poems

Wednesday 28 December, 2022

वीर बालदिवस

 जिस प्रकार सिखों ने गुरुओं के इतिहास और बलिदानों को स्मृति में रखा है उनकी इस के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए जबकि बाकी सनातन समाज ने इस स्तर की कोशिश नहीं की। इसे सिखों का ही प्रयास कहा जाना चाहिए कि आज गुरु गोविंद सिंह के परिवार के बलिदान के विषय में सारा भारत जानता है, और देश का प्रधानमंत्री उन पर 25 मिनट का भाषण देता है। वरना ऐसे कितने ही बलिदान भूल जाने दिए गए। यदि अपने शिष्यों और अपने पुत्रों में कोई फर्क ना मानना गुरुधर्म है तो "जो बोले सो निहाल" शिष्य के समर्पण की पराकाष्ठा है। यदि दो नन्हे बालक आतताइयों के सामने समर्पण करने से इंकार कर देते हैं तो सोचिए उस मां के बारे में जिसने उन्हें इतना मजबूत बनाया, वो दादी जिसने अपने पति और अपनी संतानो का बलिदान कर दिया। निसंदेह इस राष्ट्र की आत्मा की सही अर्थों में किसी ने रक्षा की है तो महिलाओं ने। उन मांओं ने, जिन्होंने अपने नौनिहालों को अपने दूध की लाज का वास्ता देकर शत्रु से लड़ने भेज दिया। उन वीरांगनाओं ने जो जलती ज्वाला में सिर्फ इसलिए प्रवेश कर गई कि उनकी राख समाज के मस्तक पर सजी रहकर उसे आत्मबल प्रदान करती रहे। उन पत्नियों ने जिन्होंने कभी आरती के थाल सजाकर अपने पतियों को विदा किया, तो कभी अपने मस्तक थाल में सजाकर प्रस्तुत कर दिए, तो कभी युद्ध से मुंह मोड़ कर आए पतियों के लिए घर के दरवाजे बंद कर दिए। 

पंजाब क्षेत्र में नित नए इस्लामी हमलों से लड़ते अधिकतर क्षत्रिय बलिदान हो गए और बचे-खुचे अन्य व्यवसायों में लग गए। जिस राजस्थान की माटी का दीपक शिवाजी के नाम से दक्कन में प्रकाश फैला रहा था और जो कालांतर में मराठों की मशाल बन गया, उसी राजस्थान के वीरों ने गुरु की सेवा में आकर पंजाब की धरती पर क्षत्रियत्व जगाया। छठे गुरु को शस्त्र विद्या सिखाने का क्रम मारवाड़ के राठौड़ राव जैता और राव सिगड़ा से प्रारंभ होकर गुरु गोविंद सिंह को बज्जर सिंह राठौड़ से होता हुआ आलम सिंह चौहान द्वारा साहिबजादों तक पहुंचा। गुरु गोविंद सिंह ने शस्त्र के महत्व को गहराई से समझा और इन योद्धाओं की मदद से पंजाब में क्षत्रियत्व पुनर्जीवित किया। फिर समाज का महत्व बताते हुए कहा "तुम खालसे हो, हिंदू धर्म। पंथ नानक को, छत्री करम।।" सामान्य लोगों को एक मजबूत सेना में खड़े करने का कारनामा करने के बाद ही तो उन्होंने कहा था "चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊं तां गोविंद सिंह नाम कहाऊँ।"

 कहानी इतनी लंबी करने का कारण यही है कि महापुरुष पैदा करने में पूरे समाज का योगदान होता है और जो समाज अपने महापुरुषों को विस्मृत नहीं होने देता वही फिर से महापुरुष पैदा करता है। इस दिशा में सिख सबको राह दिखा रहे हैं पर देखते हैं शेष सनातन समाज कब समझता है। #RSC 

Saturday 17 December, 2022

अहीर रेजिमेंट

 

अंग्रेजों के भारत पर शासन करने के अनेक हथियारों में से एक महत्वपूर्ण हथियार था जाति आधारित रेजिमेंट। इन सेनाओं को उन्होंने बड़ी चतुराई से भारत में इस्तेमाल किया। पहले भीमा कोरेगांव में पेशवा के खिलाफ महार लगाये, इधर  बीसवीं सदी में जलियांवाला नरसंहार के लिए गोरखा रेजीमेंट लगाई तो उधर 1857 के जेहाद को कुचलने के लिए सिक्ख सेनाओं का इस्तेमाल किया।  1857 का 'जिहाद' इसलिए क्योंकि बिहार और बंगाल के पुरबिया सैनिकों के अलावा इस विद्रोह में सब इस्लामी ही था। पेशवा पहले ही कंगाल हो चुके थे और झांसी की छोटी सी रियासत का कोई खास वजूद न था।  ग्वालियर, बड़ौदा, इंदौर जैसे मराठों के बड़े रजवाड़े और पूरा राजपूताना लगभग तटस्थ रहा, जब कि सिक्खों ने तो पूरा पूरा अंग्रेजों का साथ दिया। और ऐसा होता भी क्यों ना! अगर अंग्रेज भागता तो दिल्ली पर राज किसका आना था! मुसलमानों का ही न? मुस्लिम अति को ना तो मराठे भूले थे और ना ही राजपूत। 1857 के रूप में मराठों को पानीपत के मैदानों से अपनी महिलाओं का क्रंदन सुनाई दे रहा था, तो राजपूताना जौहर की ज्वाला की तपत फिर से महसूस करने लगा था। जाटों ने भी गोकुला के पूजनीय शरीर के टुकड़े भुलाए न थे। सिखों को भी तो अपने गुरुओं पर हुए अत्याचार अब तक याद थे, बल्कि  उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर अंग्रेजों को दिल्ली जीत कर दी। नारनौल के पास नसीबपुर के मैदान में हुई लड़ाई में नाम मात्र के अंग्रेज सैनिकों से मिल कर लड़ने वाली सिक्ख सेनाओं ने झज्जर के नवाब की सेनाओं को शिकस्त दी थी। विडंबना देखिए कि जाति आधारित सेना की सफल अंग्रेजी प्रयोगशाला, उसी नसीबपुर के मैदान से  एक और जाति आधारित रेजीमेंट की मांग के आंदोलन का प्रारंभ हुआ है और उसी दिल्ली में स्थित संसद में, उन ऊंचाईयों से चंद फर्लांग दूर जिन से सिख और गोरखे तोपों से नगर की दीवारों पर कहर ढा रहे थे, एक सांसद इस मांग का पुरजोर समर्थन कर रहा है।

वैसे भी जब सिख, राजपूत, महार, डोगरा, जाट आदि रेजीमेंट हैं तो अहीर रेजिमेंट न बनाने की अंग्रेजों की गलती को क्यों ना दुरुस्त कर ही लिया जाए। साथ ही गूजर रेजीमेंट, बनिया रेजीमेंट, खाती रेजीमेंट, कुर्मी रेजिमेंट, नायर रेजीमेंट और उस से भी पहले ब्राह्मण रेजीमेंट क्यों न बनाई जाए, आखिर परमवीर चक्र विजेताओं में ब्राह्मणों की संख्या तीसरे नंबर पर है।

यही होता है जब आप स्वयं को अपने गौरवशाली अतीत से अलग कर लेते हैं। धर्म को अफीम कहने वाला वामपंथ अपनी भांग आपको पिला कर सफलतापूर्वक आप से आपके महापुरुषों को पराया बता कर कचरे में फिंकवा देता है। फिर शुरू होता है महापुरुष तलाशने का दौर, तो कभी आप उस कचरे की तरफ दौड़ते हैं और कभी वामपंथ की और। वैसे भी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शारीरिक, सुरक्षा और अपनेपन की आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद मनुष्य को सम्मान की आवश्यकता महसूस होती है। और हां अहीर रेजिमेंट की मांग को मेरा समर्थन है और भविष्य में उठने वाली अन्य जातियों की रेजिमेंटों को मेरा अग्रिम समर्थन साथ ही अंग्रेज द्वारा भारत में छोड़े गए अजर अमर प्लास्टिक के कीड़े के सफल इंप्लांट के लिए फिरंगी को सात सलाम। #RSC

Thursday 6 October, 2022

धर्म पर वामपंथी संकट

 'दादा जी का परसों श्राद्ध है कृपया पधार कर हमारे पूरे परिवार को अनुग्रहित करें'  मैंने उनसे कहा। वह बोले, 'मैं किसी के यहां जीमने नहीं जाता' 'तो फिर मैं किसी जाट या किसी ठाकर को बुला लूं!' यह बात सुनकर वह थोड़े विचलित हुए, चेहरे के भाव बदले और हल्का सा मुस्कुरा कर बोले 'ठीक है, मैं आऊंगा'। मैं सोचने लगा कि वामपंथ की जड़ें कितनी गहरी पैठ चुकी हैं जाने अनजाने में हर कोई इनके हाथ का औजार बन गया। ब्राह्मण, ब्राह्मण होने पर शर्मिंदा है अपना शास्त्रीय कार्य करने पर हिचकता है, लज्जित है और दूसरे उसे समाप्त कर देना चाहते हैं। स्कूलों में मास्टरों के गैंग एससी/एसटी एक्ट के बुलडोजर पर सवार, 'रै बामणिया- रै  बामणिया खा ले हराम का' और ब्राह्मण अध्यापक बेचारा अपमान का घूंट पीकर मुस्कुरा देता है। 'गया कनागत आया नोरता, बामन रह गया खाज खोरता! खी खी खी' और ब्राह्मण इग्नोर करके निकल लेता है। जबकि हराम का खाने का ताना देने वाले इन गैंगस्टरों ने इस ब्राह्मण को एक टॉफी भी नहीं खिलाई कभी।

 500 साल उन्होंने और 200 साल इन्होंने जोर लगा लिया लेकिन सनातन धर्म को खत्म ना कर पाए। वामपंथी क्योंकि पढ़े-लिखे निकले उन्होंने रिसर्च किया और पाया कि ब्राह्मण खत्म तो सनातन खत्म। आखिर हजारों सालों तक ज्ञान, गणित, खगोल, योग, आयुर्वेद आदि का खजाना, ब्राह्मणों ने ही तो बचा के रखा। ब्राह्मण ही तो था जो अपने जजमान के लिए अपने सजातीय से भी भिड़ बैठता था। 'नाई-बामण-कूकरो देख सकै ना दूसरो' कहने वाले समाज को भी ब्राह्मण का समाज के प्रति समर्पण नजर ना आया और वह भी वामपंथियों के हाथ का हथियार बन बैठा। समाज को छोड़ो खुद ब्राह्मण भी यह बात न समझ पाया! वह कुंठित, पीड़ित और खिन्न है। आज वो वशिष्ठ, अत्री, गौतम, विश्वामित्र नहीं, परशुराम बनना चाहता है। सहस्त्राब्दियों की जांची परखी ज्ञान की श्रेष्ठता अब उसे तुच्छ लगने लगी है। उसका झुकाव धन और बल की तरफ है। परशुराम मंदिर, परशुराम चौक, परशुराम अवार्ड, परशुराम संस्था.. पूरा सनातन समाज उसे दुष्ट लग रहा है जिसका उपचार उसकी नजर में फरसा है। वह राम को भूल रावण में नायक खोज रहा है, उसके कुकृत्यों को जस्टिफाई कर रहा है!  सच में सनातनी समाज वामपंथ के दुष्चक्र में फंस चुका। इस्लामिक और ईसाई सांस्कृतिक आक्रमणों का भी इलाज हो जाएगा पर वामपंथ के इस षड्यंत्र का क्या? फिलहाल तो इस से निकलना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। सनातन को बचाना है तो ब्राह्मण और ब्राह्मणत्व को नष्ट होने से रोकना ही होगा और इसके लिए पूरे सनातन समाज को प्रयास करना होगा और हाँ यहां भी ब्राह्मणों को ही आगे बढ़कर राह दिखानी पड़ेगी। शेष फिर कभी #RSC