्योनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह, आलनियावास के ठाकुर अजीत सिंह, बांजवास के ठाकुर जोध सिंह, सीनाली के ठाकुर चांद सिंह, सलूंबर के प्रतिनिधि के रूप में सुंगडा के ठाकुर सुखत सिंह तथा आऊवा के प्रतिनिधि ठाकुर पुहार सिंह के नेतृत्व में इन ठिकानों की सेना दिल्ली की ओर कूच कर गई। अंग्रेज सेना की जोधपुर लीजियन, एरिनपुरा और डीसा के विद्रोही पुरबिया सैनिक भी इन से आ मिले। जब यह लोग सिंघाना पहुंचे तब तक दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था। हरियाणा के उपरोक्त राज्यों की सेना के साथ ये सेनाएं भी मिल गईं। अंग्रेजों से लड़ने का फैसला हुआ और इन संयुक्त सेनाओं ने रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया किंतु रेवाड़ी को उपयुक्त स्थान न मानकर यह लोग वापस नारनौल आ गए क्योंकि नारनौल अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह थी जिसमें पहाड़ी पर एक किला था। चूंकि झज्जर सबसे बड़ी रियासत था अतः उसकी सेना सबसे बड़ी थी और युद्ध का नेतृत्व झज्जर का सेनापति समद खान ही कर रहा था। इस युद्ध में ठाकुर दलेल सिंह के नेतृत्व में कांटी से भी एक रिसाला शामिल हुआ था। क्योंकि कांटी भी झज्जर का ही भाग था अतः संभवत यह रिसाला झज्जर की सेवा में ही रहा होगा। रेवाड़ी के दल का नेतृत्व राव रामलाल तथा किशन गोपाल के हाथ में था। दोपहर के समय पहले झड़प नसीबपुर में हुई तथा बाद की लड़ाई नारनौल में हुई। आज की पुरानी कचहरी की छतों पर मोर्चे लगा कर पुरबिये अपनी बंदूकों के साथ बड़ी बहादुरी से लड़े। शाम होते होते अंग्रेजों की विजय हुई तथा क्रांतिकारी सेना तितर बितर हो गई। अंग्रेजी सेना के घुड़सवारों ने तीन मील तक पुरबिया 'पंडी' सैनिकों को दौड़ा-दौड़ा कर काट डाला। क्रांतिकारी सेना के लगभग 500 तथा अंग्रेजों के 80 सैनिक काम आए जिनमें अंग्रेज सेनापति जेरार्ड भी था। पूरा नारनौल शहर खाली हो गया गलियां लाशों से पट गईं। इसके बाद विद्रोहियों को ढूंढ ढूंढ कर पकड़ा गया तथा 33 लोगों को फांसी दे दी गई। मरने वालों और फांसी पाने वालों में स्वाभाविक रूप से मुसलमान अधिक थे। झज्जर और भट्टू का क्षेत्र अंग्रेजों की मदद करने वाले जींद, पटियाला तथा नाभा के बीच तीन भागों में बांट दिया गया। ऊपर का इलाका जींद को, दादरी, कानोड़ और नारनौल के क्षेत्र पटियाला तथा कांटी तथा बावल के परगने नाभा को मिले।

इस युद्ध के जिन योद्धाओं और बलिदानियों का नाम भुला दिया गया शहीदी दिवस पर उन्हें भी श्रद्धांजलि।


संदर्भ - 

के सी यादव -the revolt of 1857 in Haryana 

NA Chick - Annals of the Indian rebellion

खड़गावत Rajasthan's role in the struggle of 1857 


राकेश चौहान 

#RSC

Friday, 19 September 2025

श्राद्ध

 कहते हैं कि औरंगजेब के व्यवहार से दुःखी होकर शाहजहां ने कहा कि 'तुझ से अच्छे तो काफ़िर ही हैं जो अपने मरों का भी हर साल श्राद्ध करते हैं।' कुछ मुसलमानों से सुनता हूं कि उन से पिछली पीढ़ी तक उनके घरों में श्राद्ध होता रहा है। दीवाली पूजन और पंडित से पूछ कर बच्चे का नामकरण तो मेवात के मेव हाल ही तक करते रहे हैं। बेशक औरंगजेब की समझ से तो काफ़िरों की हत्या और मंदिरों के विध्वंस द्वारा हिंदुस्तान से कुफ्र ख़त्म करना सर्वोत्तम मार्ग था किंतु उसके वामपंथी वारिसों को पता है कि विध्वंस किसका करना है। उन्होंने इस्लाम के जबरन धर्मांतरण, मारकाट और मंदिर तोड़ने से लेकर जजिया, कर माफी, इनाम, नौकरी और सूफीवाद के पूरे पैटर्न को बारीखी से समझा है। उन्होंने गोवा इंक्विजिशन से ले कर चावल के बदले मजहब के ईसाइयत के व्यापार को भी करीब से देखा है। वामपंथियों को भली भांति पता है कि इन मजहबों के हथकंडों को अपने बौद्धिक हथियारों से कैसे 'ब्लैंड' करना है। यह विडम्बना नहीं अपितु होशियारी है कि वामपंथ पश्चिम में जहां ईसाईयत और इस्लाम का विरोधी है वहीं भारत में यह दोनों उसके औजार हैं। ऐसा कोई भी मौका आने पर मैं वामपंथियों की प्रशंसा किए बिना नहीं रहता। प्रशंसा क्या मेरा तो मन करता है कि किसी वामपंथी का सर फोड़ कर उसका भेजा चूम लूं! श्राद्ध पर  सुनिए उनके बोल! 'जिंदे मां-बाप की कदर करते नहीं और मरने के बाद श्राद्ध करते हैं!' जैसे श्राद्ध न हुआ मां-बाप की बेकद्री का फ़रमान हो गया। 'बामन को खीर जिमाने से क्या मेरे पूर्वजों के पेट में चला जाएगा?' अरे बामन तो अकेला ही जीमेगा बाकी तो तेरा कुनबा ही डकारेगा।

      मेरे परदादा की मृत्यु मेरे दादाजी के बचपन में ही हो गई थी। उन्हें अपने पिता का साथ बहुत कम मिला होगा। दादाजी अपने पिता का श्राद्ध सामान्य से बढ़कर करते थे। दादी बहुत स्वादिष्ट खीर बनाती थीं। उन्हीं की देखरेख में एक - डेढ़ मन दूध की खीर दो - तीन बार में बनती और ब्राह्मणों तथा परिवार के साथ- साथ लगभग सारा कुनबा ही जीमने आता। यह दृश्य दादाजी के चेहरे पर अपार संतोष ले आया करता। आज दादी का श्राद्ध है। परसों मां का पहला श्राद्ध था। रसोई से बाहर आती भोजन सुगंध के बीच बरामदे में पिताजी को कुर्सी पर खामोश बैठे देख कर मैंने एक अप्रत्याशित सवाल पूछ लिया। 'जी अम्माजी की याद आ रही है?' (दादी को हम अम्माजी ही बोलते थे) जवाब में पिता जी का गला भर आया और हम दोनों ही भावुक हो गए! कुछ चीज़ें समय पर ही ठीक से समझ आती हैं!

राकेश चौहान
#RSC

Wednesday, 17 September 2025

रंगा सियार

 मैं दृढ़ता से यह बात कहता आया हूं कि नव बौद्धवाद, ईसाईयत का लांचिंग पैड है। हिंदू से बौद्ध और बौद्ध से ईसाई। इस रूट को ठीक से समझ लीजिए। मुझे इस में भी लेशमात्र संशय नहीं कि नवबौद्धवाद को ईसाई मिशनरियां ही संचालित कर रही हैं। मजेदार तो यह है कि मेरी यह धारणा दिन प्रतिदिन दृढ़ इसलिए होती जा रही है क्योंकि इसको साबित करने के लिए कोई ना कोई आ खड़ा होता है। 

रंगा सियार कहानी शायद बचपन में सब ने सुनी होगी। यह पंचतंत्र में एक ऐसे सियार की कहानी है जो भूख से व्याकुल होकर शहर में पहुँचता है और कुत्तों से बचने के लिए एक धोबी के घर में रखे नील वाले पानी से भरी नांद में कूद जाता है। नीला हो कर वह जंगल लौटता है और दावा करता है कि उसे वन देवी ने राजा बनाकर भेजा है। परंतु, एक दिन जब अन्य सियार 'हुआं-हुआं' करते हैं, तो वह भी अनजाने में वैसा ही कर बैठता है, पहचान उजागर होने पर जानवर उसे मार देते हैं। 

नवबौद्धों के भावी ईसाई होने में अगर आपको शक है तो दोनों की भाषा मिलाइए। ईसाई विश्व में जहां भी जाते हैं, सब से पहले वहां के स्थानीय धर्म को पाप और देवी देवताओं को दुष्ट बताते हैं। यही हाल नवबौद्धों का है। इन्हें अपनी सुंदरता नहीं दिखानी दूसरे में बदसूरती पहले तो गढ़नी है और फिर जोर-शोर से उजागर करनी है। आम हिंदू को ईसाई बनाना आसान नहीं है लेकिन उसे बौद्ध बनाना ज्यादा कठिन नहीं। वह बौद्ध हुआ तो समझ लीजिए ईसाईयत का आधा काम हो गया। इस्लाम का भी सब से बड़ा शिकार बौद्ध ही थे। अफगानिस्तान, आज का पाकिस्तान, सिंध और पूरी गंगा यमुना पट्टी बौद्ध थी! जी वही जो आज मुसलमान है! जो डिगा है वो गया है! फिर भी आपको ईसाई - नव बौद्ध गठबंधन में संदेह है तो नवबौद्धों की शपथ आपने सुनी-पढ़ी नहीं। यदि अब भी संदेह बाकी है तो देश के मुख्य न्यायाधीश की भाषा सुन लीजिए न, इस में और ईसाई मिशनरियों की भाषा में कोई फर्क नहीं। इस व्यक्ति की टिप्पणी सुनकर मुझे तनिक भी आश्चर्य इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नव बौद्धों की इस भाषा का मैं आदी हूं, बस फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार रंगे सियार ने विक्रमादित्य के न्याय सिंहासन पर बैठ कर 'हुआं-हुआं' की है! इन रंगे सियारों की पोल खुलने पर समाज को क्या करना चाहिए? मुझे नहीं पता! 

अजीब इत्तेफाक है ना कि नवबौद्धों का रंग भी नीला ही है!

जै भीम, नमो बुद्धाय!


राकेश चौहान 

#RSC 

Saturday, 23 August 2025

जाति जंजाल

जाति जंजाल

वैदिक काल में वर्णों का वर्णन है जो कि कर्म के आधार पर वर्गीकृत हैं तथा जन्मजात नहीं हैं। मनुस्मृति में भी वर्ण कर्म आधारित हैं, जो कर्म बदलने पर बदल भी सकते हैं। जाति की उत्पत्ति संभवतः संक्रमण काल में तब हुई होगी जब संस्कृति को बचाने की चुनौती आ पड़ी। समाजशास्त्रियों तथा इतिहासकारों के एक वर्ग के अनुसार जाति शब्द ज्ञाति से बना है, यानि जिसे जिस विषय का ज्ञान अर्थात ज्याति (ज्ञाति) थी उसी की जिम्मेदारी उस ज्ञान को संजोने की दी गई यही बाद में रूढ़ हो कर जाति हो गया। यह बात एक ही गौत्र का अलग - अलग जातियों में पाए जाने का एक मजबूत तर्क हो सकती है। यदि ऐसा है तो इस घटना और आबू पर्वत पर हुए उस यज्ञ में बहुत अधिक समय का अंतर नहीं रहा होगा जिस से चार वीर पुरुषों की उत्पत्ति हुई तथा क्षत्रिय की जगह राजपूत शब्द अधिक प्रयोग होने लगा। जैसे- जैसे विदेशी आक्रमण और संक्रमण का उत्पात बढ़ने लगा, संस्कृति बचाने के नियम भी दृढ़ होते चले गए परिणाम स्वरूप जाति व्यवस्था भी कठोर होने लगी। पहले से चले आ रहे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के नियम भी बदले। सब से बड़ी चुनौती तो इस्लामी संक्रमण की थी जो कि सनातनी व्यवस्था में घुलने को कतई तैयार नहीं था तथा पूरी काफिर दुनिया को मोमिन बनाने के उद्देश्य से जिहाद को प्रथम कर्तव्य माने बैठा था। लगता है जब तक वर्ण व्यवस्था थी तब तक तो ठीक था किंतु जैसे ही वर्ण व्यवस्था जन्मानुसार हुई और फिर जाति व्यवस्था स्थापित हुई तब अनेक समस्याएं आई होंगी। जिनमें से एक थी अलग जाति की कन्या और पुरुष का विवाह। अब सबसे बड़ा प्रश्न था कि अंतरजातीय प्रेम विवाहों से कैसे निपटा जाए। रोजाना होने वाले विदेशी आक्रमणों से रक्षा का भार क्योंकि क्षत्रियों पर था जिनके लिए क्षत्रिय के अलावा राजपूत शब्द लगभग छठी शताब्दी में रूढ हो चुका था। हालांकि यह शब्द राजपुत्र के रूप में सदा प्रयोग होता रहा था। बहरहाल लगातार विदेशी आक्रमणों ने राजपूतों का महत्व बढ़ा दिया तथा उनकी लड़ने की जिजीविषा को जीवित रखना समाज के सामने और बड़ी चुनौती हो गई। अस्तित्व बचाए रखने के लिए जिस प्रकार कठोर जाति व्यवस्था स्थापित हुई उसी तरह कठोर राजपूत धर्म भी स्थापित कर दिया गया। अब समाज के रक्त के साथ राजपूती रक्त को शुद्ध रखना और अधिक आवश्यक था। अंतर्जातीय प्रेम विवाह इस शुद्धता में सब से बड़ा रोड़ा थे जबकि सम्मान, शक्ति तथा अधिकारों से लैस राजपूतों के लिए ये विवाह सहज सुलभ ही थे। वो भी तब जब अनुलोमा तथा प्रतिलोमा विवाह की खिड़की मौजूद थी। अतः यह विवाह संबंध इस नियम के साथ स्वीकार किए गए लगते हैं कि यदि कोई राजपूत पुरूष किसी अन्य जाति की कन्या से विवाह कर लेता है तो उसकी संतान को राजपूती से हाथ धोना पड़ेगा तथा उसकी संतान को कन्या की जाति में स्थान दिया जाने लगा। हां इतना अवश्य था कि संपत्ति अथवा राज्य में उसको उसका भाग अवश्य दिया गया। अतः माता की जाति के अन्य गोत्रों से उसका सम्मान स्वतः ही अधिक हो गया। आज भी इस प्रकार के गोत्रों का अपनी-अपनी जातियों में एक सम्मानजनक स्थान है तथा इनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति तथा रहन सहन अपने सजातीय बंधुओं से इक्कीस है। अर्थात यह कोई अपमानजनक बात नहीं थी बल्कि एक सामाजिक समाधान था। यह निःसंदेह एक अभिनव प्रयोग था जिस ने एक ओर तो समर्थ के स्वेच्छाचार पर लगाम लगाई, महिलाओं को शोषण के विरुद्ध सुरक्षा दी तथा दूसरी ओर ऐसे दंपतियों के वंशजों का समाज में सम्माननीय स्थान निर्धारित कर के सामाजिक संकट का सुंदर समाधान कर दिया। उस दंपति के ऐसे वंशजों को गौत्र पिता के नाम (जैसे मांधाता से 'मान' जाट, केवल राव से केवल नाई), किसी स्थान (खोल से 'खोला' अहीर) या घटना (पुरुष पूर्वज द्वारा शेर का सर काटने पर 'मूंडड़ा' गूजर) या परम्परा (दो बार मुंडन करवाने से 'दोलट' जाट) आदि से दिया जाता! कभी कभी पिता के मूल वंश का नाम गौत्र के रूप में भी प्रयुक्त होता। जैसे 'भाटी'- गूजर, कुम्हार, मनियार! जैसे 'चौहान' - जाट, गूजर, खटीक, चमार, धोबी, माली। जबकि राजपूतों के गोत्र आज भी प्राचीन गोत्र ही हैं जैसे चौहानों और उनकी चौबीस शाखाओं का गौत्र वत्स, राठौड़ व शाखाएं - कश्यप, भाटी व शाखाएं- अत्री, सोलंकी व शाखाएं - भारद्वाज, आदि। ऐसा सिर्फ राजपूतों के साथ ही नहीं था बल्कि अनुलोमा विवाह से उत्पन्न संतान का कन्या की जाति में जाने का नियम अन्य जातियों में भी कहीं कहीं दिखाई देता है। ऐसा नहीं है कि उसे पूर्वज पिता ने अपनी जाति में शामिल करने का प्रयास नहीं किया। किंतु ऐसा प्रयास समाज के कठोर नियमों ने कहीं सफल नहीं होने दिया। ऐसे मौके भी आए जब राजा को देश छोड़कर भागना तक पड़ा।

ऐसे भी उदाहरण हैं कि किसी राजपूत ने युद्ध से इनकार कर दिया तथा अन्य जाति के कार्य अपना लिए और उस जाति में शामिल हो गया।

देखिए कैसे जातियों की स्थापना ने राष्ट्र की आत्मा को बचा कर रखा और क्यों वामपंथियों के लिए सबसे आवश्यक जाति खत्म करना है। एक समय था जब सारे पूर्वज महापुरुष सबके थे। गोगा जी, तेजाजी, रामदेव, देवनारायण, आदि सब! फिर वामियों ने जातिवाद घुसेड़ा और अब ये जातियों के हैं। यहां तक कि राम और कृष्ण की भी जाति है। लोग सोशल मीडिया पर लड़ रहे हैं, एक दूसरे को गालियां निकाल रहे हैं महापुरुषों को कलंकित कर रहे हैं। इस से भी बुरा समय तो अभी बाकी है। फिर भी कहूंगा, जब भी संशय हो जड़ों की ओर जाओ, समाधान मिलेगा!

(गोत्रों के उद्भव से संबंधित उपरोक्त सभी उदाहरण प्रमाणिक पुस्तकों से लिए गए हैं। सोर्स जानने के लिए कमेंट कर सकते हैं)


सादर 

राकेश चौहान

#RSC

Thursday, 19 June 2025

भाईचारा

 कोरिया वास में नवनिर्मित मेडिकल कॉलेज का नाम बदलने की कवायद में लगे वोट बैंक की मुहिम के बीच खबर है कि च्यवन ऋषि की जाति मिल गई है। पर च्यवन ऋषि का नाम तो वेदों की ऋचाओं में भी है! फिर तो यह राम जन्म से भी पहले की बात है। अर्थात जिस काल में उन्होंने ढोसी पर्वत तथा उसके आसपास के वनों में विचरण करते चवनप्राश का आविष्कार किया होगा तब जातियां अस्तित्व में भी नहीं आईं थीं। फिर भी इस आविष्कार के आविष्कारकों के लिए बधाई बनती है। च्यवन ऋषि महर्षि भृगु के पुत्र थे, तो इस हिसाब से वह भृगु या भार्गव हुए। किंतु भृगु और भार्गव गोत्र तो बहुत सारी जातियां में पाया जाता है। वैसे ही जैसे कश्यप, भारद्वाज, गौतम, गर्ग इत्यादि, स्वयं मेरा अर्थात चौहानों का गोत्र भी वत्स है। मुझे नहीं पता कि कितने लोगों को जानकारी है कि विवाह के लिए 'मिल जाने' वाले गौत असल में गौत्र नहीं हैं। चलिए इस घालमेल का ठीकरा भी ब्राह्मणों के सर पर ही फोड़ कर पुनः च्यवनप्राश के आविष्कारक की जाति के आविष्कारकों को शुभकामनाएं प्रदान करते हैं। 
मेडिकल कॉलेज का नाम बदलकर राव तुलाराम के नाम पर रखने के समर्थकों में नारनौल के तीसरी बार के विधायक नए-नए शामिल हुए हैं। इससे पहले स्थानीय सांसद और नांगल चौधरी की विधायक भी महाविद्यालय का नाम बदलकर राव तुलाराम के नाम पर रखने की वकालत कर चुके हैं। मेरा दावा है कि ये लोग नसीबपुर में लड़े गए युद्ध में शामिल सभी पक्षों का नाम तक नहीं बता सकते। वैसे राव तुलाराम के नाम पर किसी को आपत्ति क्यों होगी भला! च्यवन ऋषि की तरह राव तुलाराम भी तो सबके हैं! दिक्कत राव तुलाराम से नहीं वोट बैंक राजनीति की गुंडागर्दी से है। चिकित्सा क्षेत्र में योगदान देने वाले च्यवन ऋषि के आश्रम क्षेत्र में बनने वाले चिकित्सा संस्थान का नाम उनके नाम पर रखना बिल्कुल सार्थक तथा सम्यक है। दूसरी बात जब गजट नोटिफिकेशन द्वारा यह नाम रखना तय हो चुका था तब इस विषय में विवाद करना ही तर्कसंगत नहीं था। भविष्य में किसी और संस्था का नाम हम उन पर रख सकते हैं! इन सब बातों से सहमत कुछ लोग भाईचारा बचाने की दुहाई दे कर कन्नी काट गए। वैसे बचाना दुनिया के सब से दुष्कर कार्यों में से एक है। बचपन में आखिर में खाने के लिए अच्छे- अच्छे बेर बचाते थे तो कोई टपक पड़ता और उन्हें चट कर जाता। आज पैसा बचाने के लिए लाख जतन करते हैं पर बात बनती ही नहीं। भाईचारा बचाने के लिए तो केरल के एक राजा ने भारत की सबसे पहली मस्जिद बनाई थी और उसी केरल में आज अस्तित्व बचाने के लाले पड़ रहे हैं। वैसे भाईचारा बचाने का एक बम पिलाट आईडिया है मेरे पास! मेडिकल कॉलेज का नाम राव तुलाराम के नाम पर रख दिया जाए और नसीबपुर के शहीद स्मारक का नाम बदल कर 'शहीद' च्यवन ऋषि स्मारक रख दिया जाए।

अंत में हफ़ीज़ जालंधरी की चार पंक्तियां - 
जो भी है सूरत-ए-हालात कहो चुप न रहो।
रात अगर है तो उसे रात कहो चुप न रहो।।
घेर लाया है अँधेरों में हमें कौन 'हफ़ीज़'।
आओ कहने की है जो बात कहो चुप न रहो।।

जय हिंद 
राकेश चौहान
#RSC 

Wednesday, 28 May 2025

ये बाप मुझे देदे ठाकुर

 राजपूतों, 

आपका सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि आपके पास एक गौरवशाली अतीत है तथा उस से भी बड़ा यह है कि आपके कंधे उस अतीत का बोझ नहीं उठा पा रहे। पूरे देश में जहां-जहां भी आप लोग हैं एक न एक नवधनाढ्य जाति आप के विरुद्ध है, उस जाति का नाम अलग हो सकता है लेकिन उसके तरीके हैं एक जैसे ही। उस के पास जमीन है, धन है, शिक्षा है, नौकरियां हैं, व्यापार है, संख्या है, मक्कारी है, आरक्षण है, सरकारी योजनाएं हैं, राजनीति में दखल है और राज में हिस्सेदारी है। है नहीं तो आपके जैसा अतीत और अब इस जाति की नजर आपके अतीत पर है। जहां वे घपला कर सकते हैं वे कर रहे हैं, जहां नहीं कर सकते वहां आप के बुजुर्गों को लांछित कर रहे। आपके महापुरुषों पर अधिकार करने की उनकी तैयारी देखी है आपने! उन्होंने इतिहास गढ़ कर बाकायदा एक श्रृंखला तैयार की और मिहिर भोज से शुरू होकर, पृथ्वीराज चौहान, अनंगपाल तोमर, सुहेलदेव बैंस, महाराणा प्रताप और दुर्गादास राठौड़ तक पहुंच गए! अब आप अपना हाल देखिए! वे मूर्ति लगवाते हैं और नाम लिखते हैं "गूजर" सम्राट मिहिर भोज! और आप "क्षत्रिय" सम्राट मिहिर भोज पर फैसला कर लेते हैं! वे कहते हैं कि अगर पृथ्वीराज चौहान को राजपूत दिखाया तो वह फिल्म नहीं चलने देंगे और बेचारा डायरेक्टर डर के मारे पूरी फिल्म में "राजपूत योद्धा" की जगह "हिंदू" शब्द प्रयोग कर के फिल्म फ्लॉप करवा लेता है! जो लोग लड़ाई में युद्ध घोष का महत्व समझते हैं वे इस डायलूशन से हुई हानि आसानी से समझ जाएंगे।

आप के हिस्से के हर प्रकार के विरोध का जिम्मा शायद करणी सेना ने उठा लिया है! किन्तु उनकी युवा शक्ति इतिहास के सामान्य ज्ञानाभाव में नाली में बह जाती है। जैसा कि हाल ही में राणा सांगा के विरुद्ध टिप्पणी में हुआ! आप लोग समाज की बौद्धिक भूख शांत नहीं कर पाए कि आप का पक्ष क्या है और करणी सेना का सारा विरोध लंगूरों की उछल कूद बनकर रह गया। याद रखिए किसी भी विवाद में दो पक्ष तो होते ही हैं किंतु विवाद के बाहर एक तीसरा पक्ष भी होता है जो यह निर्णय करता है कि क्या सही है तथा क्या गलत! उस तीसरे पक्ष का नाम समाज है और उसे संतुष्ट करना सबसे अधिक आवश्यक होता है। देख रहे हैं ना कि सरकार किस तरह विदेशों में युद्ध से संबंधित पक्ष रखने के लिए प्रतिनिधिमंडल भेज रही है।

जरा गौर करिए कि कैसे एक घाघ खिलाड़ी की तरह हनुमान बेनीवाल ने अपनी राजनीति की डगमगाती नैया 15 शब्दों में किनारे लगा ली। उसे पता है कि उसे कहां बांस गाढ़ना है कि कुछ कलाबाजियां खाते लंगूर उसमें अपना पृष्ठभाग फंसा कर जाटों को उसके पीछे लामबंद कर देंगे। अब वह नर्म पड़ गया किंतु ये भी उसकी स्ट्रैटजी का हिस्सा है। इस विवाद से उपजी फ़सल वह काट कर अपने स्थान पर वापस आ चुका। समझिए कि ये राजनीति की बार बालाएं हैं जिनका उद्देश्य सिर्फ उत्तेजना पैदा करना है। इनका शिकार मत बनिए। इससे पहले राष्ट्रीय कुश्ती संघ पर कब्जे के लिए कुछ लोगों ने बृजभूषण पर इल्जाम लगाकर मामले को सफलता पूर्वक जाट बनाम राजपूत कर दिया था। जबकि संपूर्ण कुश्ती जगत पहले दिन से ही यह बात जानता था कि यह इल्जाम झूठे हैं, जो कि सिद्ध भी हो रहा है। बृजभूषण बरी भी हो जाएंगे पर आपने जो खोया उसका क्या? आप क्यों नहीं स्वयं को इस मामले से पहले दिन ही अलग कर पाए? हजारों साल हुए पर राजनीति की कुटिल चालों के चक्रव्यूह में आप आज भी अभिमन्यु ही हैं। 

करणी सेना के प्रवक्ताओं पर गौर करिए, वे टीवी की डिबेट में भी तर्क व साक्ष्य प्रस्तुत करने की बजाय मरने - मारने की बात करते हैं। इतिहास पर उनकी कोई उल्लेखनीय पकड़ नहीं होती। हिस्टोरिओग्राफ़ी पर उनका ज्ञान शून्य है। उनके प्रतिद्वंद्वी राजपूतों के मुगलों से वैवाहिक रिश्ते बनाने की बात उछालते हैं तो वे लंगड़े लूले तर्क देते हैं। करणी सेना का एक भी प्रवक्ता यह कहते नहीं सुनाई देता कि जिस काल में राजा की बेटी भी सुरक्षित नहीं थी उस काल में आम बेटियों का क्या हाल रहा होगा। हनुमान बेनीवाल जैसों के सवालों के जवाब में कोई भी राजपूत, जाट कन्याओं के मुगलों/मुस्लिमों से विवाह का हवाला नहीं देता जबकि ऐतिहासिक दस्तावेजों में ऐसी घटनाएं भरी पड़ीं हैं। किन्तु समस्या यह है कि कोई अध्ययन नहीं करता। करणी सेना के नेता स्वयं तो चमकना चाहते हैं किन्तु बौद्धिक क्षत्रित्व का उनके पास न तो सामान है और न ही योजना। आज जरूरत तो बौद्धिक क्षत्रियों की है।

एक बात समझ लीजिए कि आप आसमान से नहीं टपके हैं। एक समय पर तो जाति अस्तित्व में ही नहीं थीं और वर्ण भी कर्मानुसार थे। जाति व्यवस्था के आने और उसके दृढ़ होने का जो भी कारण रहा हो, लेकिन अनेकों जातियों की एक पूर्वज से उत्पत्ति से इनकार नहीं किया जा सकता। इतना अवश्य है कि राजपूत काल से हाल ही तक राजपूत पुरुष से अन्य जाति की कन्या का विवाह होने पर उस दंपत्ति की संतान को राजपूत जाति में प्रवेश नहीं था तथा वह कन्या की जाति में ही जाती थी। उसके कम से कम दो विशिष्ट कारण थे, कि एक तो इस्लामिक हमलों से बचने के लिए रक्त शुद्धता के जो मापदंड समाज ने बनाए थे उन पर खरा रहना। दूसरा सत्ता और अधिकार में अंधा होकर कोई भी समर्थ व्यक्ति, आम महिलाओं पर अतिचार न करे। अतः जिस स्त्री से उसे प्रेम था उससे उसे विवाह करने की अनुमति तो थी किंतु इस प्रकार के विवाह से उत्पन्न संतान को पिता की राजपूती ग्रहण करने का अधिकार नहीं था तथा उसे पिता के गौत्र या किसी नए गौत्र के साथ कन्या की जाति में प्रवेश दिया जाता था। एक ओर तो यह एक सामान्य महिला की शोषण के विरुद्ध सुरक्षा थी दूसरी ओर यह सामाजिक संकट से बचने का सम्मानजनक उपचार था। ऐसी संतान का ओहदा राजपूत पिता की जाति से थोड़ा कम किंतु माता की जाति से ऊंचा रहता था। अनेक जातियों के सैंकड़ों ऐसे वंशों के साहित्यिक रिकॉर्ड के साथ - साथ, वंशावलियों, जनश्रुतियों, लोकगीतों में प्रमाण मौजूद हैं। तथा आज भी इन संतानों का ओहदा अपनी जाति में सामान्य से ऊंचा ही है। इन गौत्रों का सदा ही पितृ राजपूत वंश से भाईचारा रहा है। उस भाई चारे को कायम रखिए, स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए लांछित मत करिए।

जब एक राजनीतिक दल ने हिंदुओं को अपने पीछे लाम बंद कर दिया है तो दूसरे निश्चय ही हिंदुओं को जातियों में बांट कर अपने साथ लाने का प्रयास करेंगे। आने वाले समय में यह प्रयास और भी शिद्दत से होंगे। अच्छे से समझ लीजिए इस तरह के हमले और अधिक होंगे तथा कड़वाहट और बढ़ेगी। आप लोगों को अपना होमवर्क सही से करना है। जो- जो लांछन ये आपके ऊपर लगाते हैं वे स्वतः ही उनके ऊपर लग जाते हैं क्योंकि भारतीय समाज ने एक जैसे ही कष्ट समरूप सहन किए हैं। बौद्धिक क्षत्रिय बनिए अपना ज्ञान बढ़ाइए। लगभग सभी प्रमाणिक ऐतिहासिक पुस्तकें इंटरनेट पर मौजूद हैं। अध्ययन करिए समझ लीजिए जो जितना बुरा आपके लिए कह रहा है उससे कई गुना बुरा उसके लिए लिखा है। यह ज्ञान किसी को अपमानित करने के लिए नहीं अर्जित करना बल्कि यह ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर परोसे गए झूठ को सच से अलग करेगा। आपके पुरखों ने जो भी अर्जित किया वह अपने शौर्य से अर्जित किया था। उसके लिए उन्होंने आरक्षण नहीं मांगा चुनाव नहीं लड़े। और शौर्य आत्म बल से पैदा होता है, आत्म बल मजबूत करिए। करणी सेना जैसे संगठन व्यर्थ के सर्कस बंद कर के गांव - गांव में शारीरिक और आत्म बल बढ़ाने के केंद्र स्थापित करें। पुस्तकाल खुलवाएं, बालकों को शिक्षा, खेल, राजनीति और रोजगार में भागीदारी के लिए तैयार करें। शारीरिक, आत्मिक तथा बौद्धिक क्षत्रिय बनाएं वरना आपका सब कुछ हड़पने के बाद गिद्धों की नज़र आप के बाप पर है!

जय माता जी की

राकेश चौहान

#RSC 

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Friday, 23 May 2025

इतिहास से व्यभिचार

रामजीलाल सुमन और हनुमान बेनीवाल! 

कैसी विडम्बना है कि एक के नाम में राम है और दूसरे के में हनुमान! 

ऐसे में काका हाथरसी की एक कविता याद आ उठती है। 

"नाम रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर।

नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और।।"

चलिए रामजीलाल को राम के हवाले कर के आज हनुमान बेनीवाल की बात करते हैं। 

कहते हैं कि भारमल ने अपनी असली पुत्री का विवाह अकबर से नहीं किया। जिस हरका बाई का विवाह उस ने अकबर के साथ किया वह उसकी अपनी पुत्री थी या नहीं, इस बहस में नहीं जायेंगे। अगर उसने कोई चाल चलकर दासी पुत्री का भी विवाह अकबर के साथ कर दिया होगा तो भी इस विवाह के कारण ही अनेक छोटे राज्यों और उनकी प्रजा का अस्तित्व संकट में आ गया। मुगल जिसके मर्जी आए उस के यहां डोला भेज देते थे। या तो बेटी दो या फिर युद्ध करो! इतनी ताकतवर सेना के सामने युद्ध मतलब हार, हजारों सैनिकों का बलिदान, सामान्य प्रजा में मारकाट, घरों में आगजनी और प्रजा की हजारों महिलाओं का शील हरण। बेचारा राजा प्रजा की हजारों बेटियों का शील बचाने के लिए एक बेटी का बलिदान कर देता था।

मुसलमानों से वैवाहिक संबंध किसी भी काल में अच्छी नजर से नहीं देखे गए। अगर ऐसा ना होता तो जिंदा महिलाएं जौहर की आग में ना प्रवेश करतीं! वीरांगनाएं अपने सिर थाली में सजा कर भेंट में न देतीं! युद्ध से मुंह मोड़ कर आए पतियों के लिए घर के दरवाजे बंद न होते! जौहर न होते, साके न होते! जौहर तो भारत के इतिहास का सबसे पीड़ादायक अध्याय है! जीवित जलना संभवतः सब से कष्टदाई मृत्यु है! सबसे पहले त्वचा जलती है, कोशिकाएं फूलती हैं, नसें फटती हैं और मृत्यु आने में तो 7- 8 मिनट लगते हैं, सिर कटने में तो एक पल ही लगता है। कितनी कठिन मृत्यु! सिर्फ इसलिए कि जौहर की उन चिताओं की राख का चंदन समाज के माथे पे सज कर धर्म रक्षा की राह दिखाता रहे कि धर्म रक्षकों हमारे बलिदान की लाज रखना! ऐसे बचा है सनातन धर्म! वरना ईराक, ईरान, सीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगाल, कश्मीर... सब कुछ तो निगल गए दुष्ट! पूर्वजों ने न जाने कैसे - कैसे धर्म को बचाया है ! 

निश्चित ही मुगलों को बेटी ब्याहना कभी गौरव का प्रश्न नहीं था। इस बात को "किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति - राणा राज सिंह" तथा "कल्ला राय मलोत" के किस्सों से समझा जा सकता है। यदि गर्व की बात होती तो फर्रूखसियर को अपदस्थ कर के अजीत सिंह अपनी पुत्री को साथ ले जा कर उसकी शुद्धि करके सनातन धर्म में वापसी न करवाता। यदि यह गौरव का विषय होता तो वे पूर्वज मुगल और मुस्लिम कन्याओं से विवाह भी करते। जो कि नहीं हुआ! यदि कभी हुआ भी तो उस कन्या से उत्पन्न संतान न तो राजपूतों में अपनाई गई और न ही हिंदू धर्म में, बल्कि उन्हें मुस्लिम ही बनना पड़ा! 

हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर कुछ अपवाद भी हुए होंगे, जो स्वाभाविक हैं। कुछ लोगों ने लालच में आ कर धर्म परिवर्तन भी किया है और कन्याओं के विवाह भी विधर्मियों के साथ किए हैं। ऐसे व्यक्तिगत उदाहरण राजपूत या किसी एक जाति में न हो कर पूरे हिंदू समाज में हैं। यहां बात हनुमान बेनीवाल की हो रही है तो  

कई जाटों ने अपनी बेटियों को नज़राने के तौर पर देकर मुगलों से ज़मींदारी भी हासिल की। इस तरह के जाटों को अकबरी, जहाँगीरी, शाहजहाँनी और औरंगज़ेबी जाटों के नाम से जाना जाता है, जो उसी मुगल बादशाह के नाम से संबंधित हैं, जिनके शासनकाल में इन परिवारों ने इस तरह के रिश्ते किए थे। यह तब और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब राजपूतों के पास तो मुस्लिम आक्रमण के पहले से ही राज था किंतु मुगलों के सबसे बड़े लाभार्थी जाट थे जिन को मुगलों ने सबसे ज्यादा चौधराहटें बांटी थीं। असल में चौधरी पद ही मुगलों का बनाया हुआ है। निश्चय ही जाटों के लिए तो यह रिश्ते सीधे - सीधे लाभ प्राप्ति के थे। यह इसलिए अधिक प्रकाश में नहीं है क्योंकि एक तो आमतौर पर यह रिश्ते मुगल घराने में न होकर मुगलों के छोटे सरदारों के साथ हुआ करते, दूसरे, यह नैरेटिव वामपंथी व्यभिचार को रास नहीं आता। लेकिन निश्चित मानिए कि पहले ब्राह्मण और अब राजपूतों को हाशिए पर पहुंचाने के बाद अगला निशाना जाट ही हैं। बारी सब की आएगी क्योंकि आप हजारों सालों से अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं और वामपंथ को यह गवारा नहीं!

इतिहास के कुछ पन्ने सुनहरे हैं तो कुछ स्याह हैं! इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ा जाना आवश्यक है। चाहे कोई भी जाति हो उस समय की परिस्थिति के अनुसार एक समाज के रूप मे उन्होंने अपना सर्वोत्तम किया! तभी तो आज भी हम 100 करोड़ हैं! कहीं- कहीं किसी के निजी स्वार्थ हो सकते हैं किन्तु एक समाज के रूप मे क्या हुआ ये देखना आवश्यक है ! 

जातिवाद के जिस घोड़े पर सवार हो कर हनुमान बेनीवाल को राजनीतिक लाभ मिला था अब उसका बुलबुला फूट चुका। इतिहास के साथ व्यभिचार कर के वह फिर जातिवाद की राजनीति गर्माना चाह रहा है। इस में सब से आवश्यक है कि तथ्यों से अवगत रहें। 

क्रमशः

राकेश चौहान 

#RSC