गुजरात से मुझे गहरा लगाव है। 1998 में पहली बार वहां जाने के बाद से गुजरात
से मेरा रिश्ता कभी नहीं टूटा। साल में दो बार अपने काम के सिलसिले में मैं गुजरात
के लगभग हर छोटे बड़े कस्बे की यात्रा करता हूँ। केजरीवाल गुजरात का विकास ढूँढने
शायद आँखों पर पट्टी बाँध कर गए थे। अगर उन के पास समय हो तो इस बार मैं उन्हें
सड़क मार्ग से दिल्ली से गुजरात की यात्रा करवाउंगा उस के बाद उन्हें लगेगा कि
विकास ढूँढने गुजरात जाने की बजाय वैशाली स्थित उन के घर से कुछ किलोमीटर के दायरे
में ही ऐसी अनेकों चीजें मिल जाएँगी जिन्हें गुजरात के स्तर पर लाने की उन की
तीव्र इच्छा जाग उठेगी। केजरीवाल की ईमानदारी पर शक किये बिना मैं उन से गुजारिश
करता हूँ कि सिर्फ विरोध करने के लिए किसी का विरोध उचित नहीं। आपका विरोध
रचनात्मक होना चाहिए। केजरीवाल के घर से मुश्किल से एक किलोमीटर दूर साहिबाबाद
औद्योगिक क्षेत्र है, छोटे-बड़े अनेक उद्योग हैं। वहां जाने पर उन्हें पता लगेगा कि
प्रदूषण विभाग, बिजली विभाग, श्रम विभाग, जिला प्रशासन, आयकर विभाग किस तरह खून
चूसने में लगे हैं। ऐसा नहीं है कि केजरीवाल महोदय को इस बात की जानकारी नहीं है
पर यह नहीं भूलना चाहिए कि वो मूल रूप से राजनेता नहीं सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं
(मेरी तरह) और सामाजिक कार्यकर्त्ता का प्रिय खेल है ऊँगली-ऊँगली और ये ऐसा
सामाजिक खेल है जिस में कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई जाती बल्कि जहाँ भी पता लगे कि
काम ढंग से हो रहा है वहां पहुँच जाओ और ऊँगली करो और ये दिखाओ कि ढंग से काम होने
की बात अफवाह है। जिस मैदान में काम ठीक से ना हो रहा हो वो मैदान इस खेल के लिए
मुफीद नहीं। इस नियम को अपना धर्म मानते हुए केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने गुजरात
का रुख किया। यहाँ मेरा ये मतलब कतई नहीं है कि गुजरात में भ्रष्टाचार नहीं है।
पूरे भारत की तरह गुजरात के सरकारी दफ्तरों में भी रिश्वत चलती है आखिर हथेली
गरमाना तो हमारा राष्ट्रीय प्रतीक है। परन्तु गुजरात के जिक्र की पृष्ठभूमि में
विरोध भ्रष्टाचार का नहीं मोदी का किया जाना है। बेशक गुजरात की स्थिति बाकी देश
से काफी अच्छी है। सड़क, बिजली जैसी बुनियादी जरूरतों के मामले में अच्छे-अच्छे
राज्य गुजरात के सामने पानी भरते हैं। पालनपुर से चलने वाली पानी की ट्रेन अब नहीं
मिलती बल्कि कच्छ और सौराष्ट्र के हर गाँव तक पीने का मीठा पानी पहुँच गया है। मैं
इस का श्रेय मोदी को भी नहीं दे रहा बल्कि वहां की जनता को दूंगा। 1998 के समुदी तूफ़ान और
उस के बाद 2001 के भूकंप के समय मैं भुज में था। मैंने देखा कि किस प्रकार गुजरातियों
ने प्रकृति के कहर से उबरते हुए बहुत जल्दी खुद को संभाल लिया। मुझे याद है देश के
बाकी हिस्सों से भेजे गए पुराने वस्त्रों को स्वाभिमानी गुजरातियों ने पहनने से
इंकार कर दिया था। तीन दिनों से भूखे और जनवरी की ठण्ड में ठिठुरते लोगों ने कहीं
भी भोजन-वस्त्र के वितरण में लूटपाट नहीं की। एक मंदिर के प्रांगण से मेरी देख रेख
में चल रहे वितरण कार्य में पीड़ितों ने धैर्य और अनुशासन का अद्भुत उदाहरण दिया। जबकि
पूर्वी भारत और देश के पूर्वी तट पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के समय ऐसा देखने
को नहीं मिलता। गुजरातियों के जज्बे को सलाम के साथ ही AAP और केजरीवाल से मेरी ये गुजारिश है कि मोदी के
विरोध में गुजरातियों के स्वाभिमान पर चोट न करने का ध्यान रखें। व्यक्ति का
निर्माण समाज ही करता है और कोई आश्चर्य नहीं कि देश के स्वाभिमान की बात करने
वाले गाँधी और पटेल (और अब मोदी) गुजरात में ही पैदा हुए।
Change is the rule of nature... if not done in positive direction... it takes its own course
Sunday, 23 March 2014
Saturday, 22 March 2014
बिजनेस पार्टनर
कुछ समय पहले एक वरिष्ठ और आर्थिक रूप से संम्पन्न साथी ने मेरे सामने
बिजनेस पार्टनर बनने का आकर्षक प्रस्ताव रखा उस के पीछे जो कारण उन्होंने बताया वो
बड़ा रोचक था। उन्होंने कहा सदा ही हर आदमी उन से बेईमानी करता है और उन्हें धोखा
देता है तथा मुझ में उन्हें ईमानदार शख्स नजर आया। मैंने कहा कि जिसे यह लगता है
कि सब लोग उसे धोखा ही देते हैं ऐसे व्यक्ति के साथ सांझेदारी खतरनाक है। मेरी
ईमानदारी का आधार जो मुझे उन्होंने बताया वो भी कम मज़ेदार नहीं था। वो था मेरे
पिता की ईमानदारी, मेरी जाति और मेरी सेना की पृष्ठभूमि। मैंने उन्हें कुछ ईमानदार
पिताओं की बेईमान संतानों, मेरी जाति के कुछ भ्रष्टाचारियों तथा कुछ ईमान बेचने
वाले फौजियों के नाम गिनाये। अंत मैंने बड़े सम्मान से उन का प्रस्ताव अस्वीकार कर
दिया और उन से निवेदन किया कि ईमानदार सहयोगी ढूँढने की बजाय कृपया वो कमी दूर
करें जिस की वजह से लोग उन्हें धोखा देते हैं। आज वो सज्जन आम आदमी पार्टी में हैं
और मुझे यकीन है कि ईमानदार पार्टनर की उन की खोज बंद नहीं हुई है।
Sunday, 16 March 2014
लाल- गुलाबी
बचपन में दूरदर्शन
पर आने वाला एक विज्ञापन याद आ रहा है। “ ये क्या भाई साहब आप लाल ही में अटके
हैं? ये लीजिये गुलाबी और बड़ा ।“ पहले से स्थापित लाइफबॉय से प्रतिस्पर्धा में ये
ओके साबुन का विज्ञापन था।
आम आदमी पार्टी के
नेता योगेन्द्र यादव की हाल ही की जनसभा के बाद एक पत्रकार मित्र ने पूछ लिया कि
क्या मैं आआपा में शामिल हो गया। उनका सवाल जायज भी था क्यों कि मैंने इस
कार्यक्रम का मंच संचालन किया था। आम आदमी पार्टी के प्रति अपने झुकाव को मैं कभी
नहीं छुपाता और अक्सर इस के कार्यक्रमों में भी शामिल होता रहता हूँ। इसी वजह से कुछ
साथियों के निशाने पर अक्सर रहता हूँ। कारण कि जिन मुद्दों को ले कर हम साथियों ने
जनलोकपाल आन्दोलन में भाग लिया, धरने, प्रदर्शन, यात्राएँ की, आआपा की विचार धारा
में उस की झलक दिखती है । परन्तु किसी राजनैतिक दल में शामिल होने का फैसला छोटा
नहीं होता। योगेन्द्र यादव की जनसभा भी इस फैसले को रोके रखने का एक मजबूत कारण ही
साबित हुई। अपनी मृदु भाषा में उन्होंने प्रभावित करने वाले विचार रखे और उस के
बाद मैंने कई व्यक्तिओं को भावुक होते पाया। उन्होंने अपना एजेंडा भी बताया।
किसान, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा आदि विषयों पर भी सावधानी पूर्वक प्रकाश
डाला। पर ये कहानियां तो हम लोग कब से सुनते आ रहे हैं। उन्होंने ग्राम स्वराज की
बात की। उन्होंने कहा कि गाँव मृत हो चुके हैं। लगा कि आआपा की सरकार आएगी तो
ग्राम स्वराज आ जायेगा गाँव फलेंगे फूलेंगे। अच्छा लगता है सुनने में! पर हकीकत ये
है कि गाँव मरे नहीं हैं बल्कि उन की
हत्या कर दी गई है और उन के हत्यारे हैं मंचों पर खड़े हो कर सपने दिखाने वाले
राजनेता। हर किसान की आत्महत्या की खबर पर किसी फ़िल्मी डायलॉग की तरह कानों में आवाज गूंजती है “ये
आत्महत्या नहीं हत्या है।“ ऐसा लगता है कि योगेन्द्र यादव जैसे लोगों को व्यवस्था
परिवर्तन की जल्दबाजी है और इसी लिए सदस्यता अभियान, पार्टी, झाड़ू जैसे सत्ता प्राप्ति
के पुराने परन्तु कारगर हथकंडे अपनाते दिखाई देते हैं। ऐसे में क्या आश्चर्य कि
चार पैसे खर्च करके कुछ लोग खम्बों पर लटके मिलते हैं। राजनीति में कैरियर तलाशते
राजनैतिक दलों के द्वारा लतियाये और धकियाये छुटभैयों, मेलों में होती कुश्तियों
में भारी दान दे कर मुख्यातिथि बनते चेहरा चमकाऊओं और खम्बों पर लटक दिसंबर-जनवरी की ठण्ड में
ठिठुरते महानुभावों के आआपा की कश्ती में सवार होने की कार्यकर्ताओं की चिंता पर
योगेन्द्र जी ने बड़ा सरल और देसी उदाहरण दिया कि गाडी में सवार होने वाले लोग पहले बाहर से चिल्लाते हैं कि
खोलो आने दो और फिर अन्दर घुस कर दूसरे घुसने वाले यात्रियों पर चिल्लाते हैं कि
जगह नहीं है। महोदय आप के उदाहरण में थोड़ी कमी रह गयी। हो ये रहा है कि कुछ लोगों
ने गाड़ी तैयार की और उन में से एक ड्राईवर की सीट पर बैठ बाकी सब को गच्चा दे कर किन्हीं
दूसरों को ही बैठा कर गाड़ी भगा ले गया।
ऐसा लगता है कि अन्ना हजारे के सीधे, सरल और निर्दोष
विचारों को ले कर चलने वाले केजरीवालों और मनीष सिसोदियाओं सरीखे सामाजिक
कार्यकर्ताओं को योगेन्द्र यादव जैसे ‘प्रचलित दूषित’ राजनीति की गोद में पले
धुरंधरों की सोच का ग्रहण लग गया है और आआपा की राजनीति उन्ही विचारों के
इर्दगिर्द घूमती नजर आती हैं। सत्ता प्राप्ति से परिवर्तन के विचार में कुछ भी
बुरा नहीं है परन्तु वह विचार अपनी सोच में लाना होगा। सब से बड़ी चिंता है कि क्या
सत्ता हथिया कर गावों में स्वराज आएगा? बल्कि क्या ऐसे एक और भ्रष्ट जमात खड़े होने
का खतरा नहीं है जैसा कि जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के बाद हुआ। जिस गाड़ी
का जिक्र योगेन्द्र यादव ने किया सचमुच वैसी ही गाड़ी फिर से तैयार हो रही है।
चुनाव, पार्टी और प्रचार के हथकंडों ने व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को कहीं पीछे
धकेल दिया है। एक गंभीर प्रयास को ले कर बनी पार्टी राजनीति में कैरियर तलाशते
लोगों का लॉन्चिंग पैड बनती जा रही है। बदलाव रातों-रात तो नहीं आते उन के लिए समय
देना होता है बलिदान करना होता है। भाजपा जैसी पार्टी को खड़े करने में आरएसएस के
लाखों स्वयंसेवकों ने अपना जीवन संगठन को समर्पित कर दिया। संपन्न घरों के नवयुवक भिक्षा
के भोजन से गुजारा कर के संगठन के लिए अपना जीवन दे रहे हैं तब आरएसएस का वजूद है।
आरएसएस को साम्प्रदायिक कह कर पल्ला झाड़ने वालों को इस की कार्यशैली से जरूर सीखना
चाहिए। आआपा को सीखना होगा उन कामरेडों से जो कंधे पर झोला लटका कर चने खा कर पैदल घूमते घूमते बूढ़े हो गए। कांग्रेस बनने के 65 साल बाद आजादी मिली और कम से कम आम आदमी पार्टी को तो यह सीखना ही चाहिए कि कुछ लोग जो गुमनाम
रह कर बलिदान देने को तैयार नहीं होंगे तब तक ना तो व्यवस्था बदलेगी ना ही पार्टी
ही खडी होगी। गांवों की स्थिति तब सुधरेगी जब वहां जा कर गाँव के सामाजिक ढांचे को
मजबूत किया जायेगा। सरपंच समर्थक, विरोधी और तटस्थ, तीन खेमों में बंटे लोगों को
जब तक एक चबूतरे पर ला कर सामाजिक ढांचा ठीक नहीं किया जायेगा गाँव आबाद नहीं
होंगे। अगर व्यवस्था बदलनी है तो त्याग करना होगा, बलिदान देने होंगे। ब्रांड वही
चलेगा जो बेहतर भी होगा सिर्फ गुलाबी और बड़ा होने से काम नहीं चलने वाला।
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