भोर नहीं क्यों हुआ आज, भानु नहीं क्या उठा आज !
नहीं चमकी क्यों रेशमी किरणें, हरे-हरे पत्तो से छन कर !
नहीं निकले पंक्ति बद्ध पक्षी, मेरी छत के ऊपर से !
नहीं चली है पवन भी ठंडी, मेरे तन को छू कर के !
नहीं चमकी क्यों ओस की बूँदें इन्द्रधनुषी रंगों से आज !
भोर नहीं क्यों हुआ आज, भानु नहीं क्या उठा आज !
मीठे बोल कानों से हो कर साँसों में क्यों नहीं घुले !
जागो उठो मुझे कहने को सुन्दर होठ भी नहीं हिले !
भूल गएँ हैं शायद ये भी, नए फूल जो नहीं खिले !
वहाँ झाड़ियों के झुरमुट में मोर नहीं क्यूँ ठुमका आज !
भोर नहीं क्यों हुआ आज, भानु नहीं क्या उठा आज !
कोयल न कूकी, मुर्गा न बोला, चिड़िया भी चहचाई नहीं !
टन-टन करती धवल गायें, नहीं गयी जंगल की ओर !
सूनी-सूनी लगती बस्ती, नहीं मचा पनघट पर शोर !
इकलौती बुलबुल बस बोली भोर नहीं क्यूँ हुआ आज !
भोर नहीं क्यों हुआ आज, भानु नहीं क्या उठा आज !
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