उसका असली नाम याद नहीं किंतु सब उसको गुला काका ही बोलते थे। गुला काका श्रीनगर में हमारी वायुसेना मैस में वेटर था। बहुत सीधा और सच्चा इंसान! सभी वेटर और मेस बॉयज की तरह वह भी कश्मीरी मुसलमान था। बाकी लोग गुला काका को छेड़ते रहते। मज़ाक करते, उसकी चीजें छिपा देते। कभी - कभी वह बहुत परेशान हो जाता। उन दिनों मैं मेस का इंचार्ज था। 10-12 नौजवान मेस बॉयज थे! अच्छे लड़के थे, मजीद, मुख़्तार, एक दो नाम याद हैं। मुझ से बड़ा प्रेम रखते थे, मैं भी उनका ख्याल रखता। जब मैं वहां से तबादला हो कर जा रहा था तो उन्होंने मुझे विदाई पार्टी दी और उनमें से आधे उस दौरान रोने लगे! खैर, ऐसे ही एक दिन गुला काका छेड़छाड़ से परेशान, मेस के रेस्ट रूम में, चारपाई पर, दीवार के सर लगा कर अधलेटा था। मैं देखते ही सारा माजरा समझ गया। ढांढस देने के उद्देश्य से मैं उस से बात करने लगा। गुला काका झटके से बैठ गया, बोला कि इनको मेरा देवता सजा देगा! और फिर वैसे ही लेट गया। उसकी इस अदा पर अपनी हंसी दबाते हुए मैंने पूछा - कौन देवता? वो फिर वैसे ही उठा और अपनी बात कह के फिर लेट गया। मेरी हर जिज्ञासा का जवाब देने को वह वैसे ही बैठता और वापस अधलेटा हो जाता। जितना रोचक उसका लेट- बैठ था उतनी ही रोचक उसकी कहानी! उस ने बताया कि उसके घर के बगल में एक मंदिर है, क्योंकि क्षेत्र के हिंदू घाटी से पलायन कर चुके थे और घाटी के बचे- कुचे मंदिर केंद्रीय सुरक्षा बलों की देखरेख में थे और गुला काका रोजाना उस मंदिर में साफ- सफाई करता था। गुला काका बोला कि उसे कोई समस्या होती है तो वह मंदिर में जा कर देवता को कह देता है। मैंने उस से पूछा - क्या वो तुम्हारी सुनता है? मेरे इस जघन्य अपराध पर उसने मुझे घूर कर देखा जैसे और बोला, 'तो क्या आपका सुनेगा? हम वहां रहता है, सेवा करता है तो हमारा नहीं सुनेगा क्या?' उसकी सरलता से मेरा मन भर आया। मैं ने उस से पूछा कि हिंदू क्यों चले गए? 'आपको पता नहीं है यहां का हाल?' मैं निरुत्तर हो गया!
मुसलमानों का इस्लामीकरण एक धीमी किंतु सतत प्रतिक्रिया है। बारीकी से देखने पर समझ आता है मुसलमान और इस्लाम दीन के अलग-अलग पड़ाव हैं। मुसलमान होना त्वरित है किन्तु इस्लामी होना प्रक्रिया। आरम्भ में इस्लाम अपने नए शिकार को अधिक नहीं कुरेदता, इस्लाम का हरावल दस्ता सूफीवाद इस विधा का माहिर है। सूफियों की दरगाह पर लगे हिंदू चिह्न इस के प्रमाण हैं। यही चिह्न इस्लाम अपने नए मुसलमानों पर से भी नहीं हटाता। ऐसे ही जैसे मंदिरों के शिखर गिरा कर उन्हीं दीवारों पर गुंबद बना कर मस्जिद की शक्ल दे देना और कुछ समय बाद दीवारों पर लगे हिंदू चिह्न कुफ्र हो जाते हैं, जो कि रेगमाल से रगड़ कर मिटाए जाते हैं। फिर एक दिन कश्मीर में घूमती तबलीकें कह देंगी कि गुला काका कुफ्र कर रहा है और उसके सनातनी निशान रेगमाल से रगड़ रगड़ के हटा दिए जाएंगे। बहुत से मुसलमानों को अपनी जाति - गौत्र, सब पता है। कुछ तो अपनी कुलदेवी की पूजा तक करते हैं! उनकी महिलाएं हिन्दू महिलाओं की तरह साड़ी बांधती हैं, कुछ बिंदी भी लगाती हैं (राजपूत मुसलमानों के विषय में यह बात जानता हूं, इसके बारे में एक अलग पोस्ट होगी किसी दिन)। किंतु इस्लाम सब कुछ छीन कर इंसान के हर पहलू पर छा जाने का नाम है और निश्चय ही गुला काका भी करोड़ों लोगों की तरह उन के निशाने पर है। एक समय था जब मेवात में एक भी पर्दा नशीन दिखाई नहीं देती थी, आज दृश्य अलग है। तभी तो कहता हूं कि मुझे हर मुसलमान में मस्जिद दिखाई देती है जो मंदिर तोड़ कर बनाई गई है।
राकेश सिंह चौहान
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