ट्रेन में
मिले एक बुजुर्ग ने एक बार कहा था कि माता, भारत माता और गऊ माता की जितनी 'मिट्टी ख़राब' हुयी है इतनी किसी की नहीं हुयी। फिर भी इन
माताओं की 'सेवा' में 'सेवक' लगे रहते हैं। जैसे mother's day पर माँ को शुभकामना 'कार्ड' भेजना, स्वतत्रता दिवस और अनशनों में तिरंगा फहराना और पितृपक्ष में
गऊओं को गऊ ग्रास देना। पूरे साल कूड़ा करकट में मुंह मार कर पोलीथीन खाने
वाली गायों की पितृ पक्ष में मस्ती रहती है। ये 'मस्ती' गौओं को भी काफी महंगी पड़ती है। तले हुए भोजन का स्वाद गौओं पर
भारी पड़ता है और हजम न होने की वजह से सैंकड़ों गायें दम तोड़ देती हैं। कैसी
विडम्बना है कि गौदान जैसे महान उपन्यास के उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु
भी पेट ख़राब होने से हुयी थी। कहते हैं कि पूरी जिंदगी भुखमरी में काटने के बाद अंतिम
समय में मिलने वाली रोयल्टी से देशी घी की जलेबियाँ खाने के कारण उन को पेशिच हो
गयी थी। कुछ देर पहले ऐसी ही एक बीमार गाय की सूचना एक साथी द्वारा मिलने पर
पहुँचने पर पाया कि दो दिन पहले गयी पितृ पक्ष
की अमावस्या का ‘भोज’ खाने से उस की ये हालत हुयी है। मेरे पहुँचने तक उसे कुछ
उपचार दिया जा चुका था परन्तु उस की हालत चिंताजनक थी। घुर्र-घुर्र करके गुजरती बाईकों
पर निरीह प्राणी पर नजर डाल कर वहां से गुजरने वाले हर आदमी में मुझे उस गाय की ये
हालत करने वाले की शक्ल नजर आ रही थी। वहां से गुजरती एक वृद्धा के वहां रुक कर उस
की हालत पर चिंता प्रकट करने का कारण मुझे जल्दी ही समझ आ गया जब मुझे पता चला कि उस
के घर में गाय है। SPCA की एम्बुलेंस ला कर उसे गौशाला में पंहुचा तो दिया है
परन्तु वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है। जीवन और मृत्यु ऊपर वाले के हाथ में
है तो निरीह जानवरों को मरणासन्न करना नीचे वालों के हाथ में। अफ़सोस की बात है कि
हिन्दू धर्म में परम्पराओं का स्थान आडम्बर ने ले लिया। पूरे साल दुत्कारे जाने
वाली और कूड़ा खाने वाली गायें पितृ पक्ष में भगवान हो जाती हैं।
फेसबुक पर गौवध पर मुसलमानों को पानी पी-पी
कर कोसने वाले सज्जन ऐसे मौकों पर मुहं पर ऊँगली रख लेते हैं। मूल प्रश्न “आखिर
गौवध क्यों” अनुत्तरित ही रह जाता है। अपने आप में एक अर्थव्यवस्था, गऊ को
बाजारवाद ने हाशिये पर ला कर खड़ा कर दिया है। अफ़सोस इस बात का है कि भजन संध्याओं,
जागरणों और कलश यात्राओं पर पानी की तरह पैसा बहाने वालों को अक्ल नहीं आ रही है।
ये समझने में न जाने कितना समय लगेगा कि गायों का भला न गौशालाओं में होगा, न पितृपक्ष
में गौग्रास खिलाने से और न ही काटने वालों से बचाने से। गाय को उस के घर, उस के
खूंटे पर वापस लाना होगा।
गाँव जाने पर ब्लैक में मिलते रसोई गैस सिलेंडरों का रोना रोते कुछ नौजवानों के
सामने मैंने एक योजना रखी थी कि पांच परिवारों की एक सोसायटी बनायी जाये तथा लगभग
आठ दुधारू पशु रखे जाएँ। हर गाँव में पांच घरों में दो बेरोजगार व्यक्ति बड़े आराम
से मिल जायेंगे उन्हें काम पर लगाया जाये जिस के बदले में उन्हें वेतन दिया जाये।
गोबर पर आधारित बायोगैस संयंत्र लगाया जाए। इस प्रकार इन पांच घरों में न तो दूध
की कमी होगी और न ही इंधन की। बचे हुए दूध और खाद से आय होगी सो अलग। इस के अलावा
तीन वर्ष बाद से मवेशियों को बेचने पर दो से तीन लाख की आमदनी हर वर्ष होगी सो अलग।
मेरी बात ये कह कर हवा में उड़ा दी गई कि आप पांच घरों की कहते हो यहाँ एक घर में
ही लोग मिल कर नहीं रह रहे। मेरा जवाब था कि नहीं रह सकते तो फिर खरीदो ब्लैक में रसोई
गैस।
गौरक्षा के लिए इस के अलावा भी एक योजना
चलायी जा सकती है। अक्सर पशु पालक के सामने एक समस्या होती है कि उन दिनों में
क्या हो जिन दिनों में पशु दूध नहीं दे रहा। इस समस्या को गौशालाओं की मदद से हल
किया जा सकता है। जैसे ही गाय दूध देना बंद करे उसे गौशाला पंहुचा दिया जाये। गौपालक
से हर महीने उस के भरण पोषण का खर्चा लिया जाये और उस के ब्याने पर गाय उस के
मालिक को वापस दे दी जाये। बदलते परिवेश में थोडा बहुत फेर बदल तो करना ही होगा। इस
तरह की योजनाएँ चलाने से ही गाय रुपी अर्थव्यवस्था को बचाया जा सकता है। और यदि
गाएं बच गयीं तो गाँव भी बच जायेंगे और गाँव बचे तो ये महान देश और इस की पुरातन
संस्कृति बच जाएगी वरना विदेशी अर्थव्यवस्थाओं की गुलाम शोषित मजदूरों और शोषक
पूँजीपतियो की एक जमात सारी मान्यताओं और संस्कारों को कुचल कर सामने खड़ी दिखाई
देती है।
बहरहाल गाय को गौशाला में छोड़ कर वापसी में
रास्ते में हो रहे सत्संग में भजन चल रह था ‘यमुना किनारे गऊएँ चराए घनश्याम’। मेरे
मन में जमा हुआ रोष क्षोभ में बदल गया।
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