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Monday 13 October, 2014

आओ बाधा पहुँचायें

विधानसभा के उम्मीदवार की एक तस्वीर 5 अक्टूबर को तीन समाचार पत्रों में छपती है, उम्मीदवार के साथ SDM (चुनाव रिटर्निंग अफसर) और कुछ अन्य अधिकारी नजर आ रहे हैं। समाचार की हैडलाइन है, ‘कांग्रेस प्रत्याशी ने किया चुनाव प्रचार’। प्रथम दृष्टया यह अधिकारियों के कदाचार का मामला है। अधिकारियों का किसी प्रत्याशी के चुनाव अभियान में हिस्सा लेना काफी गंभीर बात है। एक व्हिसल ब्लोअर साथी मनीष वशिष्ठ ने उक्त समाचार पत्रों की तस्वीरों के साथ इस घटना पर प्रकाश डाला और इसे फेसबुक पर प्रकाशित कर दिया। हमारे संविधान में व्यवस्थित ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ सभी को अपने विचार रखने की आजादी देती है। परन्तु मनीष वशिष्ठ की आजादी कुछ ही घंटे जिन्दा रही और उन के पास APRO का फोन आया तथा उन्हें साहब से मिल लेने की ताकीद की गई तथा धमकाया गया कि उन के खिलाफ मुकद्दमा दर्ज होगा।
अब जरा SDM साहब का पक्ष सुनिए। उनका कहना है कि यह तस्वीर लगभग डेढ़ महीने पुराने, आचार संहिता लगने से काफी पहले के, एक सरकारी कार्यक्रम की है जिस में उक्त विधानसभा उम्मीदवार स्वास्थ्य मंत्री के तौर पर मुख्य अतिथि थे। यहाँ पर SDM बेकुसूर नजर आते हैं। पर उनकी बेकुसुरी दूसरे सवालों को जन्म देती है। मसलन अगर यह तस्वीर पुरानी है तो फिर चुनाव के समय समाचार पत्रों में क्यों है? यह पुरानी तस्वीर समाचार पत्रों ने क्यों लगायी? इस तस्वीर में अधिकारियों के अलावा अन्य गणमान्य लोग भी हैं, इस तस्वीर के माध्यम से क्या यह चुनावों को गलत तरीके से प्रभावित करने का मामला नहीं है? अगर यह तस्वीर पुरानी है तो कुछ समझदारी पूर्ण कदम उठाये जाते। सब से पहले SDM तथा समाचारपत्रों की तरफ से इस बारे में अख़बारों में स्पष्टीकरण दिया जाता। दूसरा यह तस्वीर अख़बारों में क्यों छपी इस का पता लगाया जाता। तीसरा यदि यह तस्वीर अख़बारों ने स्वयं अपनी तरफ से लगायी है तो उनके खिलाफ कार्यवाही की जाती। चौथा यदि यह तस्वीर खुद उम्मीदवार ने अपनी तरफ से दी है तो उम्मीदवार के खिलाफ प्रावधानों के तहत कार्यवाही की जाती, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से चुनावों को प्रभावित करने का मामला है। परन्तु न ये किया जाता है और न वो और मामला बनाया जाता है मनीष वशिष्ठ के खिलाफ। अब जरा मामला क्या बना इस पर गौर फरमाएंगे तो बेकुसूर नजर आने वाले SDM महोदय विलेन नजर आएंगे। SDM साहब ने पुलिस में एक शिकायत दी जिस की भाषा अवांछनीय और अभद्र है। इस शिकायत में मनीष वशिष्ठ पर ब्लैकमेलर होने का इल्जाम लगाया गया है। इस शिकायत में ‘बदनाम’ और ‘दुरूपयोगी’ SC/ST एक्ट के एक मुकद्दमे का भी हवाला दिया गया है। इस शिकायत में यह भी कहा गया है कि मनीष वशिष्ठ के पिता को JBT घोटाले में सजा हो चुकी है। जब कि सच्चाई यह है कि SC/ST एक्ट का झूठा मुकद्दमा मनीष वशिष्ठ द्वारा एक अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला उठाने पर हुआ था और इस झूठे मुकद्दमे से वशिष्ठ बरी हो चुके हैं, और इस मुकदमे की साजिश रचने वाले अधिकारी पर मनीष वशिष्ठ की शिकायतों पर सरकारी संपत्ति के गबन के दो मामलों में जमानत पर हैं। जहाँ तक सवाल है मनीष के पिता का यह सर्वविदित है कि मनीष वशिष्ठ के पिता ने अपने जीवन में कभी बेईमानी नहीं की यह बात पूरा नारनौल जानता है। उन पर आक्षेप लगाने से बड़ी शर्म की बात कुछ नहीं हो सकती। बहरहाल इन तथ्यों को ‘सुनी-सुनाई’ सूचनाओं के रूप में आधार बना कर SDM महोदय ने वशिष्ठ के खिलाफ झूठे आरोप लगाने, चुनावों में बाधा पहुँचाने और अफवाह फ़ैलाने की शिकायत दर्ज करवा दी। उधर मनीष वशिष्ठ ने भी जनप्रतिनिधि कानून तथा आईपीसी की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत उक्त रिटर्निंग अफसर के खिलाफ शिकायत दे दी। परन्तु सभी नागरिकों को एक आंख से देखने वाले कानून की आँख तब फूट गयी जब ‘सुनी-सुनाई’ बातों पर आधारित एक सरकारी अफसर की शिकायत पर वशिष्ठ के खिलाफ FIR दर्ज हो गयी और दस्तावेजों पर आधारित वशिष्ठ की शिकायत पर अब तक कोई कार्यवाही नहीं हुई।
सोचने वाली बात ये है कि इस पूरी प्रक्रिया में चुनाव में बाधा पहुँचाने वाली बात कहाँ से आ गयी। तीन समाचार पत्रों में छपी इस खबर को पुनः प्रकाशित कर के और उसे आधार बना कर कमेन्ट करके मनीष ने कोई अपराध नहीं किया है ऐसे ही एक मामले में माननीय उच्चतम न्यायलय ने हाल ही में ऐसी व्यवस्था दी है! यह स्पष्ट तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। अच्छा होता कि इस विषय को समझदारी से सुलझाया जाता। प्रशासन इस पर लीपापोती करने में लग गया है। परन्तु लगता है कि ये बेर और बिखरेंगे। मेरे विचार से यह निश्चित ही मनीष वशिष्ठ के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है और कोई भी व्यक्ति संविधान से ऊपर नहीं चाहे वो SDM ही क्यों न हो! अगर प्रशासन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चुनाव में बाधा लग रही है तो ये बाधा मैं भी पहुंचा रहा हूँ! आईये बाधा पहुँचायें!


Tuesday 7 October, 2014

छक्कड़ के पक्ष में

“किस का समर्थन कर रहे हो?” चुनावों के मौसम का आम सवाल। ये सवाल तब बार-बार पूछा जाने लगता है जब आंदोलनों, धरनों और प्रदर्शनों का आप का कोई साथी चुनाव लड़ रह हो। “उमाकांत छक्कड़” स्वाभाविक जवाब देने के बाद मैं सामने वाले के चेहरे के बदलते भावों से उस की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करता हूँ।
इस बात को आगे बढ़ाएं इस से पहले चलिए एक नजर नारनौल विधानसभा के उम्मीदवारों पर डाल ली जाये। एक बड़ी पार्टी के उम्मीद्वार, पार्टी की टिकट उन की झोली में ऐसे गिरी जैसे अंधे की झोली में सेब! वो कब क्या बयान देदें भगवन को भी पता नहीं। उन के सर पर एक ऐसे वंशवादी नेता का हाथ जिन्हें 9 साल तक सत्ता की खीर खाने के बाद पता चला कि उन के क्षेत्र के साथ अन्याय हो रहा  है। निर्णय में इतना समय लगते देख कर मुझे रीजनिंग परीक्षा में मात्र 40 मिनट का समय रखने वालों की बुद्धि पर तरस आ रहा है। बहरहाल नेता जी किसी मदारी की तरह पूछते हैं “बोलो रख दूँ इस के सर पर हाथ?” हर बार लुटती-पिटती, ठगी जाती जनता मदारी की बातों से सम्मोहित हो कर दोनों हाथ उठा कर चिल्लाती है “हाँ-हाँ”। जमूरे की आँखों में आंसू हैं और आंसू उस कार्यकर्त्ता की आँखों में भी हैं जो राष्ट्रवाद का पाठ कंठस्त करने के बाद उसे व्यक्तिवाद के सामने नतमस्तक देख रहा है।
दूसरी बड़ी पार्टी का उम्मीदवार। जिन को गालियाँ दे-दे कर चुनाव जीता पहला मौका मिलते ही उन की ही गोदी में जा बैठा। सरकार के तारणहार इस उम्मीदवार को इनाम में मंत्री पद मिला और दोनों हाथों से पैसा बटोरने की छूट! मुझे नहीं पता था कि कपूरों, खानों और रोशनों के बलिष्ठ शरीर और पदुकोनों, चोपड़ाओं की सुडौल काया देखने की आदी जनता को एक मंत्री को सीडी में देखना पड़ेगा! कल ही की बात है एक बहुत ही संस्कारी, चरित्रवान सज्जन इस उम्मीदवार की सिफारिश ले कर मेरे पास आए, मैंने अफ़सोस किया कि उन जैसे व्यक्ति को ऐसे उम्मीदवार के लिए घूमना पड़ रहा है। उनके चहरे पर ग्लानि थी पर वो ‘क्या करें’ कह कर चलते बने।   
तीसरी बड़ी पार्टी का उम्मीदवार। (मैं सोचता हूँ कि पार्टी की टिकट का नाम ‘टिकट’ बिल्कुल सही रखा है। लेने के लिए लाइन में लगना पड़ता है और पैसे से मिलती है।) नेता जी अपने अंतिम पड़ाव पर हैं पर जिस पार्टी का झंडा उठा रखा है उस में तो पोस्टर में दादा से ले कर पडपोते तक की तस्वीरें लगती हैं फिर बिना जनता को ‘वारिस’ दिए कैसे चले जायेंगे। लो जी बेटा न सही बेटे की बहु ही सही। लो मिल गयी टिकट, बल्ले-बल्ले! अनुभव और योग्यता गयी तेल लेने।
अब इन की सुनिए ये हैं चौथे। तमाम उम्र सार्वजानिक जगहों पर कब्ज़ा करके उन्हें बेचने में गुजार दी, धर्मशालाओं और मंदिर मस्जिद तक को नहीं छोड़ा और चले हैं भ्रष्टाचार मिटाने। हाँ भाई आधा शहर कब्ज़ा लिया अब तो भ्रष्टाचार मिट ही जाना चाहिए।
लीजिये पांचवे सिर्फ इस लिए मैदान में हैं क्योंकि मदारी ने इन्हें अपना जमूरा न बना कर उम्मीदवार नंबर एक को बना लिया। अब लोकतंत्र में जमूरों को भी विद्रोह का हक़ तो है ही।
ये हैं मिस्टर छठे इन्होने कुछ और किया हो या न किया हो पर उम्मीदवार नंबर तीसरे को छठी का दूध याद दिला दिया। जाति सूंघ कर वोट देने वाली जनता में से समाज का काफी बड़ा हिस्सा तोड़ कर तीसरे की नींद हरम कर दी। इनकी योग्यता है इनका पैसा जो कि समाज सेवक बन कर इन्होने खूब लुटाया है।

बाकी लोग भी इन छह उम्मीदवारों के अगल-बगल की योग्यता के हैं। यही कहानी हर जगह है। चाहे देश में कहीं भी चले जाओ। खैर मैं मेरे समर्थन का उम्मीदवार पूछने वाले सज्जन की आँखों में झांकता हूँ उनकी मुस्कराहट में व्यंग की मात्रा सौम्यता से अधिक दिखाई देती है। ‘छक्कड़ आदमी तो अच्छा है पर जीतेगा थोड़े ही’। मैं सवाल दागता हूँ कि जीतने वाले को वोट देना चाहिए या अच्छे उम्मीदवार को? जवाब आता है ‘जीतने वाले को’। ‘आप मेरे हितैषी है?’ मेरा अगला सवाल। ‘जी’। ‘अगर 10 लोग आ कर मुझे पीटने लगें तो आप मुझे बचाने की कोशिश करेंगे या उन के साथ मिल कर पीटने लगेंगे?’ सज्जन कुछ विचलित होते हैं। मैं उनकी हालत पर तरस खाता हूँ और विदा लेता हूँ। परन्तु मूल प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। क्या चुनाव के समय हम वहीँ पर आ जाएँ जिन बातों की खिलाफत करते रहे? क्या मौजूदा उम्मीदवारों में उमाकांत छक्कड़ सब से उपयुक्त उम्मीदवार नहीं है? क्या वो बेईमान है? क्या वो दलाल है? क्या उसे शाम होते ही लालपरी चाहिए? क्या उसे नौकरी दिलवाने के बदले हुस्नपरी चाहिए? क्या वो भूमाफिया है? क्या वो बिकाऊ है? इन सवालों को मैंने खुद के सामने रखा और फिर निर्णय किया कि हाँ छक्कड़ ही वो उम्मीदवार है जिसका समर्थन किया जाना चाहिए। आखिर जिन मुद्दों के लिए इस शहर में हम कुछ लोग आवाज उठा रहे हैं छक्कड़ का समर्थन उन मुद्दों की अगली कड़ी है। इसी कारण मैं उमाकांत छक्कड़ के समर्थन में नुक्कड़ सभाओं में अपने विचार रख रहा हूँ। परिणाम चाहे जो भी रहे पर मुझे गर्व होगा कि मैंने एक अच्छे उम्मीदवार का समर्थन किया। हाँ इस पोस्ट के बाद मैं इस बारे में कुछ नहीं लिखूंगा और न ही फेसबुक पर छक्कड़ के गीत गाऊंगा किन्तु आप से एक प्रार्थना करूँगा कि अपने दिल पर हाथ रख कर पूछिए कि मौजूदा उम्मीदवारों में सब से उपयुक्त उम्मीदवार कौनसा है। क्या आप उस के कदम में अपने कदम मिलायेंगे?  

Thursday 2 October, 2014

पत्रकारिता

     एक अन्तराष्ट्रीय समाचार एजेंसी के प्रमुख से जब उन के काम करने का तरीका पूछा गया तो उन्होंने कुछ ऐसा कहा, “यदि किसी देश में सरकार गिर रही है तो हम उसे न तो गिराने में मदद करते हैं और न ही बचाने में।” अर्थात ये पत्रकारिता का धर्म है जो हुआ वो दिखाए न कि उस के होने या न होने में मदद करे। दो दिन से शोर मचा है कि राजदीप सरदेसाई को पड़ी। परन्तु पूरा विडियो देखने के बाद लगता है कि यह देसाई तो बिना सर का है! भीड़ में उस व्यक्ति का ये बर्ताव जिसे अति सहनशील होना चाहिए! ये तो खैर मनाईये श्रीमान् कि आप अमेरिका में थे वरना उत्तर भारत में कहीं रहे होते तो पब्लिक मार-मार कर आप का भूत बना देती। इतने सीनियर पत्रकार का ये व्यवहार! इतना ही नहीं सोशल मीडिया और टेलीविजन पर शोर मच गया कि राजदीप को पड़ गयी। ऐसा माहौल बना रहा जैसे कि कौवों की मय्यत हो रही हो। ऐसे में कुछ कौवों के साथ आम आदमी पार्टी के रूप में सरदेसाई को एक स्वाभाविक मित्र मिल गया जिसका एक सूत्रीय कार्यक्रम आजकल मोदी विरोध ही रह गया है (हालाँकि ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में शामिल होना एक अच्छा फैसला है)। बहरहाल बिना सर के देसाई से किसी प्रकार की सह्नाभूति न रखते हुए वहां उपस्थित जनता की सराहना की जानी चाहिए जिस ने बड़े संयम से काम लिया।  
    मुश्किल से सप्ताह भर पहले गुजरात के आणंद शहर में एक पत्रकार महोदय से मुलाकात हुई जो एक नामी अख़बार में काम करने के बाद आजकल स्वयं का समाचार पत्र निकाल रहे हैं। ये जान कर कि मैं भी प्रेस से जुड़ा हूँ वो सज्जन कुछ खुलने लगे। मैंने उनसे समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में आने वाली दिक्कतों की चर्चा की। उन के वचन थे कि वो 2004 में 300 रुपये ले कर आणंद आए थे और आज उन के पास शहर के पॉश इलाके में बंगला है, गाड़ी है, बैंक बलेंस है, सब कुछ है (क्षमा करें माँ के बारे में मैंने पूछा नहीं)। मैं सोच में पड़ गया कि महज 10 साल में ही फर्श से अर्श पर? परन्तु उन्होंने मेरे दिमाग का पेट्रोल ज्यादा नहीं जलने दिया, लगे खुलासा करने। ‘सर ख़बरें लगाने में कुछ नहीं है, कमाई तो ख़बरें रुकवाने में हैं।‘ ‘लोग सामने से बोलते हैं ये मत लगाओ, ये लगाओ।‘ येल्लो जी ये है पत्रकारिता। जी जनाब मेरे दिमाग में भी आप ही की तरह कुछ पत्रकारों के गाड़ी और बंगले घूम गए। एक तरफ बिना लालच के ईमानदारी से जो है वो दिखाते पत्रकार, तो दूसरी तरफ पैसे के पीछे भागते पत्रकार, दुकानों-जमीनों में दलाली खाते पत्रकार, चापलूसी करते पत्रकार, लोगों के कुसूर दबाते-उघाड़ते पत्रकार, ब्लैक मेलिंग करते पत्रकार, 500 करोड़ की संपत्तियों के मालिक पत्रकार! ये हैं आज की पत्रकारिता के सफ़ेद और स्याह पहलू! दुखद है कि स्याह पक्ष धीरे-धीरे सफ़ेद पर अपना रंग चढ़ाता चला जा रहा है। ऐसे में नई पीढ़ी के कुछ पत्रकारों की निर्भीकता और स्वाभिमान थोड़ी आस जगाता है वरना नेताओं पर से भरोसा उठा चुकी जनता के लिए पत्रकारों से मुंह मोड़ने में भी ज्यादा समय नहीं है और हैरानी नहीं होगी कि किसी दिन टीवी पर कोई सरदेसाई पिटता नजर आए।