poems

Tuesday, 21 October 2025

गुला काका

उसका असली नाम याद नहीं किंतु सब उसको गुला काका ही बोलते थे। गुला काका श्रीनगर में हमारी वायुसेना मैस में वेटर था। बहुत सीधा और सच्चा इंसान! सभी वेटर और मेस बॉयज की तरह वह भी कश्मीरी मुसलमान था। बाकी लोग गुला काका को छेड़ते रहते। मज़ाक करते, उसकी चीजें छिपा देते। कभी - कभी वह बहुत परेशान हो जाता। उन दिनों मैं मेस का इंचार्ज था। 10-12 नौजवान मेस बॉयज थे! अच्छे लड़के थे, मजीद, मुख़्तार, एक दो नाम याद हैं। मुझ से बड़ा प्रेम रखते थे, मैं भी उनका ख्याल रखता। जब मैं वहां से तबादला हो कर जा रहा था तो उन्होंने मुझे विदाई पार्टी दी और उनमें से आधे उस दौरान रोने लगे! खैर, ऐसे ही एक दिन गुला काका छेड़छाड़ से परेशान, मेस के रेस्ट रूम में, चारपाई पर, दीवार के सर लगा कर अधलेटा था। मैं देखते ही सारा माजरा समझ गया। ढांढस देने के उद्देश्य से मैं उस से बात करने लगा। गुला काका झटके से बैठ गया, बोला कि इनको मेरा देवता सजा देगा! और फिर वैसे ही लेट गया। उसकी इस अदा पर अपनी हंसी दबाते हुए मैंने पूछा - कौन देवता? वो फिर वैसे ही उठा और अपनी बात कह के फिर लेट गया। मेरी हर जिज्ञासा का जवाब देने को वह वैसे ही बैठता और वापस अधलेटा हो जाता। जितना रोचक उसका लेट- बैठ था उतनी ही रोचक उसकी कहानी! उस ने बताया कि उसके घर के बगल में एक मंदिर है, क्योंकि क्षेत्र के हिंदू घाटी से पलायन कर चुके थे और घाटी के बचे- कुचे मंदिर केंद्रीय सुरक्षा बलों की देखरेख में थे और गुला काका रोजाना उस मंदिर में साफ- सफाई करता था। गुला काका बोला कि उसे कोई समस्या होती है तो वह मंदिर में जा कर देवता को कह देता है। मैंने उस से पूछा - क्या वो तुम्हारी सुनता है? मेरे इस जघन्य अपराध पर उसने मुझे घूर कर देखा जैसे और बोला, 'तो क्या आपका सुनेगा? हम वहां रहता है, सेवा करता है तो हमारा नहीं सुनेगा क्या?' उसकी सरलता से मेरा मन भर आया। मैं ने उस से पूछा कि हिंदू क्यों चले गए? 'आपको पता नहीं है यहां का हाल?' मैं निरुत्तर हो गया!

मुसलमानों का इस्लामीकरण एक धीमी किंतु सतत प्रतिक्रिया है। बारीकी से देखने पर समझ आता है मुसलमान और इस्लाम दीन के अलग-अलग पड़ाव हैं। मुसलमान होना त्वरित है किन्तु इस्लामी होना प्रक्रिया। आरम्भ में इस्लाम अपने नए शिकार को अधिक नहीं कुरेदता, इस्लाम का हरावल दस्ता सूफीवाद इस विधा का माहिर है। सूफियों की दरगाह पर लगे हिंदू चिह्न इस के प्रमाण हैं। यही चिह्न इस्लाम अपने नए मुसलमानों पर से भी नहीं हटाता। ऐसे ही जैसे मंदिरों के शिखर गिरा कर उन्हीं दीवारों पर गुंबद बना कर मस्जिद की शक्ल दे देना और कुछ समय बाद दीवारों पर लगे हिंदू चिह्न कुफ्र हो जाते हैं, जो कि रेगमाल से रगड़ कर मिटाए जाते हैं। फिर एक दिन कश्मीर में घूमती तबलीकें कह देंगी कि गुला काका कुफ्र कर रहा है और उसके सनातनी निशान रेगमाल से रगड़ रगड़ के हटा दिए जाएंगे। बहुत से मुसलमानों को अपनी जाति - गौत्र, सब पता है। कुछ तो अपनी कुलदेवी की पूजा तक करते हैं! उनकी महिलाएं हिन्दू महिलाओं की तरह साड़ी बांधती हैं, कुछ बिंदी भी लगाती हैं (राजपूत मुसलमानों के विषय में यह बात जानता हूं, इसके बारे में एक अलग पोस्ट होगी किसी दिन)। किंतु इस्लाम सब कुछ छीन कर इंसान के हर पहलू पर छा जाने का नाम है और निश्चय ही गुला काका भी करोड़ों लोगों की तरह उन के निशाने पर है। एक समय था जब मेवात में एक भी पर्दा नशीन दिखाई नहीं देती थी, आज दृश्य अलग है। तभी तो कहता हूं कि मुझे हर मुसलमान में मस्जिद दिखाई देती है जो मंदिर तोड़ कर बनाई गई है।

राकेश सिंह चौहान 

#RSC 

Saturday, 11 October 2025

आरएसएस

 सरस्वती स्कूल में पढ़ते थे तो शाखा में जाना स्वतः ही हो गया। विक्रम जी यादव, सुभाष जी सैनी, अशोक जी वर्मा, एक दो नाम भूल रहा हूंगा, यह लोग शाखा लगाते थे। यह वह समय था जब किसी भी राज्य में भाजपा की सरकार एक बार भी नहीं बनी थी। 30- 35 बच्चे, मेरी उम्र के, शाखा में आया करते। पूरा गणवेश तो पहने किसी को कभी देखा हो याद नहीं, हां विक्रम जी और सुभाष जी खाकी निक्कर और सफेद कमीज़ में ज़रूर आया करते। भगवा ध्वज के सामने प्रार्थना, जिसकी हमें शुरू की 3-4 पंक्तियां ही आतीं थीं 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे.... नमस्ते नमस्ते' तक। किसान और लोमड़ी, घोड़ा पटक, रुमाल झपट जैसे खेल खेलते और फिर बैठ कर किसी महापुरुष की कहानी! संसाधन नहीं थे पर जज़्बा था। आज समझ आता है कि आरएसएस को यहां तक लाने के लिए लाखों स्वयंसेवकों ने कितना संघर्ष किया होगा। आज आरएसएस को 100 साल पूरे हो गए। सही है परिवर्तन आने में सौ साल तो लगते ही हैं। नगर में पूरे गणवेश में पथ संचलन हुआ, अच्छी खासी तादात भी थी। लग रहा था कि शहर के सभी सेवक आज स्वयंसेवक हैं। वैसे भी राज भाजपा का है तो सब संघी ही हैं। किंतु संघ की ताकत पथ संचलन नहीं बल्कि शाखा है। जब आरएसएस कुछ नहीं थी तब भी एकमात्र शाखा में 30-35 बच्चे आते थे। मुझे नहीं लगता आज नगर में लगने वाली चार-पांच शाखाओं में कुल मिलाकर भी इतने बच्चे आते होंगे। 12 साल जैसा हुआ राज्य में हिंदू संस्कृति को पुनः जागृत करने का दावा करने वाली सरकार है किन्तु नारनौल के ज्ञात इतिहास के पहले बलिदानी राजा नूनकरण के जिस किले पर आरएसएस का कार्यक्रम हुआ वहां नूनकरण के नाम का एक पत्थर तक नहीं है।

कांटी एक ऐतिहासिक गाँव

 एक गधरसा छाप फेसबुक कमेंट में मुझ से बोला कि जब हिंदुओं को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया गया तो तेरे पूर्वज कैसे बच गए ? उसे यह इतिहास बताना पड़ा। 

बात तब की है जब मेरे पूर्वज कांटी गांव में नहीं आए थे बल्कि बरड़ोद में रहते थे।कुछ लोग मेरे पूर्वज, जो क्षेत्र के सामंत थे, के पास गए तथा फरियाद की कि मुसलमान जबरदस्ती एक ब्राह्मण कन्या का निकाह मुसलमान युवक से करना चाहते हैं। मेरे पूर्वज ने अपने एक पुत्र के साथ सैनिक टुकड़ी भेज दी तथा ब्राह्मण को विवाह की तारीख निश्चित करने का आदेश दे दिया। जब बारात आई तो वहां महिलाओं के वेश में सैनिक बैठे थे। लड़ाई हुई और सारे आतयातियों को मार कर समारोह स्थल में आग लगा दी। उसके बाद दोबारा हमले के डर से लोगों ने इस गांव में रहने से मना कर दिया तब मेरे बुजुर्ग ने राणा की उपाधि तथा क्षेत्र के गांव दे कर अपने पुत्र को स्थाई रूप से यहीं बसा दिया।

मुगल काल

 मुगल काल में भारत दुनिया का सबसे अमीर देश था! यह एक अलग सेकुलरी चूर्ण है! निसंदेह उस वक्त भारत दुनिया का सबसे अमीर देश था। किंतु मुगल काल में जीडीपी दर कम हुई थी। 1000 ईस्वी में जहां यह 28% के आसपास थी मुगल काल में यह 22 से 24 परसेंट रही। नेगेटिव जीडीपी ग्रोथ का सीधा-सीधा अर्थ यह हुआ कि सरकारी खजाने में बढ़ोतरी हो रही थी लेकिन आम लोग गरीब हो रहे थे। मुगल काल में लैंड रिवेन्यू सबसे ज्यादा था। अकबर के समय में यह हालांकि आधिकारिक स्तर पर 33% था लेकिन इसकी असल वसूली 50% से भी ऊपर थी। अर्थात किसान की उपज का आधे से अधिक भाग सरकार वसूल कर रही थी।

Without lies Islam dies

 बस यही फर्क है इस्लाम में और सनातन धर्म में। इस्लाम आपको कहता है कि आंख बंद करके मान लो और सनातन धर्म कहता है कि नहीं प्रमाण मांगो, शंका उठाओ, बहस करो। कुरान कहती है कि ये है खुदा का आखिरी कलाम और उसके बाद ढक्कन बंद! किंतु गीता कहती है कि युद्ध भूमि में खड़े होकर भी आपको स्वयं भगवान से अपनी शंका का समाधान करने का हक है! प्रश्न पूछ रे अर्जुन! नास्तिक दर्शन- आस्तिक दर्शन, वाम मार्ग-दक्षिण मार्ग, नानक पंथी, दादू पंथी, कबीर पंथी, सतनामी, पौराणिक, आर्यसमाजी ... कितनी धाराएं! कितना ज्ञान! कितने प्रश्न! कितने समाधान! कोई किसी के खून का प्यासा नहीं! कोई किसी को काफिर कह के नहीं मार रहा। मुसलमान की पढ़ाई भी कुरान की तर्ज पर हो रही है। कोई सवाल नहीं कोई भी विवेचना नहीं, बस मान लो! किंतु कम से कम भारत में तो इसका कारण शिक्षा व्यवस्था ही है कि सच्चाई जानबूझकर दबा दी गई। नई रिसर्च तो जहां-तहां, इस्लामी समकालीन लेखकों द्वारा इस्लामी किताबों में लिखे गए हिंदुओं पर अत्याचारों को भी पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं किया गया। क्योंकि उस वक्त मुस्लिम नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में था वह स्वयं को तुर्की और अरबी ही मानते थे। उन्होंने हिंदुओं को गंगा जमुनी तहजीब के नाम से भरमाया और मुसलमान को यह भरोसा दिला दिया कि आप अरबी और तुर्की ही हो! असल में तो इस्लामियों के सबसे अधिक अत्याचार मुसलमान पर ही हुए हैं लेकिन सिर्फ एक सोच ने कि 'बस मान लो' उन को दिमागी कुंद कर दिया! अपने भाई का सिर काट कर अपने बाप को भेजने वाला औरंगजेब उनका आदर्श है और रामनामी चादर ओढ कर घूमने वाला, वेद उपनिषदों का अनुवाद फारसी में करवाने वाला दारा शिकोह काफ़िर! दिक्कत ये है कि मुसलमान सवाल नहीं पूछता बस मान लेता है। उसे सवाल पूछने वाली व्यवस्था तक रास नहीं आती इसीलिए किसी इस्लामी देश में लोकतंत्र कामयाब नहीं होता। जिस दिन मुसलमान सवाल पूछने लगेगा चीजें अपने आप ठीक होने लगेंगी। क्योंकि -

Without lies Islam dies!

#RSC

दलित कार्ड

 वाकई दलित कार्ड हर बार ताश के खेल का हुकुम का इक्का साबित होता है। ये सामने आया नहीं कि बाकी 51 पत्ते ज़मीन पर लंबलेट! चला तो यह गया बी. आर. गवई पर जूता फेंकने के मामले में भी था, लेकिन जिसको इन्होंने हुकुम का इक्का समझ कर पटका मारा था वो तो चिड़ी  का गुलाम निकला और हुकुम का इक्का राकेश आनंद के हाथ से मुस्कुराता हुआ बाहर आया। राकेश आनंद की एक ही बात ने कि गवई कहां का दलित वो तो बौद्ध है, असली वाला दलित या SC तो मैं हूं, जैसे वामपंथी-मिशनरी गठबंधन की धोती का धागा ही खींच दिया। इस डर से कि अब दलित> नव बौद्ध> ईसाई रूट का भांडा फूटेगा कि कैसे घाल मेल करके SC में नवबौद्धों को शामिल किया गया, चुप्पी छा गई। जैसे ताश के खेल में हुकुम के इक्के को ब्रह्मास्त्र कहते हैं वैसे ही दलित कार्ड भी अचूक है। किंतु अफसोस है कि हर बार ये विघटनकारियों के हाथ में ही मिलता है जो हर चाल के बाद समाज या राष्ट्र का कुछ हिस्सा जरूर तोड़ता है। इस बार इसका राकेश आनंद के हाथ में मिलना एक सुखद संयोग ही कहिए।

क्या आपको सूनपेड याद है? अजी वही पलवल के पास एक गांव में दो दलित बच्चों को सोए हुए ही जला दिया था। दलित कार्ड चला गया और मासूम बच्चों को जिंदा जलाने के  इल्ज़ाम में 11 'ऊंची जाति के दबंग ठाकुर सामंत' जेल चले गए। पुलिस की शुरुआती जांच में ही सामने आ गया था कि केरोसिन बाहर से नहीं फेंका गया बल्कि घर के अंदर से ही कुछ हुआ है। किंतु फिर से 51 पत्ते हुकुम के इक्के के सामने पस्त हो गए। निर्दोष मनुवादी पड़ोसी गिरफ्तार हुए, रोला हुआ और अंत में जांच सीबीआई के पास आ गई। जाँच में सीबीआई ने 11 के 11 आरोपियों को निर्दोष पाया विशेष सीबीआई अदालत ने उन्हें दोष मुक्त भी कर दिया। फौजदारी मुकदमे पूरे के पूरे परिवारों को बर्बाद कर देते हैं! इन आरोपियों के परिवारों पर क्या बीती होगी यह तो वही जाने, किंतु फिर उन दो मासूम बच्चों की मौत का जिम्मेवार कौन था? दलिल कार्ड के नीचे असल अपराधी छिप गया। हो सकता है कि वो परिवार का सदस्य या उन बच्चों का पिता ही हो। जो भी हो एक अपराधी उसी समाज के बीच खुला घूम रहा होगा जिसकी रक्षा के लिए दलित कार्ड बना था। ये दलित समाज के लिए अच्छा हुआ या बुरा? उस समय हरियाणा में बीजेपी सरकार बने कुछ ही समय हुआ था जो दलित कार्ड के सामने घुटनों पर आ गई थी।

पिछले सप्ताह हरियाणा के ही पुलिस अधिकारी वाई पूर्ण कुमार ने आत्महत्या कर ली उन्होंने अपने सुसाइड नोट में जातीय प्रताड़ना के आरोप लगाए हैं। राज्य में इस बार भी भाजपा सरकार है। राज्य कोई भी हो पर भाजपा सरकार दलित कार्ड से कायरता की हद तक भयभीत रहती है। आनन फानन में आला अधिकारियों पर गाज गिरी, डीजीपी तक को जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया। इससे पहले मृत आईपीएस अधिकारी के गनमैन को एक शराब कारोबारी से रिश्वत मांगने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। गनमैन का कहना है कि वह वाई पूर्ण कुमार के कहने पर ही यह राशि मांग रहा था। जजों, आईएएस तथा आईपीएस अधिकारियों का बे हिसाब संपत्ति अर्जित करना अब जग जाहिर है। कहते हैं राज्य के लगभग 70% आईपीएस अधिकारियों के पास 500 करोड़ से ऊपर की संपत्ति है। बड़े बड़े अधिकारी शराब के कारोबार में हिस्सा डालते हैं, इनके होटल रिसोर्ट और शराब के अहाते चलते हैं, सरकारी ठेकों में इनका हिस्सा रहता है और ईमानदार सरकार इनके सामने उकड़ू बैठी नजर आती है। यह भी हो सकता है कि इस सारे मामले में रिश्वत और मंथली का मामला भी कहीं ना कहीं शामिल हो। लेकिन अफसोस अब हुकुम के इक्के के नीचे सब दब जाएगा।

राकेश चौहान 

#RSC

Wednesday, 24 September 2025

कुछ याद उन्हें भी कर लो

 आज 23 सितंबर है। आज ही के दिन राव तुलाराम की 1863 में मृत्यु हुई थी। अतः आज के दिन नसीबपुर - नारनौल के युद्ध में 16 नवंबर 1857 को अंग्रेजों से लड़ते शहीद हुए स्वतंत्रता सेनानियों की याद में राजकीय अवकाश रखा जाता है। अब इस बात का जवाब मैं नहीं दे पाऊंगा कि जब युद्ध 16 नवंबर को हुआ तो शहीदी दिवस 23 सितंबर को क्यों मनाया जाता है। आज सुबह से नसीबपुर के शहीद स्मारक में नेताओं का तांता लगा हुआ है। मेडिकल कॉलेज नाम विवाद में इस बार का शहीदी दिवस कुछ खास ही हो गया है। किंतु इस युद्ध के जिन नायकों को भुला दिया गया बस मेरा यह लेख उनको समर्पित है! जो लड़े, मरे और गुमनाम रह गए।

1857 में झज्जर ढाई सौ गांवों के साथ हरियाणा की सबसे बड़ी रियासत था। नवाब अब्दुर्रहमान खान इसका शासक था। झज्जर का नवाब अंग्रेजों और बहादुर शाह जफर दोनों को खुश रखना चाहता था और असल में दोनों को ही मूर्ख बना रहा था। इसका सेनापति समद खान और सेना अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ना चाहते थे। इन परिस्थितियों में समद खान ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उधर भट्टू का शहजादा मोहम्मद अजीम भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर बैठा। इधर रेवाड़ी परगना के लगभग 87 गांवों की इस्मतरारी जागीर (ऐसी जागीर जिसमें जागीरदार के पास केवल रिवेन्यू इकट्ठा करने का अधिकार रहता था) के जागीरदार राव तुलाराम ने भी अंग्रेजों से विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों ने झज्जर और हिसार पर हमला बोलकर वहां के किलों पर अपना अधिकार कर लिया, झज्जर के नवाब को गिरफ्तार करके दिल्ली भेज दिया गया जहां अगले साल जनवरी में उसे फांसी की सजा दे दी गई। समद खान झज्जर की सेना लेकर कर निकल गया। भट्टू का शहजादा भी अपनी सेना के साथ निकल गया। इधर रेवाड़ी में अंग्रेजों के आने से पहले ही तुलाराम ने रेवाड़ी छोड़ दी। कुछ समय उपरांत इन तीनों राज्यों की सेना राजस्थान के सिंघाना में इकट्ठी हुई। सवाल यह था कि अब क्या किया जाए। उधर मारवाड़ के आऊवा के ठिकानेदार ठाकुर कुशाल सिंह ने अंग्रेजों और मारवाड़ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा अंग्रेज कमांडर का सर काट के किले के द्वार पर टांग दिया। कुशाल सिंह के साथ 6 और ठिकानेदार थे। कुशाल सिंह चाहता था कि मेवाड़ के ठिकानेदारों को साथ ले कर ही दिल्ली पर हमला किया जाए किन्तु उसके साथियों का कहना था कि तुरंत दिल्ली जाया जाए। आसोप के ठिकानेदार ठाकुर श्योनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह, आलनियावास के ठाकुर अजीत सिंह, बांजवास के ठाकुर जोध सिंह, सीनाली के ठाकुर चांद सिंह, सलूंबर के प्रतिनिधि के रूप में सुंगडा के ठाकुर सुखत सिंह तथा आऊवा के प्रतिनिधि ठाकुर पुहार सिंह के नेतृत्व में इन ठिकानों की सेना दिल्ली की ओर कूच कर गई। अंग्रेज सेना की जोधपुर लीजियन, एरिनपुरा और डीसा के विद्रोही पुरबिया सैनिक भी इन से आ मिले। जब यह लोग सिंघाना पहुंचे तब तक दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था। हरियाणा के उपरोक्त राज्यों की सेना के साथ ये सेनाएं भी मिल गईं। अंग्रेजों से लड़ने का फैसला हुआ और इन संयुक्त सेनाओं ने रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया किंतु रेवाड़ी को उपयुक्त स्थान न मानकर यह लोग वापस नारनौल आ गए क्योंकि नारनौल अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह थी जिसमें पहाड़ी पर एक किला था। चूंकि झज्जर सबसे बड़ी रियासत था अतः उसकी सेना सबसे बड़ी थी और युद्ध का नेतृत्व झज्जर का सेनापति समद खान ही कर रहा था। इस युद्ध में ठाकुर दलेल सिंह के नेतृत्व में कांटी से भी एक रिसाला शामिल हुआ था। क्योंकि कांटी भी झज्जर का ही भाग था अतः संभवत यह रिसाला झज्जर की सेवा में ही रहा होगा। रेवाड़ी के दल का नेतृत्व राव रामलाल तथा किशन गोपाल के हाथ में था। दोपहर के समय पहले झड़प नसीबपुर में हुई तथा बाद की लड़ाई नारनौल में हुई। आज की पुरानी कचहरी की छतों पर मोर्चे लगा कर पुरबिये अपनी बंदूकों के साथ बड़ी बहादुरी से लड़े। शाम होते होते अंग्रेजों की विजय हुई तथा क्रांतिकारी सेना तितर बितर हो गई। अंग्रेजी सेना के घुड़सवारों ने तीन मील तक पुरबिया 'पंडी' सैनिकों को दौड़ा-दौड़ा कर काट डाला। क्रांतिकारी सेना के लगभग 500 तथा अंग्रेजों के 80 सैनिक काम आए जिनमें अंग्रेज सेनापति जेरार्ड भी था। पूरा नारनौल शहर खाली हो गया गलियां लाशों से पट गईं। इसके बाद विद्रोहियों को ढूंढ ढूंढ कर पकड़ा गया तथा 33 लोगों को फांसी दे दी गई। मरने वालों और फांसी पाने वालों में स्वाभाविक रूप से मुसलमान अधिक थे। झज्जर और भट्टू का क्षेत्र अंग्रेजों की मदद करने वाले जींद, पटियाला तथा नाभा के बीच तीन भागों में बांट दिया गया। ऊपर का इलाका जींद को, दादरी, कानोड़ और नारनौल के क्षेत्र पटियाला तथा कांटी तथा बावल के परगने नाभा को मिले।

इस युद्ध के जिन योद्धाओं और बलिदानियों का नाम भुला दिया गया शहीदी दिवस पर उन्हें भी श्रद्धांजलि।


संदर्भ - 

के सी यादव -the revolt of 1857 in Haryana 

NA Chick - Annals of the Indian rebellion

खड़गावत Rajasthan's role in the struggle of 1857 


राकेश चौहान 

#RSC