'किन ने मारो री रसगुल्ला फिराय के' इस लोक गीत की मुझे एक ही पंक्ति याद है, हालाँकि बचपन में मैंने इसे लगभग हर विवाह समारोह में औरतों के गाए जाने वाले गीतों में सुना है! ये वो समय था जब मेरा सोचना था कि किसी लड़की को रसगुल्ला मारना तो रसगुल्ला बर्बाद करना ही है! मुझे उस वक्त उस गुदगुदी का अहसास न था जो किसी खूबसूरत बाला को रसगुल्ला मारने से हो सकती है! मैं जब भी ये गीत सुनता तो सोचता आखिर क्यूँ किसी को कोई रसगुल्ला मारे! रसगुल्ला सदा मेरी प्रिय मिठाई बना रहा और रसगुल्ले की इस बर्बादी पर मेरे मन में सदा रोष ही रहा! वैसे रसगुल्ले के असली स्वाद का पता मुझे कलकत्ता (कोलकाता न कहने पर ममता बनर्जी व सभी बांग्ला बंधुओं से क्षमा चाहूँगा) पहुँचने पर ही लगा! हालाँकि रसगुल्ले का जन्म स्थान उड़ीसा को माना जाता है परन्तु इस के वर्तमान स्वरुप का श्रेय बंगाल को जाता है! बंगाली रसगुल्ले ने मेरे अब तक प्रिय रहे रसगुल्लों का स्वाद भुला दिया और मेरे लिए आश्चर्य की बात ये थी कि रसगुल्ला गर्म भी खाया जाता है! मैं शर्त लगा कर कह सकता हूँ कि इस ब्लॉग के बहुत से पाठकों को इस बात कि जानकारी नहीं थी! खैर मजे की बात ये है कि गर्म रसगुल्ला खाने का मजा ठन्डे रसगुल्ले से एक दम अलग है और अब तो मेरी हर बंगाल यात्रा में दोपहर को गर्म और रात को ठन्डे रसगुल्ले खाने का नियम ही बन गया है! अभी दो दिन पहले एक मित्र से पता लगा कि बर्धमान का सीता भोग और मीही दाना (धन्यवाद् पौलोमी) बड़े मशहूर हैं! मुझे उम्मीद है कि अपनी अगली बंगाल यात्रा में इन का आनंद उठा सकूँगा!
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