poems

Monday, 29 August 2016

धार्मिक क्रूरता

इस्लाम जो आज हो गया है उसका उद्देश्य है समाजों में प्रचलित हजारों साल पुराने संस्कार और रीति रिवाजों का गला दबा कर अरब में प्रचलित व्यवस्थाओं को लागू करना। देवबंदी तंजीमों का ये सफ़ल प्रयोग कश्मीर में साफ़-साफ़ दिखाई देता है। ये वहाबी रिवाज़ भौगोलिक-सामाजिक रूप से अरब में सही कहे जा सकते हैं पर अन्य जगहों  पर इनकी सार्थकता पर विचार किया जाना जरूरी है। अगर पर्दा औरत के लिए जरुरी मान भी लिया जाये तो यह अरबी बुर्के की शक्ल में ही क्यों! बिना किसी सामाजिक-भौगोलिक विवशता के क्यों मूछें साफ़ कर के दाढ़ी बढ़ाई जाए! कुरान क्यों हिंदी, पंजाबी, उर्दू या संस्कृत की जगह  अरबी में ही पढ़ी जाए? अल्लाह का हिंदी अर्थ भगवान क्यों नहीं है?
मेरे गृह नगर के समीप एक मज़ार, जिस पर आमतौर पर हर मजहब के लोग जाया करते हैं, के मुख्य द्वार पर स्वास्तिक का चिन्ह बना था। कुछ साल पहले मज़ार प्रशासन ने नए सिरे से दीवारों पर चित्रकारी करवाई और इस क्रम में स्वास्तिक चिन्ह पोत दिया गया। भारत की भूमि ने हर संस्कृति का स्वागत किया है और उसे अपने जीवन में शामिल किया है। बशर्ते उस संस्कृति ने भी भारत की मिट्टी में रचने बसने की कोशिश की हो। मुस्लिम फकीरों की मज़ारों पर जाने वाले हिंदुओं की संख्या किसी भी सूरत में मुस्लिमों से कम नहीं होती। यही हाल ईसाई संतों की श्राइनों का भी है। कहते हैं धर्म तोड़ता नहीं जोड़ता है किंतु यहाँ विश्व के दो सब से बड़े 'मत' 'धर्म' का लिबास ओढ़ कर अधिक से अधिक लोगों को 'तोड़' कर अपने में 'जोड़ने' को लालायित हैं। मेरा विरोध न इस्लाम से है न ईसाईयत से। मुझे बड़ी तल्ख और कड़वी शिकायत हजारों सालों के मानव जीवन के विकास की गाथा को मिटा कर कुछ शताब्दियों के अंतराल में जन्मी पद्धतियों और वहाँ के रीति रिवाज़ों को अन्यत्र थोपने की कुचेष्टा पर है। ज़ाहिर सी बात है न तो ईसा मसीह ने ईसाई मत बनाया और न ही पैगम्बर मोहम्मद ने इस्लाम! उन्होंने तो उस काल के समाज की कुरीतियों को दूर करने के प्रयास हेतु एक जीवन शैली उस समय के समाज के सामने रखी। उसके बाद की गाथा तो उनके बाद के उनके तथाकथित अनुयायियों ने अपनी सुविधा के अनुरूप लिखी। और उस गाथा में वो सब है जो उन 'अनुयाइयों' ने चाहा, नहीं है तो प्रभु यीशू और मोहम्मद साहब की वो सोच जो कि उनके विचारों की आत्मा है। अगर ऐसा न होता तो इस्लाम इतने फिरकों और ईसाईयत इतनी शाखाओं में न बँटी  होती। इन शाखों का होना भी आश्चर्य की बात नहीं।  इस्लाम और ईसाइयत भी आख़िर दो महान पुरुषों के विचार ही तो हैं। निश्चित ही मानव समाज के विकास का ईंधन विचार ही है। उन विचारों में अन्य विचारों का आ मिलना मानवीय विकास के क्रम का एक सहज़ पक्ष है। उन नये विचारों से कुछ लोगों का सहमत और कुछ का असहमत होना भी एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। यही हर संप्रदाय के विभाजन का मूल कारण है। प्रभु यीशू और पैगम्बर साहब  के अनुयायियों का विभाजन भी उतना ही सहज़ और स्वाभाविक था जितना कि इन दो महापुरुषों का उन से पहले के अन्य महापुरुषों के मतों और विचारों से अलग होना। इन में से किसी ने स्वयं के ईश्वर होने का दावा नहीं किया। किन्तु इन के अनुयायियों ने इन्हें ईश्वर के रूप में स्थापित कर दिया। मैं इस स्वतंत्रता दिवस पर एक मिशनरी स्कूल के आयोजन में गया। वहां एक गाना चलाया गया जिस में जीसस से भारत को खुशहाली प्रदान करने की प्रार्थना की गयी थी। निःसंदेह इस का सन्देश सुखदायी है परन्तु क्या जीसस ने स्वयं को कभी भगवान के रूप में प्रचारित किया था? यही हाल इस्लाम का भी है। बुत परस्ती का विरोध करने वाले अनुयायियों के पास इस बात का संतोषजनक जवाब नहीं है कि आख़िर मक्का जाना बुत परस्ती से अलग कैसे है। और मुस्लिम संतों की कब्रें-दरगाहें बुत क्यों नहीं हैं? अब इनमें भी इस्लाम के अनुयायियों में विरोध है। कुछ के अनुसार यह इस्लाम में मान्य है कुछ के अनुसार नहीं। असल में तो ये सब बातें मानव स्वभाव  पर आधारित हैं। सहमति और असहमति मानव का अन्तर्निहित गुण है। किसी की मान्यताओं को धता बता कर अपनी मान्यताएं थोपना पूरी मानव जाति के प्रति अपराध है। मेरा सख्त विरोध किसी समाज की परंपराओं को मिटा कर आयातित परम्पराओं के प्रति है। इस्लाम और ईसाईयत के प्रचारकों ने यदि स्वयं के मत को उत्तम कह कर   भारत की सनातन परम्पराओं के स्थान पर स्थापित करने की बजाय यहाँ के समाज संस्कृति में मिलने की कोशिश की होती तो संभवतया आज मोहम्मद पैगम्बर और ईसा मसीह की भी अवतारों के रूप में पूजा हो रही होती। इसका जीता जागता उदाहरण शिरडी के साईं बाबा का है। कि किस प्रकार एक मुस्लिम फ़क़ीर को हिन्दू मंदिरों में स्थान मिल गया। मेरा प्रखर विरोध जनसमूहों द्वारा कालांतर में विकसित परम्पराओं को समाप्त कर नई विचारधारा लादने की 'धार्मिक' क्रूरता के प्रति रहा है और रहेगा।