पाकिस्तान के एक मशहूर कवि की एक कविता ‘मैं भी काफ़िर, तू भी काफ़िर' जब-तब वायरल होने लगती है। पहलगाम में काफिरों के नरसंहार का सोचते-सोचते बरबस याद आ उठी।
'पाकिस्तान को सबक सिखाओ' का शोर हर ओर है, प्रधानमंत्री का भी कहना है कि वह दुश्मन को सात पाताल में भी ढूंढ कर सजा देंगे। जो लोग सातवें आसमान पर जा कर हूरों से मिलने की तमन्ना लिए निर्दोषों के बीच जा कर फट जाते हों, वे पता नहीं पाताल की ओर मिलेंगे भी या नहीं। इस हिसाब से तो मोदी जी की दिशा एकदम विपरीत हो जाएगी। वैसे भी विपरीत दिशा में चलने की सद्गुण विकृति तो हमारे डीएनए में ही है। (यहां बात उस डीएनए की नहीं हो रही जो सबका एक है।)
मुंह में घास का तिनका दबा कुरान की कसम खा कर दया की भीख मांगने वाले मोहम्मद गौरी ने अगले साल फिर से चढ़ाई कर दी थी। फिर क्षमा, शांति वार्ता और वापसी के दिखावे की आड़ में, रात के अंधेरे में छुपकर, धोखे से, सोते सैनिकों को काट डाला। उस वक्त मोदी की जगह पृथ्वीराज थे। पृथ्वीराज की दिशा भी विपरीत ही निकली। उसके बाद कभी कश्मीर में, कभी चित्तौड़ में, कभी जैसलमेर में, कभी रणथंभौर में, कभी शरणागत बन कर, कभी धर्म पुत्र बन कर, कभी संत बन कर मानवता का दुश्मन छलता रहा, नौजवान लड़ते मरते रहे, जौहर होते रहे, महिलाएं भोग दासी बनती रहीं और उस काल के शासक भी सातवें आसमान की ओर उड़ान भरने वालों को सात पातालों में खोजते रहे।
वैसे भी हमें तो विश्वास जीतना है। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास! हां यह विश्वास जीतने का शौक भी नया नहीं है। इस शौक का सबसे पहला शिकार केरल का राजा चेरमन पेरुमल था जिसने देश की सबसे पहली मस्जिद अरब से आने वाले व्यापारियों के लिए बना कर दी थी। उसके बाद तो लाखों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले देश में, शायद स्थानाभाव में!!! हजारों मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनीं! मूर्तियां तोड़कर उनकी सीढ़ियों में लगाई गईं! जबरन धर्मांतरण हुए! और केरल तो आज आतंकवादी संगठन पॉपुलर फ्रंट का गढ़ है! फ़िर भी विश्वास जीतने के प्रयास अब तक जारी हैं।
ईराक के यजीदी, इजरायल के यहूदी, बांग्लादेश, मुर्शिदाबाद और अब कश्मीर के हिंदुओं पर, या विश्व में कहीं भी हुए इस्लामी हमले में जो बात कॉमन है वो है काफ़िर। इस्लाम की सब से बड़ी किताब में काफ़िर के खिलाफ लिखे आदेश मुसलमान को काफ़िर से अहसान फ़रमोशी के अपराध बोध से पल भर में मुक्त कर देते हैं। इस बात को हमारा नेतृत्व डेढ़ हजार साल जाने - अनजाने नकारता रहा है। पहलगाम के दरिंदों को ढूंढ कर मार भी दोगे। पाकिस्तान को भी खत्म कर दोगे। उससे क्या होगा! उस विचारधारा का क्या जो पूरी दुनिया में काफिरों पर होने वाले हमलों के लिए जिम्मेदार है। वो तो आप बच्चों को बता तक नहीं रहे! चलिए अब तक का दोष तो नेहरू के सर मंढ देते हैं। पर आपने इस विषय में क्या किया? इस्लामियों की किताबें भरी पड़ी हैं कि कौन सा मंदिर तोड़कर कहां मस्जिद बनाई! किस जगह कितने काफिरों को मुसलमान बनाया! वो साफ-साफ लिख कर गए! उन्होंने दीवारें तक नहीं बदलीं! 11 साल हुए किसी कक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल करने की हिम्मत हुई आपकी? संभवतः ये उसी 'गुडी- गुडी' व्यवहार का परिणाम है जिसको पंडित दीनदयाल उपाध्याय और वीर सावरकर ने सद्गुण विकृति कहा है! इनको सर पर ढोने वाले संगठन यदि इन्हें नहीं पढ़ सकते तो सच वाला, साहिल, समीर, ज़फ़र हेरिटिक और सलीम वास्तिक जैसे एक्स मुस्लिमों को ही सुन लें। समस्या तो यही है कि काफ़िर असली दुश्मन को नहीं पहचानता यदि पहचानता है तो बताने में हिचकिचाता है। वो जिस के पूर्वजों को जबरन धर्मांतरित किया गया था वही मुसलमान काफिरों के खून का प्यासा हो कर इस्लाम का सब से विश्वस्त सिपाही है। उसे पुरखों पर हुए अत्याचार का बोध कराने को अलग विषय तो जाने दीजिए, पाठ्य पुस्तक भी छोड़िए, अध्याय क्या पैरा भी रहने दीजिए, एक पंक्ति भी किसी पाठ्य पुस्तक में है क्या? आतंकियों, पाकिस्तानियों को मिट्टी में मिलाने से काम हो जाएगा? अगर चोट करनी है तो विचारधारा पर करिए। स्कूलों - मदरसों के पाठ्यक्रम में बताईए कि कैसे-कैसे जबरन धर्मांतरण हुए, उनके संदर्भ इस्लामी पुस्तकों में ही मिल जाएंगे, वहीं से उठाइए। जब नई पीढ़ी का सच से सामना होगा तभी इस कट्टरता से लड़ पाएंगे। अपने मंदिर ही नहीं अपने लोगों को रिक्लेम करिए। याद रखिए हर मुसलमान एक मस्जिद है जो मंदिर तोड़कर बनाई गई है। सलमान हैदर की उपरोक्त कविता 'मैं भी काफिर, तू भी काफिर' असल में 'तू ही काफिर, तू ही काफिर' है!
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