poems

Saturday, 29 November 2025

सामाजिक न्याय

 'सामाजिक न्याय के पुरोधा वीपी सिंह को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि', वगैरा-वगैरा......। परसों पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुण्यतिथि थी। पूरे दिन पिछड़ा विमर्श के तथाकथित पुरोधाओं की छातियों से इतना दूध टपका कि सोशल मीडिया पर घड़े के घड़े भर गए। किंतु एससी एसटी आरक्षण से लाभान्वित वर्ग अंबेडकर को जिस तरह सर पर उठाए रखता है ऐसा पिछड़ों ने वी पी सिंह के लिए कभी नहीं किया। इसका एक बहुत बड़ा कारण मुझे यह लगता है यह उनके सामंती अत्याचार के नॉरेटिव को कभी सूट नहीं किया, क्योंकि पिछड़े के नाम पर लाभान्वित वर्गों में अधिकतर वही लोग हैं जो अब तक सामंती नॉरेटिव का सिक्का चला कर अपना रोजगार चलाते आ रहे हैं और वीपी सिंह तो सचमुच के राजा थे। यह बात राजनीति के मामले में तो और सटीक लगती है। 1941 में मांडा की छोटी सी रियासत के राजा बने वीपी सिंह ने भारत का राज हाथ में आते ही एक दशक से ठंडे बस्ते में पड़ी मंडल कमीशन की रिपोर्ट को एक झटके में लागू कर दिया। कुछ अजीब सा संयोग था कि वी पी सिंह को याद करने की एक दो पोस्ट का नोटिफिकेशन मुझे दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में लगे एफडीडीआई के स्टाल में मिला। एफडीडीआई यानि 'फुटवियर डिजाइन एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट'। यह संस्था प्रशिक्षित फुटवियर डिजाइनर तैयार करती है। मुझे रमेश भाई की याद आई। रमेश भाई से मेरी मुलाकात प्रतिदिन प्रातः तालाब पर होती है। बाजार में उनकी दुकान है मुझे याद है बचपन में गोविंद टॉकीज में 'आजाद शू मेकर्स' के नाम से उनकी विज्ञापन स्लाइड चला करती थी। रमेश जी के पिता जूते के अच्छे कारीगर थे, वे स्वयं भी हैं और उनके दोनों पुत्र भी जूते के व्यवसाय में ही हैं। उनके पूर्वजों ने महाराजा पटियाला के नारनौल आगमन पर उन्हें एक तोले तथा 10 तोले के जूतियों के दो जोड़े उपहार स्वरूप दिए थे। एक तोला यानी 12 ग्राम! एक तोले की जूतियों की खासियत थी कि दोनों जूतियां मुट्ठी में आ जाती थी और दस तोले वाली जूती के अंदर कुछ छल्ले लगे थे, ऐसा रमेश भाई बताते हैं कि वह उतारने के बाद 5- 6 कदम दूर जाकर रुकती थीं। महाराजा पटियाला ने उन मोचियों को मुंह मांगा इनाम दिया तथा एक बड़ी इमारत, जिसे आज भी महल के नाम से जाना जाता है, उन्हें उपहार स्वरूप दी। रमेश भाई ने बताया कि पहले इस तरह की छल्ले वाली जूतियां और चर्र - मर्र की जूती फैशन में थी जो चलते समय चर्र- मर्र आवाज करती थीं।

इतिहास में कभी भी किसी राष्ट्र अथवा प्रदेश के स्वर्णिम काल का आधार उपजाऊ भूमि अथवा सरकारी नौकरियां नहीं रही, अपितु कलाकार, शिल्पकार, व्यापार आदि रहे हैं। अनेक गुरुकुलों का अध्ययन करने के बाद राजपाल जी ने लिखा है कि गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले 80% छात्र इन्हीं श्रेणियों के थे जिन्हें आज पिछड़ा कहा जा रहा है। पहली सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी तक का समय भारत के इतिहास में व्यापार का युग माना जाता है। इस काल के अधिकतर दान के ताम्रपत्र शिल्पियों तथा व्यापारियों से संबंधित हैं। शिल्पी अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान गुरुकुलों में तराशते थे तभी तो भारत में बना रेशम और मलमल सोने के बराबर तुल कर पश्चिम के बाजारों में बिकता था। ब्राह्मण वैद्य, तो कुम्हार और नाई चिकित्सक और सर्जन होते थे। बढ़ई आर्किटेक्ट हुआ करते। कांटी गांव में मेरे पूर्वज ठाकुर साहब रामबख्श सिंह जी द्वारा बनाई गई धोली कोटडी का नक्शा एक बढ़ई द्वारा तैयार किया था जो कि वास्तु कला का अद्भुत नमूना है! गोखुर आकार के प्लाट पर बनी इस इमारत की सबसे बड़ी खूबी यह है कि अंदर का कोई भी भाग टेढ़ा नहीं है तथा सभी कक्ष आयताकार या वर्गाकार हैं।मैकाले शिक्षा पद्धति ने गुरुकुल शिक्षा को तहस-नहस कर दिया। शिल्पकार जो अपने पूर्वजों से तथा गुरुकुल में सीखते थे वही अब एफडीडीआई सिखा रहा है। एफडीडीआई के फेकल्टी शर्मा, वर्मा, त्रिपाठी, सक्सेना, यादव इत्यादि हैं। इनमें से कई नाम से पहले डॉक्टर और प्रोफ़ेसर भी लिखते हैं। जूतों का काम कर के न ये मोची बने और न जूते बनाने वाली एडिडास, नाइक, रीबॉक आदि कंपनियां! किंतु अपने पैतृक हुनर से व्यवसाय कर के डेढ़ करोड़ का मकान बनाने वाला मोची ही है। उसके मोहल्ले के कुछ बच्चे आरक्षण से नौकरी पा गए कुछ आठ दस हज़ार की अस्थाई नौकरियां करते हैं। बाकी रीबॉक के सेकंड कॉपी जूते पहन के छोटा मोटा काम करके शाम को दो पैग मार कर सो जाते हैं। एफडीडीआई ने इनके बुजुर्गों से कुछ नहीं सीखा और ना ही यह एफडीडीआई से कुछ सीख रहे। आरक्षण सब को नौकरी नहीं देता, बढ़ई, नाई, कुम्हार, लोहार इत्यादि अपना पैतृक काम छोड़ कर छोटी मोटी नौकरियां तलाशते घूमते हैं। इन के व्यवसायों पर मोहम्मदवादी काबिज़ होते जा रहे हैं। यह है पिछड़ों के मसीहा का सामाजिक न्याय और उनकी समाज को भेंट! 

सादर!

राकेश चौहान 

#RSC 

Wednesday, 26 November 2025

'नहीं है'

 एक रेल यात्रा में एक ने मेरे एक साथी से वही रोंगटे खड़े करने वाली ताली बजा कर कहा 'ला, दे रे!' साथी बोला 'नहीं है!' वो बोला/बोली 'तेरे पास भी नहीं है मेरे पास भी नहीं है, आजा मेरे साथ।' 

देश के अलग अलग स्थानों से कई मित्रों ने नारनौल के शोभापुर निवासी रिटायर्ड आईपीएस आर एस यादव का वायरल इंटरव्यू मेरे पास भेजा है जिस में वे कह रहे हैं कि अभय चौटाला ने उन्हें पुलिस चौकी में लिटा कर 39 जूते (आन मिलो सजना) मारे। मैं हैरान तो इस बात से हुआ कि ये वीडियो कितना वायरल हो गया, पर हरियाणा का वो जंगल राज भी याद आ गया। हालांकि वो बिहार जैसा नहीं था, किंतु था जंगल राज ही! चौटालाओं ने जो चाहा किया। क्या हुक्मरान और क्या कार्यकर्ता सब ने दोनों हाथों से माल समेटा। अफ़सर को अदना सा कार्यकर्ता ही कह देता था, 'यो काम कर दिए, ना तो अपने गूदड़ बांध लिए!' कोई- कोई 'कमाऊ पूत' तो डीएम (डीसी) तक को कह देता कि 'अजय (चौटाला) भाई साहब ने कहा है कि काम कर देगा वरना टखने तोड़ दूंगा।' कहते हैं नौकरशाही घोड़े की तरह है जो तुरन्त अपने सवार को पहचान जाती है। हरियाणा में आज सामान्य कार्यकर्ता तो क्या बीजेपी के पदाधिकारियों तक को अफसर कुछ नहीं समझते। किसी काम के लिए जाते हैं तो ऐसे जैसे बच्चा प्रिंसिपल ऑफ़िस में जा रहा हो। ये फर्क है इस सरकार में और उस में!

 मेरा वार्ड नारनौल का सबसे अधिक डेकोरेटेड वार्ड है। इस एक ही वार्ड में कुल चार पार्षद हैं। तीन- तीन नॉमिनेटेड, सुदर्शन बंसल, पासी वर्मा और संजय वाल्मीकि। चौथे पार्षद महोदय हैं अजय सिंघल जिन्हें हमने बाकायदा वोट के जरिए चुनकर नगर परिषद भेजा है। पांचवीं हैं श्रीमती मंजू बाला जो ग्रीवेंस कमेटी की सदस्य हैं। पहले ग्रीवेंस कमेटी का हिंदी में अर्थ होता था 'कष्ट निवारण समिति' आजकल क्या है मुझे नहीं पता! अनेक कष्टों में एक कष्ट यह है कि पुरानी कचहरी के पास बहुत समय से एक सीवर लीक है जिसका पानी अक्सर दूर तक इकट्ठा हो जाता है। इस मार्ग पर चलते हुए पदयात्रियों को कई परीक्षाओं में से गुजरना पड़ता है जिन में से एक है आते जाते वाहनों से लगने वाले गंदे पानी के छीटों से बचना और दूसरा कीचड़ से बचने के लिए उछल-उछल कर चलना! इसमें तुर्रा यह है कि सीवर की मरम्मत के लिए वहां लगे ट्रांसफार्मर को हटाया जाना है यानी मामला नगर परिषद और बिजली विभाग का है। दोनों सरकारी महकमे हैं लिहाजा दोनों के बीच फाइल - फाइल का खेल पिछले डेढ़ साल से चल रहा है। लगता है ऐसा कोई नेता, मंत्री या अधिकारी नहीं है जो इन दोनों महकमों को इस मामले के निस्तारण के लिए कह सके। 

नगर परिषद की जो हालत आज है वह पहले कभी न थी। पार्षदों की तो औकात है ही क्या ऐसा लगता है कि अधिकारी- कर्मचारी चेयरपर्सन की भी नहीं सुनते और अधिकारियों तथा कर्मचारियों की नहीं सुनते HKRN वाले! भ्रष्टाचार की नई सुरसा का नाम है HKRN जो सब कुछ निगलने को मुंह खोल कर खड़ी है। सभी महकमों में इसके माध्यम से लगे कर्मचारी हैं जो भाजपा के किसी न किसी प्रभावशाली नेता की सिफारिश से लगे हैं। ये भी शेर के पट्ठे अपने को उस नेता से कम नहीं समझते! छोटे-मोटे कर्मचारी की तो बात है क्या, किसी भी विभाग का बड़े से बड़ा अधिकारी भी इनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता। अधिकतर महकमों में माल वाली जगह पर यह कच्चे कर्मचारी बैठे हैं और ऐसा भी सुनते हैं कि ये लोग माल अपने आका नेता तक पहुंचाते हैं। नगर परिषद में तो एक कर्मचारी भ्रष्टाचार के आरोप में जेल तक जा आया और वापस आकर उसी कमाई वाली सीट पर बैठ गया। 

सरकार ने वैसे तो सीएम विंडो, ग्रीवेंस कमेटी, समाधान शिविर जैसे कई प्लेटफार्म बना रखे हैं पर यहां समाधान होता नहीं और कार्यालयों में कोई करता नहीं! रिमाइंडर डाल लो, उच्च अधिकारी के पास मामला ले जाओ होना कुछ नहीं है। हां सरकार ने कुछ महकमों में फीडबैक तंत्र विकसित किया है तो आपके पास फोन आता रहेगा जिसमें एक महिला पूछेगी कि आप कार्यवाही से संतुष्ट हैं या नहीं! ज़ाहिर है आपका काम नहीं हुआ तो आप नहीं ही कहेंगे। 'कुछ होगा - कुछ होगा' की आस में अगले हफ्ते नया फोन आ जाता है। ये फीडबैक किस अंधेरे कुएं में जाता है, पता नहीं! ऐसे में आर एस यादव का इंटरव्यू देखने के बाद वो सरकार याद आ गई। हालांकि इन महोदय के साथ हुए अमानवीय व्यवहार का मैं स्वाभाविक विरोधी हूं। असल में जो इक़बाल सरकार का होना चाहिए वो इस सरकार का नहीं है। अधिकारी ही शासन प्रशासन चला रहे हैं और लोकतंत्र में जो होना चाहिए वो न जनता के पास और सरकार के पास भी 'नहीं है!'

सादर

राकेश चौहान 

#RSC 

Sunday, 23 November 2025

दुर्गादास राठौड़

 डम- डम डम-डम ढोल बाजे, बाजे थाप नगाड़ां की।

आसे घर दुर्गाे ना होतो, सुन्नत होती सारां की।।

आज बात आसकरण के वीर पुत्र दुर्गादास राठौड़ की! दस ही दिन हुए होंगे जब उज्जैन में क्षिप्रा नदी के किनारे उस महापुरुष की छतरी पर मैं कृतज्ञ खड़ा था जिसने औरंगज़ेब से धर्म की रक्षा की, आज उसी की पुण्यतिथि है। जितना भाव विभोर और कृतज्ञ मैं महाकाल के सामने था उतना ही दुर्गादास की छतरी पर था!

मारवाड़ का राजा जसवंत सिंह औरंगजेब को पसंद नहीं करता था। अतः उसने ने उत्तराधिकार संघर्ष में दारा शिकोह और फिर शुजा का साथ दिया था। शिवाजी की शाइस्ता खान पर हमले में मदद की, औरंगजेब के पुत्र को उसके विरुद्ध बगावत को भड़काया। औरंगजेब ने भी कसर नहीं छोड़ी। पहले तो जसवंत सिंह के पुत्र पृथ्वी सिंह को शेर से निहत्था लड़ने के पुरस्कार स्वरूप ज़हर बुझी पोशाक भेंट की जिस से वह बीमार हो कर मर गया, फिर जसवंत सिंह को मारवाड़ से दूर काबुल भेज दिया और मारवाड़ में सारे मंदिर तुड़वाने का हुक्म दे दिया बदले में जसवंत सिंह ने ईरान तक की मस्जिदें तोड़ने का आदेश दे दिया। औरंगजेब को अपना फरमान वापस लेना पड़ा। इसी शह मात में जसवंत सिंह की काबुल में ही मृत्यु हो गई। उस समय जसवंत सिंह की दोनों रानियां गर्भवती थीं। दोनों ने एक एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन उनमें से एक शिशु की मृत्यु हो गई। 

जब दुर्गादास राठौड़ जसवंत सिंह के नवजात पुत्र तथा उसकी रानियों को काबुल से मारवाड़ ले कर आ रहा था तो औरंगज़ेब ने उन्हें नजरबंद कर लिया तथा मारवाड़ पर अधिकार कर लिया। तथा अजीत सिंह का धर्म परिवर्तन करने का दबाव बनाने लगा। 250 सैनिकों की टुकड़ी के साथ एक दिन दुर्गादास, ठाकुर मोकम सिंह बलुंदा और मुकुंद दास खींची चौहान बालक अजीत और उसकी माताओं को ले कर निकल गए। रास्ते में दस-दस की टुकड़ियों में राजपूत पीछा करते सैनिकों से लोहा लेकर बलिदान होते रहे! जिस से दुर्गादास और मुग़ल सेना के बीच अंतर बढ़ता गया। पूरे देश में एक ही सुरक्षित जगह थी मेवाड़। अजीत सिंह वहीं पला और उधर दुर्गादास राठौड़ 30 साल मुगलों से लड़ते रहे।  

"आठ पहर चौंसठ घड़ी, घुड़लै ऊपर वास।

सैल अणी हूँ सेकतो, बाटी दुर्गादास।।"

अर्थात दिन रात घोड़े की पीठ पर बैठा दुर्गादास बाटी भी भाले की नोक पर सेक कर खाता।

औरंगजेब से बगावत करके आए उसके पुत्र अकबर के पुत्र और पुत्री को दुर्गादास ने अपने पास रखा और उन्हें मौलवी नियुक्त करके इस्लामी शिक्षा प्रदान की। बाद में बड़े होने पर उन्हें उसने सकुशल औरंगजेब के पास पहुंचा दिया। जब औरंगजेब ने अपनी पोती से पूछा कि दुर्गादास अब कैसा दिखता है तो उसने कहा कि अब का तो पता नहीं मैंने उन्हें बचपन में ही देखा था । अब वह जब भी आते थे तो हमारे और उनके बीच में पर्दा रहता था। कहते हैं कि दुश्मन की बहू बेटियों को माल ए गनीमत समझने वाला भावुक हो गया था! क्योंकि वह तो अजीत सिंह को भी इस्लाम कबूल करवाना चाहता था। जसवंत सिंह के मरने के तुरंत बाद उसने पूरे देश में जजिया लगा दिया था। यही फर्क था दुर्गादास और औरंगजेब में और यही फर्क है हम में और उनमें। इतिहासकारों ने दुर्गादास राठौड़ को सही स्थान नहीं दिया लेकिन कवि ने सही ही कहा है

' आसे घर दुर्गाे ना होतो, सुन्नत होती सारां की।।' 

 अर्थात आसकरण के घर दुर्गादास ना होता तो सब की सुन्नत हो गई होती।

सादर

राकेश चौहान 

#RSC

Thursday, 20 November 2025

पुरुष दिवस

 मानव की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न मतों के विभिन्न विचार हैं। वेदों की दृष्टि में सृष्टि की उत्पत्ति वातावरण के बदलने से चार प्रकार के जीवन के जन्म से हुई। अंडज (अंडे से उत्पन्न), पिंडज (गर्भ से उत्पन्न), स्वेदज (पसीने से उत्पन्न), और उद्भिज (बीज से उत्पन्न)। अतः मनुष्य पिंडज श्रेणी में आता है। पुराणों के अनुसार आदिमनु और शतरूपा सृष्टि के पहले पुरुष और महिला थे। पुराणों में मानव जाति के आगे बढ़ने के कई वृतांत मिलते हैं। ईसाई मत के अनुसार ईश्वर ने पहले मिट्टी से पुरुष यानि एडम की रचना की और उसका अकेलेपन दूर करने के लिए, उसके मनोरंजन हेतु, मिट्टी से नहीं अपितु उसी की पसली की हड्डी से, महिला अर्थात् ईव को बनाया। ईसाइयों ने इस मत को यहूदियों से नकल किया, जिसे मोहम्मदियों ने एडम को आदम और ईव को हव्वा नाम देकर कुरान में शामिल कर लिया। 

जीव विज्ञानियों के अनुसार पुरुष के जीवन पर गर्भ में उत्पत्ति के साथ ही संकट प्रारंभ हो जाता है। पुरुष भ्रूण के जीवित रहने की दर कन्या भ्रूण से काफी कम है, जो कि उसके जन्म के पश्चात भी, मृत्यु पर्यंत, कम ही बनी रहती है। अर्थात उत्पत्ति से लेकर अंत तक महिला पुरुष से अधिक मजबूत है और पुरुष संकट में है। मानव शास्त्र के अनुसार भी काल क्रम में महिला ने स्वयं को अधिक विकसित किया है जो कि उसके व्यवहार में भी दिखाई देता है। महिला स्थिर एवं तृप्त है जबकि पुरुष अस्थिर और असंतुष्ट। महिला डटकर मुकाबला करती है जबकि पुरुष पलायन वादी है। पुरुष को तो उसके कर्त्तव्य का पालन कराने हेतु भी महिला को अपना सर तक काट कर भेंट करना पड़ता है। पुरुष वह बिगड़ैल बच्चा है जो वर्जनाओं को तोड़ना चाहता है परंपराओं को नष्ट करना चाहता है! नारी को परंपराओं का महत्व पता है, वह संयमित है, उनका पालन एवं संरक्षण करती है! या ये कहें कि उत्पत्ति के क्रम में प्रबंधन में महिला तथा क्रियान्वयन में पुरुष ने अपने आप को विकसित किया है। 

भारतीय मान्यताओं में महिला और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं तथा इब्राहमिक मान्यताओं में उत्पत्ति से ही महिला मनोरंजन का साधन है। जिसे ईश्वर ने सिर्फ इसलिए बनाया था ताकि आदम का मन लगा रहे। आर्थिक सामाजिक रूप से पूरा विश्व इब्राहमिक विचारधारा का गुलाम हो चुका है व सनातन संस्कृतियां या तो समाप्त हो गईं या फिर दम तोड़ रही हैं। आवश्यकतानुरूप इब्राहमिक मान्यता वाले विश्व में ही महिलावाद या महिला विमर्श पैदा हुआ और फैला। सनातन संस्कृतियों में इसकी आवश्यकता इतनी ही थी कि वह इब्राहमिक छाया से निकलकर सनातन विकास के प्रकाश में चली जाएं जहां वे पुरुष और स्त्री के अधिकार एवं कर्तव्य निर्धारित कर चुकी हैं। किन्तु ऐसा हो न सका और महिला पुरुष की 'बराबरी' करने निकल पड़ी। पर क्या ये संभव है? हर घर में एक - दो बच्चे। बेटी से मां घर का काम नहीं करवाएगी क्योंकि उसे तो पुरुष बनाना है न! बेटी तो महिला है घर से बाहर भी नहीं जाएगी तो फिर बेटा बाहर का काम करेगा, पुरुष है न! एकल परिवार, एक बेटा! बेटा यहां जा, बेटा वहां जा। बेटा पढ़ेगा या फिर बाहर भीतर के काम करेगा! बेटा पढ़ेगा तो बाप जाएगा! पुरुष है न! कार्यक्षेत्र में खतरे वाली जगह महिला नहीं जाएगी पुरुष जाएगा। महिला के लिए अलग से छुट्टियां, उसकी की सुरक्षा सुनिश्चित करते अनेकों कानून- कायदे। अब महिला को पुरुष बनाना है तो कुछ कीमत तो चुकानी होगी ना। अंततः महिला न पुरुष बनी ना महिला रही। दरकते घर, टूटते परिवार! कार्यक्षेत्र में संकट! बेटी को परिवार संभालना मां सिखा ही नहीं रही, बस उसे पुरुष बनना है। अदालतों में तलाक के मुकदमों के अंबार, बेटे जेलों में, पंचायतों में या अदालत में! पुरुष दवाब में महिला बदहवास! ये है महिला को पुरुष बनाने की कीमत! बेटी बचाओ बेटी - पढ़ाओ ठीक है, पर बेटा पढ़ाओ - बेटी सिखाओ भी चलना चाहिए। पुरुष खतरे में है तो पुरुष दिवस भी ठीक ही है। शेष महिला दिवस पर।

सादर!

राकेश चौहान 

#

RSC 

Tuesday, 18 November 2025

तोर दुपट्टा से पोंछबो कट्टा

'तोर दुपट्टा से पोंछबो कट्टा।

जहिया अई तो RJD के सत्ता!!'

और

भैया के आवे दे सत्ता।

कट्टा सटाए के उठाय लेबो घरा से।।


कह रहे हैं कि इन गानों ने बिहार में जंगल राज की याद ताजा कर दी और आरजेडी का सफाया हो गया।


परसों एक मित्र ने फोन करके खिन्नता से कहा कि मुख्यमंत्री ने च्यवन ऋषि मेडिकल कॉलेज का नाम बदल कर राव तुलाराम के नाम पर रखने की, आज की रैली में, घोषणा कर दी है। मेरे मुंह से निकला 'नायबड़ो करगो के खेल!' वह बोला 'क्या?' मैंने कहा कि हरियाणा में जाट धरती में बिठा दिए, उत्तर प्रदेश और बिहार में अहीर टिका दिए और आज बीजेपी ने दक्षिणी हरियाणा में अहीर केंद्रित राजनीति को ठिकाने लगाने लगा दिया। खैर 'कुत्ता कान ले गया' की आवाज़ सुन कर, कुत्ते के पीछे ना भाग कर, मैं अपने कान पर हाथ लगा कर देखने वालों में से हूं, अतः मैने भाषण सुनने के लिए यू ट्यूब का रुख किया।


हफ़्ते भर पहले राष्ट्रवादी यू ट्यूबर बाबा रामदास (बाबा की खरी खोटी चैनल वाले) का सानिध्य प्राप्त हुआ। उन्होंने मुझसे पूछा कि हरियाणा के अहीरों और यूपी बिहार के अहीरों में क्या फर्क है। मैंने कहा कि हरियाणा का अहीर यदमुल्ला नहीं है!  हरियाणा के किसी अहीर को ये कहते नहीं सुना कि वो हिन्दू नहीं अहीर है जबकि लोकसभा चुनाव के मौसम में बहुत सारे जाट और ठाकर भी गाते फिर रहे थे कि वो हिन्दू नहीं बल्कि जाट/राजपूत हैं, जैसे वो आसमान से टपके हों। और यूपी बिहार के अहीरों की तो बात ही छोड़ दीजिए। अहीर आज के दिन दक्षिणी हरियाणा में सब से अधिक प्रगतिशील जाति है, जिस का एक मात्र लक्ष्य तरक्की है और इसकी गूंज हर क्षेत्र में दिखती है। इलाके के सभी बड़े स्कूलों के संचालक अहीर हैं। हर व्यवसाय में, हर नौकरी में अहीरों का बोलबाला है। IAS, IPS, सेना में अधिकारी, आई आई टी, MBBS, हर क्षेत्र में अहीर! दक्षिणी हरियाणा का अहीर दुपट्टे से कट्टा पोंछने वाला भी नहीं है। बल्कि इलाका  आमतौर पर अपराध मुक्त है तो इसका कारण निःसंदेह अहीरों का अपराध में न के बराबर शामिल होना है। जो नए नए कुकुरमुत्ता गैंग उग रहे है वे भी गैर अहीर ही हैं। यदि कहा जाए कि अहीर इस क्षेत्र का ग्रोथ इंजन है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 


भाजपा की हिन्दू राजनीति से मुस्लिम तुष्टिकरण का किला ढहने के समानांतर जिस परिवर्तन पर लोगों का अधिक ध्यान नहीं वो ये है कि कहीं ओबीसी, कहीं सामंतवाद, कहीं ब्राह्मणवाद, कहीं किसान-कमेरे जैसे नारे लगाकर, 18-20% की आबादी के दम पर 30- 40 साल से राजनीति के पटल पर छाई विशेष जाति की राजनीति को हर जगह बाकी समाज ने झटक दिया। इस झटके की सबसे पहली शिकार 24 के लोकसभा चुनाव में भाजपा बनी। किंतु भाजपा की सब से बड़ी खूबी है कि ये पार्टी सीखती बहुत जल्दी है। इसने सीखा और जाट केंद्रित राजनीति को धता बता कर हरियाणा विधानसभा में ही बाजी पलट दी। दक्षिणी हरियाणा में राव इंद्रजीत की पुत्री के हारने से बाल - बाल बचने के बाद क्षेत्र की अहीर आधारित राजनीति के अंत की दस्तक तो सुनाई दी थी किन्तु इसकी पटकथा कोरियावास मेडिकल कॉलेज के नाम पर विवाद उठा कर कुछ मूर्खों ने स्वयं ही लिख दी। हालांकि च्यवन ऋषि के सामने राव तुलाराम को खड़ा करना किसी के गले नहीं उतरा और शेष समाज की बात तो छोड़िए, अधिकांश अहीरों ने ही इस विवाद को गलत बताया। किंतु वोट बैंक तो वोट बैंक है, नहीं माना! इस पृष्ठभूमि में जब मुझे मुख्यमंत्री की घोषणा का पता चला तो मेरे मुंह से उपरोक्त 'खेल कर गया' शब्द ही निकले। हालांकि जब मुख्यमंत्री का भाषण सुना तो समझ आया कि च्यवन ऋषि मेडिकल कॉलेज परिसर में बनने वाले अस्पताल का नाम राव तुलाराम के नाम पर होगा। यानि चम्मच में च्यवनप्राश! चाटते रहो! फिर भी यह अच्छा फैसला है। च्यवन ऋषि और तुलाराम दोनों ही क्षेत्र के महापुरुष हैं और च्यवन ऋषि तो तुलाराम के लिए भी महापुरुष रहे होंगे। परलोक में उनकी आत्मा स्वयं को च्यवन ऋषि की गोद में पा कर हर्षित ही होगी। लेकिन दो सवालों का जवाब नहीं मिल रहा। पहला, जिस गांव की ज़मीन पर यह मेडिकल कॉलेज बन रहा है उसके आसपास के लोगों को नौकरी तथा कॉलेज की सीटों में आरक्षण देने की मांग, जो निःसंदेह जायज थी! उसका क्या हुआ! क्या वो तुलाराम के नाम के अस्पताल के नीचे दब गई? फिर महीनों चले धरने का क्या औचित्य हुआ? वहां के लोगों को मिला क्या? अस्पताल के नाम का झुनझुना! खैर दूसरा सवाल कि क्या शेष उत्तर भारत की तरह दक्षिणी हरियाणा में भी 'अधिसंख्य जाति' केंद्रित राजनीति के दिन लद गए? जो भी हो पर पहले हरियाणा और अब बिहार के नतीजों का सबक तो सबके लिए है कि कोई भी जाति समाज को लंबे समय तक बंधक नहीं बना सकती, जब वो ठाड़ पर उतर आती है तो समाज उसको उसकी जगह दिखा ही देता है। इसके प्रमाण आने वाले समय में देखने को मिलते रहेंगे। वैसे यू ट्यूब पर दुपट्टे से कट्टा पोंछने वाला गाना ज़रूर देखिएगा! 

सादर 

राकेश चौहान 

#RSC

Thursday, 30 October 2025

आरक्षण

प्रातः भ्रमण के दौरान रास्ते के सभी कुत्तों से मित्रता ही हो गई है और उनके में से कई तो दूर से आता देख कर या आवाज सुन कर दौड़े चले आते हैं । उन में से कुछ पास आ कर घूम घूम के मेरी टांगों से कमर रगड़ने का लुत्फ़ भी उठाने लगते हैं। क्योंकि कपड़े मुझे नहीं धोने होते तो मैं घणी सी परवाह भी नहीं करता। कपड़े स्वयं न धोने की बात यहां लिखना मात्र संयोग नहीं अपितु मेरा दंभ है तथा इसे आप अपने तरीके से समझने के लिए स्वतंत्र हैं। बहरहाल इस प्रातः कालीन यात्रा में मैं रात की बची रोटियां अपने इन मित्रों के लिए लेकर जाता हूं। मार्ग में मिलने वाले कुत्तों के कई दलों में से एक में एक मादा हाल ही में ब्याई है। इस दल का दलपति एक तगड़ा शेरू सा कुत्ता है और खाना डालते ही वह सबसे पहले खाता है, बाकी कुत्ते उसके खाकर हटने तक दूर खड़े देखते रहते हैं। कल मैं ने जब रोटियां डाली तो अन्य कुत्तों के साथ शेरू भी दूर ही खड़ा रहा! मैं समझ नहीं पाया कि माजरा क्या है। तभी वह मादा दूर से दौड़ती आई और कुत्तों के बीच से निकलती रोटियों तक पहुंच कर मासूमियत और कृतज्ञता के भाव आंखों में लिए रोटी चबाने लगी। आश्चर्य! कुत्तों को भी यह समझ है कि किसको भोजन की अधिक आवश्यकता है! अर्थात त्याग और कृतज्ञता ईश्वर प्रदत्त नैसर्गिक गुण हैं। सबल का त्याग और निर्बल की कृतज्ञता परिवारों और समाज को जोड़ कर रखने की सनातन परंपरा है। कथा कहानियों के अलावा सार्वजनिक कुएं, अस्पताल, तालाब, धर्मशाला इत्यादि इसके अनेकों उदाहरण आज भी मौजूद हैं। 'एक कमाया करता दस खाया करते' की बात तो बुजुर्गों से सुनते ही हैं। उन 'दसों' का पेट भरने के लिए न जाने कितने 'एकाें' ने अपनी जिंदगियां होम कर दी होंगी! किंतु त्याग और कृतज्ञता के आधार पर सब स्वतः ही चलता रहा।

 आरक्षण भी वही त्याग और कृतज्ञता के ईश्वर प्रदत गुण से उपजी व्यवस्था है ! किन्तु मनुष्य कुत्तों जितना 'उत्कृष्ट ' जीव नहीं है। उसमें स्वार्थ है, आपाधापी है! वो तो कुत्तों को भी उनके स्कूल खोल-खोल कर अपने जैसा ही बनाना चाहता है। अनारक्षित के अनुसार आरक्षण आरक्षित को दी जानेवाली भीख है तो आरक्षित के लिए सदियों से रोक कर रखा गया उसका हक़। इसमें न कहीं त्याग ही है और न कृतज्ञता! जबकि न भीख भारतभूमि का शब्द और न हक़! 

वोट चटोरे राजनेताओं के अलावा भी बहुत से प्रज्ञावान लोगों से सुन चुका कि आरक्षण समय की यात्रा में पीछे छुटे बांधवों को साथ लेकर चलने का प्रयास है किंतु आज तक एक भी आरक्षित को सार्वजनिक मंच तो छोड़िए निजी तौर पर भी इस व्यवस्था के लिए समाज का धन्यवाद करते नहीं सुना! अम्बेडकर ने आरक्षण दिया यह चपरासी से ले कर सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश तक गाता फिर रहा है, किंतु समाज के लिए आभार के दो शब्द किसी के पास नहीं हैं। नवबौद्धों और क्रिप्टो क्रिश्चियनों के पास इन्हीं हिंदुओं के लिए प्रार्थनाओं और शपथों तक में कोसा काटी और गालियां तो हैं किंतु कृतज्ञता का दाना भी नहीं है। हैरानी है कि आज तक खुलकर यह कहने वाला कोई नहीं मिला कि पहले जो हुआ सो हुआ होगा किंतु आज हमारी पीड़ा समझ कर इसी समाज ने हमें अलग से अवसर उपलब्ध कराए। खेद है कि आरक्षण ऐसी व्यवस्था हो गई है जिसमें न त्याग बचा है और न कृतज्ञता! यदि मनुष्य अपने निकटतम मित्र कुत्तों से भी नहीं सीख सकता तो विनाश अधिक दूर नहीं।

शेष अगली बार!

सादर!

राकेश सिंह चौहान 

#RSC

Tuesday, 21 October 2025

गुला काका

उसका असली नाम याद नहीं किंतु सब उसको गुला काका ही बोलते थे। गुला काका श्रीनगर में हमारी वायुसेना मैस में वेटर था। बहुत सीधा और सच्चा इंसान! सभी वेटर और मेस बॉयज की तरह वह भी कश्मीरी मुसलमान था। बाकी लोग गुला काका को छेड़ते रहते। मज़ाक करते, उसकी चीजें छिपा देते। कभी - कभी वह बहुत परेशान हो जाता। उन दिनों मैं मेस का इंचार्ज था। 10-12 नौजवान मेस बॉयज थे! अच्छे लड़के थे, मजीद, मुख़्तार, एक दो नाम याद हैं। मुझ से बड़ा प्रेम रखते थे, मैं भी उनका ख्याल रखता। जब मैं वहां से तबादला हो कर जा रहा था तो उन्होंने मुझे विदाई पार्टी दी और उनमें से आधे उस दौरान रोने लगे! खैर, ऐसे ही एक दिन गुला काका छेड़छाड़ से परेशान, मेस के रेस्ट रूम में, चारपाई पर, दीवार के सर लगा कर अधलेटा था। मैं देखते ही सारा माजरा समझ गया। ढांढस देने के उद्देश्य से मैं उस से बात करने लगा। गुला काका झटके से बैठ गया, बोला कि इनको मेरा देवता सजा देगा! और फिर वैसे ही लेट गया। उसकी इस अदा पर अपनी हंसी दबाते हुए मैंने पूछा - कौन देवता? वो फिर वैसे ही उठा और अपनी बात कह के फिर लेट गया। मेरी हर जिज्ञासा का जवाब देने को वह वैसे ही बैठता और वापस अधलेटा हो जाता। जितना रोचक उसका लेट- बैठ था उतनी ही रोचक उसकी कहानी! उस ने बताया कि उसके घर के बगल में एक मंदिर है, क्योंकि क्षेत्र के हिंदू घाटी से पलायन कर चुके थे और घाटी के बचे- कुचे मंदिर केंद्रीय सुरक्षा बलों की देखरेख में थे और गुला काका रोजाना उस मंदिर में साफ- सफाई करता था। गुला काका बोला कि उसे कोई समस्या होती है तो वह मंदिर में जा कर देवता को कह देता है। मैंने उस से पूछा - क्या वो तुम्हारी सुनता है? मेरे इस जघन्य अपराध पर उसने मुझे घूर कर देखा जैसे और बोला, 'तो क्या आपका सुनेगा? हम वहां रहता है, सेवा करता है तो हमारा नहीं सुनेगा क्या?' उसकी सरलता से मेरा मन भर आया। मैं ने उस से पूछा कि हिंदू क्यों चले गए? 'आपको पता नहीं है यहां का हाल?' मैं निरुत्तर हो गया!

मुसलमानों का इस्लामीकरण एक धीमी किंतु सतत प्रतिक्रिया है। बारीकी से देखने पर समझ आता है मुसलमान और इस्लाम दीन के अलग-अलग पड़ाव हैं। मुसलमान होना त्वरित है किन्तु इस्लामी होना प्रक्रिया। आरम्भ में इस्लाम अपने नए शिकार को अधिक नहीं कुरेदता, इस्लाम का हरावल दस्ता सूफीवाद इस विधा का माहिर है। सूफियों की दरगाह पर लगे हिंदू चिह्न इस के प्रमाण हैं। यही चिह्न इस्लाम अपने नए मुसलमानों पर से भी नहीं हटाता। ऐसे ही जैसे मंदिरों के शिखर गिरा कर उन्हीं दीवारों पर गुंबद बना कर मस्जिद की शक्ल दे देना और कुछ समय बाद दीवारों पर लगे हिंदू चिह्न कुफ्र हो जाते हैं, जो कि रेगमाल से रगड़ कर मिटाए जाते हैं। फिर एक दिन कश्मीर में घूमती तबलीकें कह देंगी कि गुला काका कुफ्र कर रहा है और उसके सनातनी निशान रेगमाल से रगड़ रगड़ के हटा दिए जाएंगे। बहुत से मुसलमानों को अपनी जाति - गौत्र, सब पता है। कुछ तो अपनी कुलदेवी की पूजा तक करते हैं! उनकी महिलाएं हिन्दू महिलाओं की तरह साड़ी बांधती हैं, कुछ बिंदी भी लगाती हैं (राजपूत मुसलमानों के विषय में यह बात जानता हूं, इसके बारे में एक अलग पोस्ट होगी किसी दिन)। किंतु इस्लाम सब कुछ छीन कर इंसान के हर पहलू पर छा जाने का नाम है और निश्चय ही गुला काका भी करोड़ों लोगों की तरह उन के निशाने पर है। एक समय था जब मेवात में एक भी पर्दा नशीन दिखाई नहीं देती थी, आज दृश्य अलग है। तभी तो कहता हूं कि मुझे हर मुसलमान में मस्जिद दिखाई देती है जो मंदिर तोड़ कर बनाई गई है।

राकेश सिंह चौहान 

#RSC