आज 23 सितंबर है। आज ही के दिन राव तुलाराम की 1863 में मृत्यु हुई थी। अतः आज के दिन नसीबपुर - नारनौल के युद्ध में 16 नवंबर 1857 को अंग्रेजों से लड़ते शहीद हुए स्वतंत्रता सेनानियों की याद में राजकीय अवकाश रखा जाता है। अब इस बात का जवाब मैं नहीं दे पाऊंगा कि जब युद्ध 16 नवंबर को हुआ तो शहीदी दिवस 23 सितंबर को क्यों मनाया जाता है। आज सुबह से नसीबपुर के शहीद स्मारक में नेताओं का तांता लगा हुआ है। मेडिकल कॉलेज नाम विवाद में इस बार का शहीदी दिवस कुछ खास ही हो गया है। किंतु इस युद्ध के जिन नायकों को भुला दिया गया बस मेरा यह लेख उनको समर्पित है! जो लड़े, मरे और गुमनाम रह गए।
1857 में झज्जर ढाई सौ गांवों के साथ हरियाणा की सबसे बड़ी रियासत था। नवाब अब्दुर्रहमान खान इसका शासक था। झज्जर का नवाब अंग्रेजों और बहादुर शाह जफर दोनों को खुश रखना चाहता था और असल में दोनों को ही मूर्ख बना रहा था। इसका सेनापति समद खान और सेना अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ना चाहते थे। इन परिस्थितियों में समद खान ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उधर भट्टू का शहजादा मोहम्मद अजीम भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर बैठा। इधर रेवाड़ी परगना के लगभग 87 गांवों की इस्मतरारी जागीर (ऐसी जागीर जिसमें जागीरदार के पास केवल रिवेन्यू इकट्ठा करने का अधिकार रहता था) के जागीरदार राव तुलाराम ने भी अंग्रेजों से विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों ने झज्जर और हिसार पर हमला बोलकर वहां के किलों पर अपना अधिकार कर लिया, झज्जर के नवाब को गिरफ्तार करके दिल्ली भेज दिया गया जहां अगले साल जनवरी में उसे फांसी की सजा दे दी गई। समद खान झज्जर की सेना लेकर कर निकल गया। भट्टू का शहजादा भी अपनी सेना के साथ निकल गया। इधर रेवाड़ी में अंग्रेजों के आने से पहले ही तुलाराम ने रेवाड़ी छोड़ दी। कुछ समय उपरांत इन तीनों राज्यों की सेना राजस्थान के सिंघाना में इकट्ठी हुई। सवाल यह था कि अब क्या किया जाए। उधर मारवाड़ के आऊवा के ठिकानेदार ठाकुर कुशाल सिंह ने अंग्रेजों और मारवाड़ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा अंग्रेज कमांडर का सर काट के किले के द्वार पर टांग दिया। कुशाल सिंह के साथ 6 और ठिकानेदार थे। कुशाल सिंह चाहता था कि मेवाड़ के ठिकानेदारों को साथ ले कर ही दिल्ली पर हमला किया जाए किन्तु उसके साथियों का कहना था कि तुरंत दिल्ली जाया जाए। आसोप के ठिकानेदार ठाकुर श्योनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह, आलनियावास के ठाकुर अजीत सिंह, बांजवास के ठाकुर जोध सिंह, सीनाली के ठाकुर चांद सिंह, सलूंबर के प्रतिनिधि के रूप में सुंगडा के ठाकुर सुखत सिंह तथा आऊवा के प्रतिनिधि ठाकुर पुहार सिंह के नेतृत्व में इन ठिकानों की सेना दिल्ली की ओर कूच कर गई। अंग्रेज सेना की जोधपुर लीजियन, एरिनपुरा और डीसा के विद्रोही पुरबिया सैनिक भी इन से आ मिले। जब यह लोग सिंघाना पहुंचे तब तक दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था। हरियाणा के उपरोक्त राज्यों की सेना के साथ ये सेनाएं भी मिल गईं। अंग्रेजों से लड़ने का फैसला हुआ और इन संयुक्त सेनाओं ने रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया किंतु रेवाड़ी को उपयुक्त स्थान न मानकर यह लोग वापस नारनौल आ गए क्योंकि नारनौल अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह थी जिसमें पहाड़ी पर एक किला था। चूंकि झज्जर सबसे बड़ी रियासत था अतः उसकी सेना सबसे बड़ी थी और युद्ध का नेतृत्व झज्जर का सेनापति समद खान ही कर रहा था। इस युद्ध में ठाकुर दलेल सिंह के नेतृत्व में कांटी से भी एक रिसाला शामिल हुआ था। क्योंकि कांटी भी झज्जर का ही भाग था अतः संभवत यह रिसाला झज्जर की सेवा में ही रहा होगा। रेवाड़ी के दल का नेतृत्व राव रामलाल तथा किशन गोपाल के हाथ में था। दोपहर के समय पहले झड़प नसीबपुर में हुई तथा बाद की लड़ाई नारनौल में हुई। आज की पुरानी कचहरी की छतों पर मोर्चे लगा कर पुरबिये अपनी बंदूकों के साथ बड़ी बहादुरी से लड़े। शाम होते होते अंग्रेजों की विजय हुई तथा क्रांतिकारी सेना तितर बितर हो गई। अंग्रेजी सेना के घुड़सवारों ने तीन मील तक पुरबिया 'पंडी' सैनिकों को दौड़ा-दौड़ा कर काट डाला। क्रांतिकारी सेना के लगभग 500 तथा अंग्रेजों के 80 सैनिक काम आए जिनमें अंग्रेज सेनापति जेरार्ड भी था। पूरा नारनौल शहर खाली हो गया गलियां लाशों से पट गईं। इसके बाद विद्रोहियों को ढूंढ ढूंढ कर पकड़ा गया तथा 33 लोगों को फांसी दे दी गई। मरने वालों और फांसी पाने वालों में स्वाभाविक रूप से मुसलमान अधिक थे। झज्जर और भट्टू का क्षेत्र अंग्रेजों की मदद करने वाले जींद, पटियाला तथा नाभा के बीच तीन भागों में बांट दिया गया। ऊपर का इलाका जींद को, दादरी, कानोड़ और नारनौल के क्षेत्र पटियाला तथा कांटी तथा बावल के परगने नाभा को मिले।
इस युद्ध के जिन योद्धाओं और बलिदानियों का नाम भुला दिया गया शहीदी दिवस पर उन्हें भी श्रद्धांजलि।
संदर्भ -
के सी यादव -the revolt of 1857 in Haryana
NA Chick - Annals of the Indian rebellion
खड़गावत Rajasthan's role in the struggle of 1857
राकेश चौहान
#RSC
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