poems

Thursday, 23 March 2023

राम!

 अब से तेरह होली पहले मेरे गांव की होली पर मैंने एक ब्लॉग पोस्ट लिखा था आप इस लिंक पर जाकर वह पढ़ सकते हैं। http://navparivartan.blogspot.com/2010/03/holi-tradition-and-fun.html?m=0

इस होली पर भी सदा की भांति गांव की अन्य दो टोलियां, धमाल गाती, हमारी तरफ के छोर पर पहुंच रही हैं और हमारी टोली उनकी अगुवाई को आगे बढ़ रही है। हवा में उड़ता अबीर - गुलाल! सबके चेहरे, बाल, पैर, वस्त्र रंगों में खिले! लाल, गुलाबी, हरा, नीला, संतरी, केसरिया, पीला.... गुलाल कितने रंगों में आने लगा है! ढप की थाप पर धमाल गाते रंग- रंगीले चेहरे! आंखे बंद, भाव विभोर! अदभुत! गीत गाती टोलियां आपस में समा गईं, हवा में और अबीर उड़ा, सब गले मिले! मिलन की बेला में राम-भरत मिलन से बड़ा भारतीय संस्कृति में क्या हो सकता है भला! तीनों टोलियां बारी - बारी से गा रहीं हैं -
'उठ मिल ले भरत भैया हरि आए, उठ मिल ले।'
प्रसंग वनवास की समाप्ति के बाद राम के अयोध्या लौटने का है और शत्रुघ्न भरत को राम के आगमन की सूचना दे रहे हैं। गीत के बोल पर प्रकाश डालिए शत्रुघ्न कह रहे हैं कि भरत उठो भगवान आए हैं। वे भरत को भैया पुकारते हैं किंतु राम को हरि कहते हैं। ये सोच कर रोमांच हो उठता है कि जनमानस में राम जितने महान हैं उतने ही सुलभ! कोई मिला तो 'रामराम', कोई थका तो 'राम निकल गया', कोई दुष्ट है तो 'उसका तो राम मर गया', अच्छा-बुरा हो तो 'राम देख रहा है ' कोई मर गया तो 'राम नाम सत्य!' बर्बर इस्लामी हमलों के बीच अगर देश की आत्मा को कोई बचा पाया तो वे थे राम। जिस दौर में मंदिर तोड़े जा रहे थे, मूर्तियां खंडित की जा रही थीं उस दौर में तुलसीदास जी ने राम के गिर्द राम चरित मानस रची। उन्होंने भांप लिया कि अंधेरे से यदि सनातन धर्म को कोई उबार सकता है तो वे राम ही हैं। कदाचित जनमानस में राम के प्रति अनुराग को पहचान कर अपने ग्रंथ का नाम रामचरित 'मानस' रखा और 'जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' कह कर उन्होंने इसे और स्पष्ट कर दिया।  संभवतया कुमार विश्वास का 'अपने अपने राम' कार्यक्रम भी इसी भावना से प्रेरित है। बहुत से विद्वान कुमार विश्वास को कवि के स्थान पर सिर्फ एक मंच संचालक मानते हैं लेकिन उनका यह कार्यक्रम 'अपने-अपने राम' सचमुच अद्भुत है। कुमार अपने श्रोताओं के साथ राम में समाते चले जाते हैं और सारा वातावरण राममय हो जाता है। उधर स्वामी प्रसाद मौर्य के राम ही नहीं बल्कि तुलसीदास भी अपने हैं। वे चाहते हैं कि सारा साहित्य मिटा कर उनके हिसाब से लिख दिया जाए। स्वामी प्रसाद के चार चेले सवा सौ रुपए की रामचरित मानस की प्रतियां जला कर खुश हो रहे हैं और वहीं कुछ दूरी पर सड़कों के किनारे खड़े लाखों लोग नेपाल से अयोध्या जाती उन भाग्यशाली शिलाओं को निहार रहे हैं जो राम बनेंगी। इधर मेरे गांव में धमाल की टोलियां भावविभोर होकर रामगुण गा रही हैं!  राम का नाम जितना सहज-सुलभ है राम बनना उतना ही कठिन कि पत्थर से अहिल्या बनने में तो एक युग लगा होगा किंतु पत्थर से राम बनने के लिए साढ़े छह करोड़ साल इंतज़ार करना पड़ता है। #RSC
राकेश चौहान

Sunday, 19 February 2023

बोलो प्यार न होगा कैसे

 जीवन पथ पर चलते - चलते, 
मिल जाएं राही इक जैसे,
बोलो प्यार न होगा कैसे।
इस के मन की चंचल बातें,
आएं जब उसके होठों पर,
दोनों का दिल धक-धक धक-धक,
एक ताल में धड़के ऐसे,
बोलो प्यार ना होगा कैसे।
तुम छू लो जब मेरे मन के,
सभी अनछुए कोने कोने,
छूना चाहूं किसी बात ,
पांव तुम्हारे बढ़ कर ऐसे,
बोलो प्यार न होगा कैसे।
सदियों पहले बिछड़ा कोई,
साथी आ कर गले मिला हो,
मन के सूने आंगन में कोई,
सुंदर फूल खिला हो जैसे,
बोलो प्यार न होगा कैसे।
लो कह  दूं मैं प्रेम है तुमसे,
ज्यों मां को अपने बालक से,
मछली को ज्यों सागर से और,
गाय को जैसे बछड़े से,
बोलो प्यार ना होगा कैसे।
बोलो प्यार ना होगा कैसे।।

Thursday, 16 February 2023

एवोल्यूशन/Evolution

 कुछ दिन पूर्व एक जूलोजिस्ट मित्र ने बताया कि पक्षी मनुष्य से अधिक evolve हो चुका और यदि नर पक्षी का अंडकोष निकाल दिया जाए तो वो अंडे भी देने लगेगा। इतना बड़ा  evolution मेरे लिए एक ख़बर ही थी। अब तक तो मैं पक्षियों के  उड़ सकने की योग्यता ही से ईर्ष्या करता ही आया हूं। Evolve होते हुए मनुष्य ने उड़ने के लिए विमान बना लिए पर उससे पहले कितने लोग हाथों में पंख बांधकर ऊंचाइयों से कूद कर मर गए। Evolve होने की ज़िद ने ही इंसान को आज के मुकाम पर पहुंचाया है। इवोल्यूशन सतत एवं सनातन प्रक्रिया है। इसी कड़ी में सनातन धर्म को 'इवोल्यूशन धर्म' कहने का लाभ उठा रहा हूं। इवॉल्व होने की सुंदरता ही पत्थर में ईश्वर को तलाशने वाले मनुष्य को आध्यात्म की ओर खींचती है और वह सगुण और निर्गुण की व्याख्या करता है, मीमांसाएं लिखता है, द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, स्याद आदि दर्शनों की स्थापना करता है। इवोल्यूशन धर्म की यह सनातन सुंदरता अति आकर्षक है। ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं यह मैं ठीक- ठीक नहीं कह सकता और हर व्यवहार को कुछ नाम देने वाले मुझे 'अग्नोस्टिक' कह सकते हैं किंतु मैं वह भी नहीं हूं और इतना स्पेस मुझे इवोल्यूशन धर्म देता है। किंतु मैं ऐसे अनेक लोगों से मिल चुका हूं जो ईश्वर से साक्षात्कार का दावा करते हैं, ऐसे जो ईश्वर से बातचीत करते हैं और ऐसे जिन्हें ईश्वर संदेश देता है तथा ऐसे भी जिन्हें ईश्वर कदम-कदम पर राह दिखाता है। और यह लोग लगभग हर संप्रदाय से थे। यानि ईश्वर से साक्षात्कार किसी मजहब का गुलाम नहीं है। ईश्वर में आस्था का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह आपको मानसिक रूप से मजबूती प्रदान करता है और आप विश्वास करने लगते हैं कि कोई शक्ति आपकी मदद कर रही है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक evolution है जो कदाचित स्वयं में ईश्वर को खोजने की प्रक्रिया का प्रारम्भ है। इस प्रक्रिया के चरम को इवोल्यूशन धर्म 'अहम् ब्रह्मास्मि' कहने की अनुमति प्रदान करता है। अब्राह्मिक संप्रदायों में इवोल्यूशन की यह प्रक्रिया अनुपस्थित है वे अपने faith को थोपना चाहते हैं। वे मनुष्य की पत्थर में ईश्वर तलाशने से 'अहम् ब्रह्मास्मि' का दावा करने की evolve होने की राह के बीच में कहीं खड़े होकर उसका अपहरण कर लेते हैं, उसके एवोल्यूशन को बाधित करते हैं। कालांतर में ईसाई और इस्लामिक विचारधाराओं ने विश्व की अनेक एवोल्यूशन संस्कृतियों को निगला है। इन विचारधाराओं में आदम और हव्वा के पाप का प्रायश्चित मनुष्य को करना है और उनके स्वयं के पापों का निपटारा आखिरत के वक्त होगा। आखिरत कब होगी यह पता नहीं। यहां तक कि एवोल्यूशन के रूप में आया इस्लाम भी 'फरदर एवोल्यूशन' का मार्ग बंद कर देता है। लेकिन मनुष्य को तो इवॉल्व होना है। भारत के आदिवासियों को ईसाई बनाने वाला अंग्रेज इवॉल्व होकर हिंदू हो जाता है। किंतु एवोल्यूशन सरल भी तो नहीं! भारत में 50%  और अफ्रीका में 80% ईसाई धर्मांतरण करने वाला मिशनरी बाइबल के खोखलेपन को जानते बूझते इवॉल्व होने से इंकार कर देता है, वहीं उसका साथी इवॉल्व होता है और धर्मांतरण का कार्य और ईसाइयत दोनों को छोड़ कर 'फेयरवेल टू गॉड' जैसी कालजयी पुस्तक लिखता है। बाइबल की अटपटी बातों को गले से उतारने के लिए ईसाइयत के ठेकेदारों ने अपॉलिजेटिक्स नाम की एक नई विधा का आविष्कार किया लेकिन इसी अपॉलिजेटिक्स को पढ़ने के लिए अमरीका गई, वस्त्र भी जीसस से पूछ कर पहनने वाली, एस्थर नाम की एक ईसाई युवती  ईसाइयत वहीं छोड़कर इवॉल्व हो जाती है। यूट्यूब पर उसके अनेकों इंटरव्यू हैं। अरब की मस्जिदों में इमामत करने वाला शख्स इवॉल्व होकर 'सचवाला' के नाम से इस्लाम की चूलें हिला रहा है। अनेकों आकलनों के अनुसार एक तिहाई यूरोप क्रिस्टियानिटी छोड़ चुका और यदि 'सर तन से जुदा' वाला डर समाप्त हो जाए तो आधे मुसलमान इस्लाम छोड़ देंगे। 'गॉस्पेल ट्रुथ' (Gospel truth) मनुष्य के आध्यात्मिक एवोल्यूशन की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है वह जीसस को एक मात्र सत्य और शेष सब बकवास बताता है, सहअस्तित्व को नकारता है। ईसाई और इस्लामिक वैचारिक और राजनीतिक साम्राज्यवाद मनुष्य के evolution का रास्ता रोके खड़े थे, हैं और रहेंगे। ईसाइयों ने यूरोप, अफ्रीका से लेकर गोवा तक इवोल्यूशनिस्टों पर बर्बर अत्याचार किए हैं। धरती सूर्य के गिर्द चक्कर लगा रही है, इस प्रकार की खोज करने वालों को बाइबल विरुद्ध बातें कहने के अपराध में यातना से लेकर मृत्युदंड तक दिए गए, पुस्तकालयों को जलाया गया, विद्वानों को मार डाला गया। बाद में यही काम इस्लामियों ने किया। इनके अनुयाई जरा सा सवाल करने पर उत्तेजित हो जाते हैं, नाराज होते हैं। सवाल नहीं पूछना बस faith करना है। परंतु इवोल्यूशन की बुनियाद faith नहीं है अपितु सवाल है। पृथ्वी के सभी इवॉल्विंग धर्मों की सभ्यताओं में आश्चर्यजनक वैज्ञानिक और गणितीय गणनाओं के प्रमाण मिलते हैं और उनके खंडहर मात्र के आगे भी अब्राह्मिक विचारधारा कहीं नहीं ठहरती। अब्राहमइकों की किताब में लिखे पर भी आप प्रश्न नहीं कर सकते जबकि इवोल्यूशनिस्ट धर्मों में  ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न उठाने की आजादी है। वेद, उपनिषद, गीता, पुराण सभी तो प्रश्नों पर आधारित हैं। तभी तो इवॉल्यूशन स्वाभाविक, सतत, सनातन प्रक्रिया है। मैं अक्सर उत्पात मचाते बंदरों को 'ताड़ते' समय कहता हूं अरे बंदरों इंसान बन जाओ देखो हम बन गए। चलिए फैसला करें कि बंदर बने रहना है या इंसान बनना है।

Friday, 6 January 2023

गुरु पर्व

 कैसी विडंबना है कि हजारों सालों की गुरु शिष्य परंपरा में से शिष्य के अपभ्रंश 'सिक्ख' शब्द को लेकर एक अलग संप्रदाय बन जाए जबकि भक्ति आंदोलन के उस दौर में अनेक पंथों के संत अपने शिष्यों को निर्गुण और सगुन का ज्ञान दे रहे थे। गुरु नानक देव जी से प्रारंभ हुए नानक पंथ में ही गुरु गोविंद सिंह ने खालसे बनाए पर ये भी कहा - 

"तुम खालसे हो हिंदू धरम।

पंथ नानक को छत्री करम।।"

अर्थात खालसा न तो हिंदू धर्म से अलग और न नानक पंथ से।

 गुरु तो गुरु पर शिष्यों का समर्पण ऐसा कि पंजाब के सनातनी हिन्दू समाज ने गुरु के चरणों में अपने बड़े पुत्र अर्पित किए जो अगले तीन सौ सालों तक अनवरत चलता रहा। किसी पिता के लिए अपने बड़े पुत्र से प्रिय कुछ नहीं हो सकता। गुरु दक्षिणा में भी इससे बड़ा हो क्या सकता था! इसी दक्षिणा से गुरुजी ने खालसे बनाए, पर कभी अलग संप्रदाय तो नहीं बनाया।  धर्म की जब भी बात आई तो स्वयं को हिंदू ही बताया, खालसा को तो पंथ ही कहा।

सकल जगत महीं खालसा पंथ गाजै।

जगै धर्म हिन्दू तुरक दुंद भाजै।।

बड़ा पुत्र केश रखकर खालसे में शामिल हो गया तो छोटे पुत्र बिना केश या सहजधारी ही रहे। पर दोनों शिष्य (सिक्ख) भी रहे, नानक पंथी भी और हिंदू भी।

स्वधर्म हेतु पूरे परिवार का बलिदान करने वाले गुरु गोविंद सिंह के आने वाले शिष्यों (सिखों पढ़ें) ने अंग्रेजों का ऐसा पाठ पढ़ा कि स्वयं को हिंदू धर्म से अलग और मसीही मजहबों के नजदीक बताने लगे। सहजधारियों को शिष्य (सिक्ख) मानने से इनकार कर दिया। फिर आया अलगाव का ऐसा दौर कि पंजाब में निर्दोषों को बसों से उतार कर गोलियों से भूना गया। देश की राजधानी की सड़कों ने बेकुसुरों को जिंदा जलाने के मंज़र देखे। दैवकृपा से स्थिति सुधरी पर विदेशों में षड्यंत्र चलते रहे। लाल किले पर राष्ट्रध्वज का अपमान हुआ और राष्ट्रवादी पार्टी की सरकार धृतराष्ट्रवादी निकली। भगवे के नाम पर इसी सरकार की पीठ पर बरसों सवारी करने वाली पार्टी की सांसद ने संसद में तिलक और जनेऊ बचाने का एहसान जताया। पर यह तिलक और जनेऊ थे किसके? क्या ये गुरु के शिष्यों (सिक्खों) के स्वयं के नहीं थे? बल्कि पंजाब में हिंदू धर्म (सिख पंथ इसमें ही शामिल है) को बचाने के लिए शेष भारत के हिंदुओं ने योगदान दिया। गुरुओं ने मदद के लिए अधिकतर पत्र उत्तर प्रदेश और बिहार में लिखे। छठे गुरु के साथ ग्वालियर में कैद रहे 52 राजाओं ने उन्हें सेना तैयार करके दी। पहला सिख राज्य खड़ा करने वाला बंदा सिंह बहादुर दिया। भाई सती दास, भाई मती दास, भाई दयाला, पंडित कृपा दत्त दिए। गुरु तेग बहादुर का मस्तक बचाने के लिए अपना शीश देने वाला कुशल सिंह दिया। पवित्र सरोवर और दरबार साहब की पवित्रता बहाल करने वाले मराठे दिए। पहले पांच खालसा 'पंज प्यारों' में से चार पंजाब प्रांत से इतर स्थानों के ही नहीं थे क्या? अरे हरसिमरत, ओए योगराज देख किसने किसकी रक्षा की। कभी राजा जय सिंह ने और कभी राम सिंह ने कभी गुरु की आन बचाई और कभी जान बचाई। क्योंकि गुरु हिंदू थे और हिंदू गुरु के थे। वैसे भी ये तिलक जनेऊ बचाने का 'एहसान' पंजाब तक ही सीमित है। उसी औरंगज़ेब के दौर में, उसी दिल्ली से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर नारनौल में जब सतनामी अपना तिलक और जनेऊ बचाने के लिए लड़ रहे थे तो उनके साथ एक भी "शिष्य" नहीं था। वो अलग बात है कि सतनामियों को इतिहास में स्थान नहीं मिला। हजारों सतनामी मारे गए, शेष वर्तमान छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि तक पलायन कर गए। क्षेत्र में एक भी सतनामी न बचा। ऐसा पलायन तो कश्मीर से भी नहीं हुआ। राजपुताने में, मध्य भारत में, दक्कन में, असम में जहां भी हिंदू तिलक जनेऊ बचाने को लड़ा उसके साथ एक भी 'शिष्य' न था। ये सब लिखने का उद्देश्य किसी बलिदानी के बलिदान को कम आंकना नहीं है अपितु इस और ध्यानाकर्षण करवाना है कि अलग- अलग क्षेत्रों में हिंदू चाहे किसी पहचान के साथ लड़ा हो पर लड़ा अपने धर्म के लिए ही। किसी ने किसी 'दूसरे' की रक्षा नहीं की बल्कि स्वयं की रक्षा की। और पंजाब का सहजधारी तो आज भी गुरुओं का अहसान सम्मान से सर पे रख रहा है। जबकि तिलक जनेऊ के तथाकथित 'रखवालों' ने इन्हे शिष्यी (सिक्खी) से बाहर करवा दिया। कानून बनवा कर उन्हें गुरुद्वारों में वोट डालने से रुकवा दिया। 

गुरु गोविंद सिंह जी ने भी कभी अलग मजहब नहीं बनाया उन्होंने पंजाब को हर जगह 'मद्रदेश' लिखा, सागर को 'सिंधु' लिखा। स्वयं को बार-बार 'देवी का दास' लिखा।  उन्होंने 'हर' लिखा 'हरि' लिखा, 'रामावतार' 'कृष्णावतार' लिखा, देवी की स्तुति लिखी। खालसा बनाने से पहले देवी की तपस्या की। स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि पुराणों, रामायण, महाभारत और वेदों तक थी। राजस्थान के राजपूतों से शस्त्र तो कश्मीर के ब्राह्मणों से शास्त्र विद्या ली। उन जैसा कौन हो सकता था! यही होता है कोई महापुरूष समाज में चेतना लाने को अपना जीवन न्यौछावर कर देता है पर उस के अनुयाई अलग मजहब बना के बैठ जाते हैं। कितने मज़हब, कितने संप्रदाय, कितने फिरके! रे मानुष विचित्र!

गुरु गोविंद सिंह जी के जन्मदिवस का उपलक्ष्य है। प्रभात फेरियां भी निकल रहीं हैं। अवसर है कि फेरियों में यह भी प्रसारित किया जाए कि सिख पंथ भी एक सनातनी परंपरा है न कि अलग मजहब। सभी को गुरुजी के प्रकाशोत्सव पर शुभकामनाएं। #RSC

Wednesday, 28 December 2022

वीर बालदिवस

 जिस प्रकार सिखों ने गुरुओं के इतिहास और बलिदानों को स्मृति में रखा है उनकी इस के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए जबकि बाकी सनातन समाज ने इस स्तर की कोशिश नहीं की। इसे सिखों का ही प्रयास कहा जाना चाहिए कि आज गुरु गोविंद सिंह के परिवार के बलिदान के विषय में सारा भारत जानता है, और देश का प्रधानमंत्री उन पर 25 मिनट का भाषण देता है। वरना ऐसे कितने ही बलिदान भूल जाने दिए गए। यदि अपने शिष्यों और अपने पुत्रों में कोई फर्क ना मानना गुरुधर्म है तो "जो बोले सो निहाल" शिष्य के समर्पण की पराकाष्ठा है। यदि दो नन्हे बालक आतताइयों के सामने समर्पण करने से इंकार कर देते हैं तो सोचिए उस मां के बारे में जिसने उन्हें इतना मजबूत बनाया, वो दादी जिसने अपने पति और अपनी संतानो का बलिदान कर दिया। निसंदेह इस राष्ट्र की आत्मा की सही अर्थों में किसी ने रक्षा की है तो महिलाओं ने। उन मांओं ने, जिन्होंने अपने नौनिहालों को अपने दूध की लाज का वास्ता देकर शत्रु से लड़ने भेज दिया। उन वीरांगनाओं ने जो जलती ज्वाला में सिर्फ इसलिए प्रवेश कर गई कि उनकी राख समाज के मस्तक पर सजी रहकर उसे आत्मबल प्रदान करती रहे। उन पत्नियों ने जिन्होंने कभी आरती के थाल सजाकर अपने पतियों को विदा किया, तो कभी अपने मस्तक थाल में सजाकर प्रस्तुत कर दिए, तो कभी युद्ध से मुंह मोड़ कर आए पतियों के लिए घर के दरवाजे बंद कर दिए। 

पंजाब क्षेत्र में नित नए इस्लामी हमलों से लड़ते अधिकतर क्षत्रिय बलिदान हो गए और बचे-खुचे अन्य व्यवसायों में लग गए। जिस राजस्थान की माटी का दीपक शिवाजी के नाम से दक्कन में प्रकाश फैला रहा था और जो कालांतर में मराठों की मशाल बन गया, उसी राजस्थान के वीरों ने गुरु की सेवा में आकर पंजाब की धरती पर क्षत्रियत्व जगाया। छठे गुरु को शस्त्र विद्या सिखाने का क्रम मारवाड़ के राठौड़ राव जैता और राव सिगड़ा से प्रारंभ होकर गुरु गोविंद सिंह को बज्जर सिंह राठौड़ से होता हुआ आलम सिंह चौहान द्वारा साहिबजादों तक पहुंचा। गुरु गोविंद सिंह ने शस्त्र के महत्व को गहराई से समझा और इन योद्धाओं की मदद से पंजाब में क्षत्रियत्व पुनर्जीवित किया। फिर समाज का महत्व बताते हुए कहा "तुम खालसे हो, हिंदू धर्म। पंथ नानक को, छत्री करम।।" सामान्य लोगों को एक मजबूत सेना में खड़े करने का कारनामा करने के बाद ही तो उन्होंने कहा था "चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊं तां गोविंद सिंह नाम कहाऊँ।"

 कहानी इतनी लंबी करने का कारण यही है कि महापुरुष पैदा करने में पूरे समाज का योगदान होता है और जो समाज अपने महापुरुषों को विस्मृत नहीं होने देता वही फिर से महापुरुष पैदा करता है। इस दिशा में सिख सबको राह दिखा रहे हैं पर देखते हैं शेष सनातन समाज कब समझता है। #RSC 

Saturday, 17 December 2022

अहीर रेजिमेंट

 

अंग्रेजों के भारत पर शासन करने के अनेक हथियारों में से एक महत्वपूर्ण हथियार था जाति आधारित रेजिमेंट। इन सेनाओं को उन्होंने बड़ी चतुराई से भारत में इस्तेमाल किया। पहले भीमा कोरेगांव में पेशवा के खिलाफ महार लगाये, इधर  बीसवीं सदी में जलियांवाला नरसंहार के लिए गोरखा रेजीमेंट लगाई तो उधर 1857 के जेहाद को कुचलने के लिए सिक्ख सेनाओं का इस्तेमाल किया।  1857 का 'जिहाद' इसलिए क्योंकि बिहार और बंगाल के पुरबिया सैनिकों के अलावा इस विद्रोह में सब इस्लामी ही था। पेशवा पहले ही कंगाल हो चुके थे और झांसी की छोटी सी रियासत का कोई खास वजूद न था।  ग्वालियर, बड़ौदा, इंदौर जैसे मराठों के बड़े रजवाड़े और पूरा राजपूताना लगभग तटस्थ रहा, जब कि सिक्खों ने तो पूरा पूरा अंग्रेजों का साथ दिया। और ऐसा होता भी क्यों ना! अगर अंग्रेज भागता तो दिल्ली पर राज किसका आना था! मुसलमानों का ही न? मुस्लिम अति को ना तो मराठे भूले थे और ना ही राजपूत। 1857 के रूप में मराठों को पानीपत के मैदानों से अपनी महिलाओं का क्रंदन सुनाई दे रहा था, तो राजपूताना जौहर की ज्वाला की तपत फिर से महसूस करने लगा था। जाटों ने भी गोकुला के पूजनीय शरीर के टुकड़े भुलाए न थे। सिखों को भी तो अपने गुरुओं पर हुए अत्याचार अब तक याद थे, बल्कि  उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर अंग्रेजों को दिल्ली जीत कर दी। नारनौल के पास नसीबपुर के मैदान में हुई लड़ाई में नाम मात्र के अंग्रेज सैनिकों से मिल कर लड़ने वाली सिक्ख सेनाओं ने झज्जर के नवाब की सेनाओं को शिकस्त दी थी। विडंबना देखिए कि जाति आधारित सेना की सफल अंग्रेजी प्रयोगशाला, उसी नसीबपुर के मैदान से  एक और जाति आधारित रेजीमेंट की मांग के आंदोलन का प्रारंभ हुआ है और उसी दिल्ली में स्थित संसद में, उन ऊंचाईयों से चंद फर्लांग दूर जिन से सिख और गोरखे तोपों से नगर की दीवारों पर कहर ढा रहे थे, एक सांसद इस मांग का पुरजोर समर्थन कर रहा है।

वैसे भी जब सिख, राजपूत, महार, डोगरा, जाट आदि रेजीमेंट हैं तो अहीर रेजिमेंट न बनाने की अंग्रेजों की गलती को क्यों ना दुरुस्त कर ही लिया जाए। साथ ही गूजर रेजीमेंट, बनिया रेजीमेंट, खाती रेजीमेंट, कुर्मी रेजिमेंट, नायर रेजीमेंट और उस से भी पहले ब्राह्मण रेजीमेंट क्यों न बनाई जाए, आखिर परमवीर चक्र विजेताओं में ब्राह्मणों की संख्या तीसरे नंबर पर है।

यही होता है जब आप स्वयं को अपने गौरवशाली अतीत से अलग कर लेते हैं। धर्म को अफीम कहने वाला वामपंथ अपनी भांग आपको पिला कर सफलतापूर्वक आप से आपके महापुरुषों को पराया बता कर कचरे में फिंकवा देता है। फिर शुरू होता है महापुरुष तलाशने का दौर, तो कभी आप उस कचरे की तरफ दौड़ते हैं और कभी वामपंथ की और। वैसे भी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शारीरिक, सुरक्षा और अपनेपन की आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद मनुष्य को सम्मान की आवश्यकता महसूस होती है। और हां अहीर रेजिमेंट की मांग को मेरा समर्थन है और भविष्य में उठने वाली अन्य जातियों की रेजिमेंटों को मेरा अग्रिम समर्थन साथ ही अंग्रेज द्वारा भारत में छोड़े गए अजर अमर प्लास्टिक के कीड़े के सफल इंप्लांट के लिए फिरंगी को सात सलाम। #RSC

Thursday, 6 October 2022

धर्म पर वामपंथी संकट

 'दादा जी का परसों श्राद्ध है कृपया पधार कर हमारे पूरे परिवार को अनुग्रहित करें'  मैंने उनसे कहा। वह बोले, 'मैं किसी के यहां जीमने नहीं जाता' 'तो फिर मैं किसी जाट या किसी ठाकर को बुला लूं!' यह बात सुनकर वह थोड़े विचलित हुए, चेहरे के भाव बदले और हल्का सा मुस्कुरा कर बोले 'ठीक है, मैं आऊंगा'। मैं सोचने लगा कि वामपंथ की जड़ें कितनी गहरी पैठ चुकी हैं जाने अनजाने में हर कोई इनके हाथ का औजार बन गया। ब्राह्मण, ब्राह्मण होने पर शर्मिंदा है अपना शास्त्रीय कार्य करने पर हिचकता है, लज्जित है और दूसरे उसे समाप्त कर देना चाहते हैं। स्कूलों में मास्टरों के गैंग एससी/एसटी एक्ट के बुलडोजर पर सवार, 'रै बामणिया- रै  बामणिया खा ले हराम का' और ब्राह्मण अध्यापक बेचारा अपमान का घूंट पीकर मुस्कुरा देता है। 'गया कनागत आया नोरता, बामन रह गया खाज खोरता! खी खी खी' और ब्राह्मण इग्नोर करके निकल लेता है। जबकि हराम का खाने का ताना देने वाले इन गैंगस्टरों ने इस ब्राह्मण को एक टॉफी भी नहीं खिलाई कभी।

 500 साल उन्होंने और 200 साल इन्होंने जोर लगा लिया लेकिन सनातन धर्म को खत्म ना कर पाए। वामपंथी क्योंकि पढ़े-लिखे निकले उन्होंने रिसर्च किया और पाया कि ब्राह्मण खत्म तो सनातन खत्म। आखिर हजारों सालों तक ज्ञान, गणित, खगोल, योग, आयुर्वेद आदि का खजाना, ब्राह्मणों ने ही तो बचा के रखा। ब्राह्मण ही तो था जो अपने जजमान के लिए अपने सजातीय से भी भिड़ बैठता था। 'नाई-बामण-कूकरो देख सकै ना दूसरो' कहने वाले समाज को भी ब्राह्मण का समाज के प्रति समर्पण नजर ना आया और वह भी वामपंथियों के हाथ का हथियार बन बैठा। समाज को छोड़ो खुद ब्राह्मण भी यह बात न समझ पाया! वह कुंठित, पीड़ित और खिन्न है। आज वो वशिष्ठ, अत्री, गौतम, विश्वामित्र नहीं, परशुराम बनना चाहता है। सहस्त्राब्दियों की जांची परखी ज्ञान की श्रेष्ठता अब उसे तुच्छ लगने लगी है। उसका झुकाव धन और बल की तरफ है। परशुराम मंदिर, परशुराम चौक, परशुराम अवार्ड, परशुराम संस्था.. पूरा सनातन समाज उसे दुष्ट लग रहा है जिसका उपचार उसकी नजर में फरसा है। वह राम को भूल रावण में नायक खोज रहा है, उसके कुकृत्यों को जस्टिफाई कर रहा है!  सच में सनातनी समाज वामपंथ के दुष्चक्र में फंस चुका। इस्लामिक और ईसाई सांस्कृतिक आक्रमणों का भी इलाज हो जाएगा पर वामपंथ के इस षड्यंत्र का क्या? फिलहाल तो इस से निकलना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। सनातन को बचाना है तो ब्राह्मण और ब्राह्मणत्व को नष्ट होने से रोकना ही होगा और इसके लिए पूरे सनातन समाज को प्रयास करना होगा और हाँ यहां भी ब्राह्मणों को ही आगे बढ़कर राह दिखानी पड़ेगी। शेष फिर कभी #RSC