कुछ बात तो है सूफीवाद में कि गोल टोपी पहनने से इनकार करने वाला प्रधानमंत्री जश्न ए खुसरो कार्यक्रम में तालियां बजाता नजर आता है। सच भी है संगीत बला ही ऐसी है। मैं अक्सर अपने संगीतकार और गायक मित्रों को मजाक में कहता हूं कि तुम लोग कोमल हृदई कलाकारों की आड़ में सुरताल के इंजीनियर हो! क्यों कि संगीत तुम्हारे लिए सुरों के उतार-चढ़ाव और वाद्यों की ताल के अलावा कुछ नहीं है किंतु साधारण प्राणी के लिए यह मदहोश करने से लेकर पागलपन और मौत तक है। मनुष्य तो क्या जंगली जानवर तक संगीत में मस्त होकर शिकारी के तीरों का कालान्तर से ही निशाना बनते आए हैं। संगीत, शिकार और शिकारी की जुगलबंदी का सटीक उदाहरण है अमीर खुसरो की लिखी कव्वाली, 'छाप तिलक सब छीनी री मो से नैना मिलाय के।' वही अमीर खुसरो जिसकी याद में फिल्मकार मुजफ्फर अली की रूमी फाउंडेशन नाम की संस्था पिछले पच्चीस साल से 'जश्न ए खुसरो' कार्यक्रम आयोजित करती आ रही है और उसी कार्यक्रम में देश का प्रधानमंत्री आज अतिथि है। मध्यकाल से आज तक यह कव्वाली न जाने कितने प्रसिद्ध और गुमनाम गायकों ने गाई होगी। लता और आशा की जोड़ी से ले कर नुसरत फतह तक ने इसे क्या खूब गाया है! निःसंदेह खुसरो ने सल्तनत काल में अनेकों उत्कृष्ट सूफी रचनाएं की हैं, किंतु भारत में सूफीवाद का उद्देश्य कभी भी प्रेम और श्रृंगार नहीं अपितु धर्मांतरण रहा है और इसी उद्देश्य की पूर्ति करती ये रचना छाप और तिलक छीन कर इस्लाम से नैन मिलाने को प्रेरित करती रही। खिलजी के आक्रमण में जौहर के मार्मिक पलों में भी धधकती ज्वाला में कूदती वीरांगनाओं की देह की सुन्दरता को अपनी रचनाओं में टटोलता नीच खुसरो शताब्दियों से अपने सूफी काव्य से दुनिया को भरमाता आ रहा है। हिंसा, लालच और जजिया के अलावा सूफीवाद भी इस्लामी आक्रमण का प्रमुख हथियार है। कालान्तर में इस्लामी जिहाद सूफियों के दर्शन और कव्वालियों की आड़ में लाखों-करोड़ों छाप-तिलक छीनता आ रहा है। अफगानिस्तान, कश्मीर, दक्कन, दक्षिण और हिंदू राजाओं के वे क्षेत्र जहां इस्लामियों का सीधा दखल प्रभावी नहीं रहा वहां सूफियों ने छाप तिलक छीनने का दायित्व बख़ूभी निभाया। अनेक सूफ़ी संतों ने इस्लामी आक्रांताओं को भारत पर आक्रमण करने को उकसाया और इसके नियम-संस्कारों, राजाओं तथा उनकी सेनाओं के बारे में गुप्त सूचनाएं दी। बहुत सारे सूफियों ने तो तलवार उठा कर इन आक्रमणकारियों का, काफिरों को घुटनों पर लाने हेतु, साथ तक दिया। धर्मांतरण में इनके योगदान, दर्शन और मानसिकता की झलक पाने के लिए अजमेर में ख़्वाजा की दरगाह के आसपास की गलियों में बिकते साहित्य पर आप सरसरी नज़र डाल सकते हैं। चाहे ईरान और उस के उत्तर के क्षेत्रों में सूफियों ने अध्यात्म की गहराई में प्रवेश करते हुए अनलहक़ (मुझ में खुदा है) का दावा करने का इल्ज़ाम खा कर मौत की सजाओं को गले से लगाया हो किंतु भारत में सूफी इतने 'सूफी' नहीं रहे। बुल्ले शाह जैसे एक आध अपवाद हो सकते हैं वरना असंख्य काफिरों को धर्मांतरित कर के सूफियों ने स्वयं को 'अनलहक़' के इल्ज़ाम से बखूबी बचा कर रखा। भारतीयों के धार्मिक प्रतीकों, रंगों और परम्पराओं का दुरुपयोग सूफियों ने धर्मांतरण में बड़ी कुशलता से किया। सूफीवाद को इस्लाम का हरावल दस्ता कहने में मुझे तनिक संकोच नहीं। जिसका शिकार आम भारतीय तो क्या अंतिम हिन्दू सम्राट दिल्ली अधिपति पृथ्वीराज चौहान से ले हिन्दू हृदय सम्राट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक सब बन जाते हैं। ऐसे में छाप तिलक की रक्षा कैसे होगी!
राकेश चौहान
#RSC
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