poems

Tuesday 11 November, 2014

किस ऑफ़ लव

कुछ शाश्वत नियम (cardinal principles) होते हैं, उन में से दो की बात कर रहा हूँ। पहला ‘जो चर्चा में रहना चाहता है उसकी चर्चा मत करो अपनी मौत मर जाएगा’ और दूसरा ‘जिस चीज से हम बचते फिरते हैं उस का अंततः सामना करना ही पड़ता है।’ ‘किस ऑफ़ लव’ का शोर मचा है इस बीच यह भी खबर आई कि कुछ दिलजले, जिनकी शक्ल देख कर भैंस भी मुंह घुमा लेती है, अपने होठों पर पॉलिश करवा कर ‘कुछ’ मिलने की आस में दिल्ली जा कर ‘सूखे’ ही वापस लौट आए हैं। मजाक की बात नहीं है पर इस वाहियात और बेशर्म अभियान पर कुछ न लिख कर मैंने पहले नियम के अनुसार इसके अपनी मौत मरने की कामना की थी। परन्तु एक फेसबुकिया मित्र ने इसे अपना समर्थन देने की घोषणा कर दी। वो बात अलग है कि ये घोषणा ऐसे ही थी जैसे किसी एक पार्टी की दो तिहाई बहुमत की सरकार को किसी निर्दलीय का समर्थन। अब साहब समर्थन के इस महत्वपूर्ण दस्तावेज की खबर अजीब-अजीब शक्लों में ढले चौराहों पर चुम्बन को अपना अधिकार समझते ‘लौंडे-लौंडियों’ को तो नहीं लगी होगी पर मुझे जरुर अजीब लगा कि 'किस ऑफ़ लव' सार्वजनिक रूप से करने के ये सज्जन समर्थक हैंफिर तो ऐसे लोग  नंगा घूमने के भी हामी होंगे, चौराहे पर सम्भोग करने के भी! ये भी आजादी ही है न! यही आजादी पश्चिम भी खोज रहा था इस आजादी के चक्कर में उन्होंने वो सब कुछ चौराहों पर किया जो बंद बेडरूम में गहरे पर्दों के पीछे होना चाहिए। वो लोग भूल गए कि उन की इस आजादी को नन्हे बच्चे भी देख रहे हैं। आज परेशान है 12-13 साल की स्कूली बच्चियों के गर्भवती होने की समस्या पर! अब इस बीमारी से निजात पाने को पश्चिम, भारतीय संस्कृति की तरफ देख रहा है! ये चौक चौराहों पर 'किस' कर के अपनी आजादी का रोना रोने वाले जरा ये सोचें कि बच्चों के मस्तिष्क पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा! सब कुछ आजादी ही है सामाजिक जिम्मेदारी कुछ नहीं!??? पर ये तो हम हिन्दुस्तानियों की आदत ही है कि हम योग करना भी तब शुरू करते हैं जब वो पश्चिम जाकर ‘योगा’ बन कर लौटता है! धन्य हैं लव किसर्स और धन्य हैं आप के समर्थक। इनका जो भी हो पर देखिए न कैसे एक नियम पर चलते हए मैं दूसरे नियम का शिकार हो गया। 

Friday 7 November, 2014

शिलान्यास

लीजिए साहब पेश है हमारे नए नवेले विधायक द्वारा नया नवेला पत्थर! नारनौल शहर में कहीं भी निकल जाओ या गाँव की गलियों में चले जाओ हर गली में पत्थर लगे हैं। वो अलग बात है कि  उन पर पूर्व विधायक का नाम लिखा है।  अगर शहर की गलियों में दिन भर घूमा जाए तो ऐसा लगता है जैसे कि पूर्व विधायक सड़क बनाने का ही काम करते हों। अगर इन शिला स्तंभों से ईंटें निकाल कर सड़क बनायीं जाए तो एक वार्ड की और यदि शिलालेख उखाड़ कर बनाई जाए तो एक पूरे महल्ले की सड़कें बन जाएँ। बहरहाल मैं यहाँ पर पूर्व विधायक का बखान नहीं करना चाहता मेरी चिंता इन शिलालेखों पर होते फिजूलखर्च को ले कर है। सड़क, बिजली, पानी ये तो मूलभूत जरूरते हैं इन्हें तो पूरा करते हुए शर्म आनी चाहिए कि आजादी के इतना बरसों बाद भी हम इन पर पर नहीं पा सके  शिलान्यास तो इस शर्मिंदगी में कोढ़ में खाज की तरह है। एक सड़क पक्की करवा कर ऐसा क्या विकास का तीर मार लिया जाता है ये समझ से परे है। भ्रष्ट परिषद् को तो किसी न किसी को ‘टमूरना’ है ताकि खीर पकती रहे और चक्की चलती रहे। लाजमी है कि नए नवेले विधायक से शिलान्यास करवाने का ये कदम नयी ब्याहता के हाथ की खीर में अपना हिस्सा पक्का करवाने के प्रयास जैसा है क्योंकि 15 दिन पुराने विधायक का निश्चित तौर पर ही सड़क निर्माण में कोई योगदान नहीं हो सकता, आखिर एक सड़क को बनने में ही 15 दिन से ज्यादा का समय लग जाता है घोंघे की गति से चलने वाली सरकारी फाईलों का तो कहा ही क्या जाए। यह भी सब जानते हैं कि इस नयी बनी सड़क को यही परिषद् किसी न किसी बहाने तोड़ देगी ताकि न तो इसमें इस्तेमाल हुई सामग्री पर कोई आवाज उठे और न ही निर्माण प्रक्रिया पर अगर बचा रह जाएगा तो यह शिलालेख। जो भी हो इन पंक्तियों का कारण न तो विधायक महोदय को प्रचार कर वाही-वाही लूटने से रोकने का है और न ही उन्हें बदनाम करने का, अपितु प्रदेश की जनता बीजेपी सरकार के रूप में एक उम्मीद देख रही है और वही पुराने गलियाँ-नालियां पक्की करवा शिलान्यासों की तस्वीरें खिंचवाने के काम होते रहे तो फिर ढ़ाक के तीन पात ही रहने वाले हैं। एक बार को भूल जाईए शिलान्यास में प्रयुक सामग्री के खर्चे को जरा सोचिये विधायक, उपायुक्त और अन्य अधिकारियों के कीमती समय के बारे में! शिलान्यास एक परंपरा है, जरूर कायम रहनी चाहिए परन्तु एक निश्चित बजट से कम की परियोजनाओं के लिए शिलान्यास पर रोक लगनी चाहिए। उम्मीद है कि नयी सरकार का ध्यान इस बेकार की शोशेबाजी की तरफ जाएगा और यह तमाशा बंद किया जाएगा और उस से पहले हमारे विधायक अपने स्तर पर इसे बंद करेंगे।