बचपन में मोहल्ला पुरानी सराय की माता के मढ पर सांग होते थे। अमर सिंह राठौड़, भरतरी (भर्तृहरि), राणा प्रताप और ऐसे ही नायक! और कलाकार! ब्राह्मण, नाई, कुम्हार, सैनी (माली), बनिए यानि ना तो आयोजकों में और ना ही कलाकारों में कोई राजपूत था! यह समय का वो दौर था जब क्षेत्र की अधिसंख्य जाति ने वोट बैंक राजनीति का स्वाद नहीं चखा था तथा सांसद - विधायक भी अलग-अलग जातियों के बनते आ रहे थे। वैसे भी नायकों - महापुरुषों की कोई जाति नहीं होती वह पूरे समाज के होते हैं। यूं तो यह आम धारणा है। लेकिन वोट बैंक राजनीति महापुरुषों की भी जाति अच्छी तरह जानती है! च्यवन ऋषि की क्या जात थी यह किसी को नहीं पता। लेकिन वोट बैंक पॉलिटिक्स को यह भी पता है! और च्यवन ऋषि का तो शायद ना भी पता हो लेकिन राव तुलाराम की जाति का जरूर पता है। जिस ढोसी पर्वत पर च्यवन ऋषि ने तपस्या की तथा विश्व प्रसिद्ध च्यवनप्राश का आविष्कार किया, उसकी गोद में बनने वाले मेडिकल कॉलेज का नाम च्यवन ऋषि से अच्छा कुछ नहीं हो सकता था, जो कि सरकार ने रख भी दिया। लेकिन यह नाम वोट बैंक राजनीति के गले नहीं उतर रहा।
यदि 1857 के विद्रोह से यूपी और बिहार के विद्रोही सैनिकों को निकाल दिया जाए तो इस क्रांति में सिर्फ अंग्रेजों से नाराज मुसलमान शासक बचते हैं जिन्होंने जिहाद का नाम लेकर मुसलमानों को एकजुट किया। अंग्रेजों की हार के बाद फिर से अत्याचारी मुस्लिम शासन आने के भय से हिंदू शासक इस में तटस्थ रहे। यदि पूर्वांचल के कुंवर सिंह और राजा बेनीमाधव सिंह जैसे राजा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े भी तो ये कारण रहा कि अधिकतर क्रांतिकारी सैनिक अवध के बैसवाड़ा, पूर्वांचल के भोजपुर, शाहबाद क्षेत्र के थे तथा सैनिकों के विद्रोह के कारण उनके रिश्तेदारों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा लिए। 16 नवंबर 1857 को नसीबपुर के खेतों में लड़ने वाली क्रांतिकारी सेना में सबसे बड़ा हिस्सा सेनापति समद खान के नेतृत्व में झज्जर की सेना का था उनके साथ भट्टू , रेवाड़ी तथा जोधपुर लांसर के बागी सैनिक भी आ जुड़े। युद्ध में मरने वाले अधिकांश सैनिक मुसलमान तथा राजपूत थे और युद्धोपरांत जिन 33 सैनिकों को फांसी दी गई थी उन के नाम भी उपलब्ध हैं जिन में अधिकांश मुस्लिम हैं। भट्टू का शहजादा आजम, समद खान और उसका पुत्र, नवाब अब्दुर्र रहमान खान जैसे मुस्लिम तथा लाला श्योबक्श राय (झज्जर के बनिया दीवान जिन्हें फांसी दी गई), माधो सिंह, महेंद्र सिंह, दलेल सिंह (सभी राजपूत) रामलाल, कृष्णदेव (अहीर) तथा सैकड़ों गुमनाम सैनिक वोट बैंक की राजनीति को रास नहीं आते। तभी तो च्यवन ऋषि के सामने तुला राम को खड़ा कर दिया। हाल ही में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत का सेहरा खट्टर, अमित शाह या आरएसएस किसी के सर पर बांध दो लेकिन असल में यह चुनाव वोट बैंक की राजनीति से तंग आई साढ़े पैंतीस बिरादरी का उनको सबक था जो मुख्यमंत्री पना अपनी बपौती समझते थे। अगर दक्षिणी हरियाणा के वोट बैंक ने हरियाणा चुनाव से कुछ नहीं सीखा है तो अगली बार दक्षिणी हरियाणा में भी साढ़े पैंतीस बनाम आधा के लिए तैयार रहे। ढोसी पर्वत की जड़ में बनने वाले मेडिकल कॉलेज का नाम च्यवन ऋषि के नाम से बेहतर कुछ नहीं हो सकता अतः वोट बैंक से आग्रह है कि वह महापुरुषों को एक दूसरे के सामने न खड़ा करे।
राकेश चौहान
#RSC
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