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Wednesday 11 January, 2017

तेजबहादुर तुझे सलाम

लीजिए साहब सशस्त्र बलों में चल रही हलचल का ताज़ा मुद्दा आपके सामने है। आपके पास आज़ादी है कि आप गिरते पारे के बीच कॉफी का कप हाथ में ले कर टीवी पर चलते चाय के प्याले में आते तूफ़ान को महसूस करें। आपके पास आज़ादी है कि फेसबुक की दीवारें तेज बहादुर के समर्थन में काली कर दें। आपके पास आज़ादी है कि उसकी 'अनुशासन हीनता' पर चिंता व्यक्त करें। आपके पास ये भी आज़ादी है कि पाकिस्तान समेत दुनिया भर में वायरल हो चुकी जंग बहादुर की 'अनुशासन हीनता' पर नाराज़ हों। पर तेज बहादुर और उस जैसे लाखों सैनिकों के पास इनमें से कोई आज़ादी नहीं। आपमें से बहुतों को चिंता है कि इस से सेना की छवि ख़राब होगी। वैसी ही चिंता जैसी भ्रष्टाचार में सीबीआई द्वारा गिरफ्तार वायुसेना के पूर्व प्रमुख को है। अफ़सोस है कि वास्तविकता से ज्यादा चिंता सपने (छवि) की है, आश्चर्य भी है! तेजबहादुर जैसे साधारण सैनिकों को आज़ादी नहीं कि वो अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकें। अनुशासन की दुहाई के बीच प्रश्न ये है कि क्यों एक सैनिक को आखिर सोशल मीडिया का सहारा लेना पड़ा? प्रश्न ये भी है कि क्या छोटे रैंक की सुविधाओं, समस्याओं के निवारण और नीतियों के निर्धारण में उनकी भूमिका है? एक अफ़सर मित्र ने कुछ समय पहले सेनाओं में अनुशासन के नाम पर चलती 'जबर्दस्ती' पर एक जुमला कहा था 'नीयत सही तो नियम सही' मैंने उसका सख्त विरोध यह कह कर किया कि इसका सीधा अर्थ है 'नीयत गलत तो नियम गलत' तेजबहादुर घटना नियम के इसी खेल का  परिणाम है। असल में जंग बहादुर जैसे साधारण सैनिक 'नीयत और नियम' के खेल का शिकार हैं। है कोई तंत्र जो उन्हें अफसरों की मनमानी से बाहर निकाल सके? जवाब हर बार न में है। लाखों सैनिक अच्छे-बुरे, ईमानदार-बेईमान अफसरों की मनमर्जी पर रहम, अन्याय और अत्याचार के वातावरण में देश की सेवा करने को बाध्य हैं! ज़ुकाम की दवा न मिलने पर हड़ताल पर जाने वाली कर्मचारी यूनियनों के बीच सैनिक के पास न यूनियनों का समर्थन है न हड़ताल की 'सुविधा'। तेज बहादुर की हिम्मत काबिले तारीफ़ इसलिए है कि इस तरह के विरोध का अपनों से ही समर्थन नहीं मिल पाता। कारण है अनुशासन के नाम पर अंदर तक बैठा डर। सेना में अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाला व्यक्ति अकेला रह जाता है। लोग उस से बात करने से डरते हैं कि कहीं कोई उनकी चुगली 'साहब' से न कर दे। ज़रा उस इंसान का ज़िगर देखिए कि जिसके लिए यूनिट का कमांडिंग अफ़सर पूरी यूनिट को संबोधन में ये कहे कि इस व्यक्ति से जो भी बात करता दिखाई दिया उसका मैं जीना हराम कर दूंगा। इस तरह की चीजें व्यक्तिगत रूप से भोगने के बाद मैं ये जानना चाहता हूँ कि क्या महज़ 'छवि' के डर से सेनाओं में अन्याय जारी रहने दिया जाए? क्या सशस्त्र सेनाओं का ढाँचा इतना नाजुक है कि एक वीडियो उसे ढहा देगा?
भारत में सैनिक प्रशासन मूलतः अंग्रेजों की देन है। अंग्रेजी शासन में यूरोपियन अफ़सर होता था और भारतीय सैनिक। भारत पर शासन करने के लिए अंग्रेजों के लिए ज़रूरी था कि वे भारतीयों के स्वाभिमान को कुचल कर रखें। उसके लिए तरह तरह के नियम बनाए गए जो कि साधारण सैनिक को कदम कदम पर अपमानित करते थे। आज़ादी के बाद वही प्रशासनिक ढांचा थोड़े बहुत फेर बदल के बाद अपना लिया गया इसतरह देशी सैनिक को अपमानित करने वाले तरीके चुपचाप सेना की नीतियों में घुस गए। आप ताज्जुब करेंगे कि शादी के रिकार्ड हेतु अफ़सर की होने वाली पत्नी के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है virgin और जवान के लिए है spinster! सैनिक बेसों के द्वारों पर लिखा रहता है कि साइकिल सवार उतर (dismount) कर जाएं। क्योंकि अंग्रेज की होने वाली पत्नी कमसिन है, कुंवारी है और भारतीय की पत्नी अपमान की हक़दार है अतः सिर्फ गैर शादीशुदा है जो कि विवाह की सामान्य उम्र पार कर चुकी है। क्योंकि अफ़सर गाड़ी में जा रहा है और द्वार खुलने में हुई देरी पर झाड़ पिलाने का अधिकारी है और जवान सड़क पर चलते वाहनों में सब से निरीह साइकिल पर सवार हो कर सब के लिए जानलेवा बना हुआ है। इन दोनों नियमों से शासक और शासित के हाल का अंदाज़ लगाया जा सकता है। देश आज़ाद हुआ तो अफ़सर की चमड़ी के सिवा कुछ नहीं बदला और नतीजा है जंग बहादुर! इतना ही नहीं भारतीय अफसरों ने जवान और JCO के अधिकारों को षड्यंत्र की तरह कम ही किया है। 20-25 साल की सेवा के बाद भी नॉन कमीशंड सैनिक 4-5 साल की सेवा वाले सैनिक के कार्य कर रहा है।
बड़ा मुद्दा ये है कि क्या सेना, देश और सरकार इस गंभीर मसले को छवि खराब होने के भय से दबा दें और तेजबहादुर को उसके किए की सजा मानसिक परेशानी या फिर अनुशासन हीनता के रूप में दें या फिर सकारात्मक दृष्टिकोण के तहत सेनाओं की संरचना में परिवर्तन करें!
समय की मांग है कि सेना गुलामी के दौर से बाहर निकले। गैर कमीशन प्राप्त सैनिकों को उन की सेवा के हिसाब से अफसरों के समान  जिम्मेदारियां, सुविधाएं और अधिकार दे। अफसरों और जवानों के लिए अलग मेस की व्यवस्था समाप्त कर के सभी के लिए विकसित राष्ट्रों द्वारा अपनाई जाने वाली व्यवस्था अंगीकार करे। साधारण सैनिकों की समस्याओं और उन से सम्बंधित नीतियों में स्वयं उनकी पर्याप्त भागीदारी सुनिश्चित हो।
निडरता से इन मुद्दों पर बहस का आगाज़ करने पर जंग बहादुर को सलाम! तेज बहादुर तुम आज मेरे लिए हीरो हो। मुझे गर्व है कि तुम मेरे जिले से हो।
 आइए हम सब मिल कर सकारात्मक नज़रिये से तेज बहादुर के उठाए सवालों के हल ढूंढें।

मेरे हौसले को सराहो, मेरे हमराही बनो।
मैंने एक शमा जलाई है हवाओं के ख़िलाफ़।।

कृपया संबंधित मुद्दे पर 6 नवम्बर 2016 का मेरा ब्लॉग भी देखें http://navparivartan.blogspot.in/2016/11/blog-post.html?m=1