poems

Sunday 13 October, 2013

आआपा का स्यापा

आम आदमी पार्टी की चर्चा करने के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन से अच्छा मौका क्या हो सकता है। जेपी जी ने सम्पूर्ण क्रांति के लिए पूरे देश को उस समय जगाया जब इलेक्ट्रोनिक और सोशल मीडिया तो दूर की बात, समाचार पत्रों पर भी पाबन्दी लगा दी गयी थी। सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा ले कर जनता पार्टी सत्ता में आई। परन्तु साल भर में देश को बदलने का दावा करने वाली पार्टी का साल भर में ये हाल हो गया कि देश के साथ-साथ जेपी को भी जनता पार्टी ही सब से बड़ी समस्या नजर आने लगी और फिर इस आन्दोलन से निकले मुलायमों, पासवानों और लालुओं ने आने वाले समय में भ्रष्टाचार का ऐसा कहर बरपाया कि इन्सान तो इन्सान पशुओं तक को नहीं बक्शा।

अन्ना आन्दोलन के रूप में देश के सामने फिर मौका आया। हालात ऐसे बने कि आम आदमी पार्टी के नाम से एक और राजनैतिक दल बन गया और सहमति के बावजूद अंतिम समय में अन्ना जी का विवेक जागा तथा उन्होंने खुद को पार्टी से अलग कर के अपने आप को जेपी बनने से बचा लिया। मेरा सदा ये मानना रहा है कि प्रचलित व्यवस्था चाहे कितनी भी ख़राब हो उसे तब तक चुनौती नहीं देनी चाहिए जब तक उस का स्थान लेने के लिए आप के पास उस से बेहतर व्यवस्था न हो। परन्तु लगता है कि आआपा के जनकों ने इस और ध्यान नहीं दिया और एक इंस्टेंट पार्टी बना कर खडी  कर दी।  भोजन और विवाह तक में इंस्टेंट के आदि हो चुके समाज को इंस्टेंट विकल्प सुझाया गया। परन्तु ये जनक ‘इंस्टेंट’ संस्कृति के साईड इफेक्ट्स को भूल गए। अपने अधिकतर साथियों को गँवा चुकी आआपा से किसी चमत्कार की उम्मीद मुश्किल ही है। हाँ अवश्य ही एक राजनैतिक विकल्प की जरूरत है परन्तु ऐसा लगता है कि इस विकल्प को आकार देने में बहुत जल्दबाजी की गयी है। ऐसी ही एक जल्दबाजी देश की आजादी के समय की गयी थी उस की कीमत देश के टुकड़ों के रूप में चुकानी पड़ी, जिस का दर्द अब भी नहीं गया। जैसे आजादी के समय देश के नेताओं को डर था कि कहीं अंग्रेज देश छोड़ने से इंकार न कर दे, ऐसा लगता है कि उसी तरह आआपा बनाने वाले साथियों को लग रह था  कि कहीं उन के सहयोग के बिना ही भ्रष्टाचार ख़त्म न हो जाये। कहीं ऐसा न हो कि आआपा भी भ्रष्ट राजनेताओं की एक पूरी जमात खड़ी कर दे और उस से निपटने को फिर किसी अन्ना को रामलीला मैदान में अनशन करना पड़े। जिस तरह के समाचार आ रहे हैं ऐसे में बहुत मुमकिन है कि आआपा के जहाज में मौकापरस्त सवार हो कर इसे डूबा दें और ऐसा होना तय है क्योंकि मौकापरस्त हवा का रुख भांप अपने फायदे के लिए मिल कर काम करने में सक्षम होते हैं और ईमानदार अड़ियल और घमंडी बने रह कर समाज का बहुत बड़ा नुकसान कर देते हैं। एक तरफ जनलोकपाल आन्दोलन में इकठ्ठा हुए देशभक्त और ईमानदार लोग आआपा से दूरी बना चुके हैं और वहीँ दूसरी और RTI ब्लेकमेलरों तथा भ्रष्ट लोगों के पार्टी से जुड़ने की ख़बरें आ रही हैं। हालांकि दिल्ली जा कर आआपा में शामिल हुए बिना ही किसी अच्छे उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार करने पर मैं गंभीरता से विचार कर रहा हूँ परन्तु इस जल्दबाजी ने मेरे जैसे अनेक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं को अब तक आआपा से बाहर रोके रखा है। 

Saturday 12 October, 2013

बर्बाद गुलिस्ताँ


नारनौल शहर को बर्बाद करने में किस का हाथ है? नगर परिषद् का, शहरियों का, या फिर प्रशासन का? घंटे भर की बारिश में ही आखिर क्यों शहर जलमग्न हो जाता है? कारण है प्राकृतिक जलाशयों की समाप्ति. नगर परिषद्  की नाक के नीचे पानी भरा रहता है. इस क्षेत्र का वर्षा का पानी टेलिफोन एक्सचेन्ज के पीछे स्थित तेलिया जोहड़ में जाता था. तेलिया जोहड़ के सभी जलमार्गों को अवरुद्ध कर के इस जोहड़ का गला दबा दिया गया. आधे जोहड़ को तो मिट्टी से भर दिया गया और बाकी आधा दूषित पानी से भरा है और वहां जलकुम्भी का वास है. स्वच्छ जल से भरा रहने वाला यह जोहड़ अनेकों विशाल वृक्षों और प्राणियों का निवास स्थान था. परन्तु इस खूब सूरत और विशाल तालाब की हत्या कर के इसे एक राजनैतिक पार्टी द्वारा संचालित ट्रष्ट को सौंप दिया गया. नतीजा है जमाल पुर और नगर परिषद् के आसपास पानी इकठ्ठा होना. सेन चौक जलभराव का अगला गवाह है. यहाँ भी एक छोटा सा जोहड़ था और नयी तथा पुरानी सराय का पानी यहाँ आ कर इकठ्ठा होता था. इस जोहड़ को रोक कर मकान बना दिया गया.  नलापुर और मोहल्ला रावका में पानी खड़ा होने का कारण है छिप्पी जोहड़ को बंद कर के वहां शॉपिंग काम्प्लेक्स खड़ा करना. रेवाड़ी रोड पर बरसाती जल के प्राकृतिक मार्गों को अवरुद्ध कर के बस स्टैंड के पीछे स्थित जोहड़ के स्थान पर कालोनी बन जाना है. लालची भूमाफिया, भ्रष्ट नगर परिषद्, बधिर प्रशासन और आँखों पर पट्टी बांधें मूक नगर निवासी इन जलायाशों के हत्यारे हैं.
असम में एक शहर है तेजपुर. हमारे नारनौल की तरह ही गौरव शाली अतीत लिए. ब्रहमपुत्र नदी के किनारे बसे तेजपुर की भोगोलिक स्थिति भी हमारे जैसी ही है. तेजपुर में भी बहुत सारे जलाशय थे पर उन्हें लालच की भेंट नहीं चढ़ने दिया गया बल्कि वहां के जागरूक शहरियों के प्रयास ने उन का सौन्दर्यीकरण कर के उन्हें शहर का गौरव बनाया. किनारों पर पार्क, लाईटें, सफाई की व्यवस्था की गयी. और हम लोगों ने इस का उलट किया. शहर के बीचों बीच बह रही छलक नदी को मार कर उसे गंदे नाले में बदल दिया और प्राकृतिक जलाशय लालच की भेंट चढ़ गए. हमें अपनी एतिहासिक और प्राकृतिक विरासत सँभालना सीखने के लिए विदेश जाने की जरूरत नहीं है बल्कि तेजपुर जैसे अनेकों उदाहरण हमारे देश में ही हैं. आईये थोडा सा समय अपने शहर के बारे में सोचने को भी दें.  अपने शहर को बचाने के लिए लाइक करें  https://www.facebook.com/groups/150259955163830/      

Wednesday 9 October, 2013

पुनर्मूषको भव:

 
बचपन में सुनाई जाने वाली हजारों साल पुरानी कहानियां जब तब सार्थक हो उठती हैं। कल ही की बात है। आवारा सांडों से चिंतित एक साथी गोपाल गौशाला गए। वहां से उन्हें जवाब मिला कि सांड पकड़ना नगर परिषद् का काम है। ये भाई साहब नगर परिषद् प्रधान पति के पास गए।(चलिए ये भी अच्छा हुआ कि राष्ट्रपति के बाद किसी दूसरे मर्द पद जा सृजन हुआ है।) प्रधान पति का कहना था कि गौशाला प्रधान सब कुछ लूट कर खा रहा है उस से कहो वो पकडवाएगा। येल्लो जी हम तो अब तक प्रधानपति को ही सब से बड़ा कलाकार समझते रहे पर इन से भी ताकतवर कोई है। कहीं फिर उन से भी बड़ा कलाकार ढूंढना पड़े और अंत में यही हो कि चुनाव की छड़ी घूम जाये और जनता कहे पुनर्मूषको भवः।

Tuesday 8 October, 2013

समाज के जुगनू


एक तरफ सैंकड़ों एकड़ जमीन और करोड़ के आस पास आमदनी वाली गोपाल गौशाला के प्रधान के चेहरे पर गौसेवा का प्रताप नहीं बल्कि कन्धों पर बेईमानी, भ्रष्टाचार, बंदरबांट और भाई भतीजा वाद के इल्जामों का बोझ साथ ही बिना किसी विदेशी महिला की पादुकाएं उठाये महज जुगाड़ बाजी द्वारा प्रधान पद पर चिपके रहने के आरोप। वहीँ दूसरी ओर नाम की ही नहीं बल्कि सचमुच में ही अनाथ “अनाथ गौशाला” के नौजवान और जुनूनी प्रधान के मुखमंडल पर संतोष और कर्म का तेज। ये बात भली भांति तब समझ में आती है जब आप दोनों जगह जाते हैं और वहां की कार्यप्रणाली देखते हैं।
कल शाम पितृ पक्ष की अमावस्या के पकवानों का सेवन कर के मरणासन्न गाय को SPCA की एम्बुलेंस में कुछ राहगीरों और साथियों की मदद से पहुंचा कर जब मैं वापस आ रहा था तो उस गाय के बचने की उम्मीद का दिया बुझने को ही था। वही विचार मन में लिए मैं सो गया और जब सुबह उठा तो वही गाय दिमाग में कौंधी। गौशाला से जो नंबर मैं ले कर आया था उसे मैंने फीड करने में गलती कर दी थी। अपनी ई-बाइक ले कर जब मैं गौशाला पंहुचा तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब मैंने उस गाय को सिर्फ खड़े ही नहीं बल्क़ि घुमते और चरते पाया। उस की कल की हालत के हिसाब से ये किसी चमत्कार से कम न था क्यों कि डाक्टरों की भी राय थी कि ये बचेगी नहीं। ये हुआ कैसे! मेरा कौतुहल स्वाभाविक था। पता लगा उसी नौजवान प्रधान ने रात भर उस गाय का उपचार किया और इस लायक बनाया कि मैं ‘चीज’ कहते हुए उस की तस्वीर उतार सकूं।
प्रधान जी तो वहां नहीं मिले पर वहां उपस्थित एक कर्मचारी ने मुझे एक और गाय से मिलवाया जो सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल मिली थी, उस के बचने की कोई उम्मीद न थी उसका जबड़ा और टांगे टूट चुकी थीं परन्तु इसी प्रधान ने उस की सेवा शुश्रूषा कर के उसे नया जीवन प्रदान किया। और आज वह अपने पैरों पर खड़ी थी हालाँकि उसे पूरी तरह ठीक होने में थोडा और समय लगेगा।

मैंने वहां मौजूद सभी कर्मचारियों और फ़ोन कर के प्रधान का शुक्रिया अदा किया और उन के जज्बे को सलाम कर के चला आया। चारों तरफ फैसे भ्रष्टाचार और आपाधापी के अंधेरों में जब कोई जुगनू चमकता दिखता है तो लगता है कि उम्मीद अभी जिन्दा है। 

Monday 7 October, 2013

गऊ ग्रास

ट्रेन में मिले एक बुजुर्ग ने एक बार कहा था कि माता, भारत माता और गऊ माता की जितनी 'मिट्टी ख़राब' हुयी है इतनी किसी की नहीं हुयी। फिर भी इन माताओं की 'सेवा' में 'सेवक' लगे रहते हैं। जैसे mother's day पर माँ को शुभकामना 'कार्ड' भेजना, स्वतत्रता दिवस और अनशनों में तिरंगा फहराना और पितृपक्ष में गऊओं को गऊ ग्रास देना। पूरे साल कूड़ा करकट में मुंह मार  कर पोलीथीन खाने वाली गायों की पितृ पक्ष में मस्ती रहती है। ये 'मस्ती' गौओं को भी काफी महंगी पड़ती है। तले हुए भोजन का स्वाद गौओं पर भारी पड़ता है और हजम न होने की वजह से सैंकड़ों गायें दम तोड़ देती हैं। कैसी विडम्बना है कि गौदान जैसे महान उपन्यास के उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु भी पेट ख़राब होने से हुयी थी। कहते हैं कि पूरी जिंदगी भुखमरी में काटने के बाद अंतिम समय में मिलने वाली रोयल्टी से देशी घी की जलेबियाँ खाने के कारण उन को पेशिच हो गयी थी। कुछ देर पहले ऐसी ही एक बीमार गाय की सूचना एक साथी द्वारा मिलने पर पहुँचने पर पाया कि दो  दिन पहले  गयी पितृ पक्ष की अमावस्या का ‘भोज’ खाने से उस की ये हालत हुयी है। मेरे पहुँचने तक उसे कुछ उपचार दिया जा चुका था परन्तु उस की हालत चिंताजनक थी। घुर्र-घुर्र करके गुजरती बाईकों पर निरीह प्राणी पर नजर डाल कर वहां से गुजरने वाले हर आदमी में मुझे उस गाय की ये हालत करने वाले की शक्ल नजर आ रही थी। वहां से गुजरती एक वृद्धा के वहां रुक कर उस की हालत पर चिंता प्रकट करने का कारण मुझे जल्दी ही समझ आ गया जब मुझे पता चला कि उस के घर में गाय है। SPCA की एम्बुलेंस ला कर उसे गौशाला में पंहुचा तो दिया है परन्तु वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है। जीवन और मृत्यु ऊपर वाले के हाथ में है तो निरीह जानवरों को मरणासन्न करना नीचे वालों के हाथ में। अफ़सोस की बात है कि हिन्दू धर्म में परम्पराओं का स्थान आडम्बर ने ले लिया। पूरे साल दुत्कारे जाने वाली और कूड़ा खाने वाली गायें पितृ पक्ष में भगवान हो जाती हैं।
फेसबुक पर गौवध पर मुसलमानों को पानी पी-पी कर कोसने वाले सज्जन ऐसे मौकों पर मुहं पर ऊँगली रख लेते हैं। मूल प्रश्न “आखिर गौवध क्यों” अनुत्तरित ही रह जाता है। अपने आप में एक अर्थव्यवस्था, गऊ को बाजारवाद ने हाशिये पर ला कर खड़ा कर दिया है। अफ़सोस इस बात का है कि भजन संध्याओं, जागरणों और कलश यात्राओं पर पानी की तरह पैसा बहाने वालों को अक्ल नहीं आ रही है। ये समझने में न जाने कितना समय लगेगा कि गायों का भला न गौशालाओं में होगा, न पितृपक्ष में गौग्रास खिलाने से और न ही काटने वालों से बचाने से। गाय को उस के घर, उस के खूंटे पर वापस लाना होगा।
गाँव जाने पर ब्लैक में मिलते रसोई  गैस सिलेंडरों का रोना रोते कुछ नौजवानों के सामने मैंने एक योजना रखी थी कि पांच परिवारों की एक सोसायटी बनायी जाये तथा लगभग आठ दुधारू पशु रखे जाएँ। हर गाँव में पांच घरों में दो बेरोजगार व्यक्ति बड़े आराम से मिल जायेंगे उन्हें काम पर लगाया जाये जिस के बदले में उन्हें वेतन दिया जाये। गोबर पर आधारित बायोगैस संयंत्र लगाया जाए। इस प्रकार इन पांच घरों में न तो दूध की कमी होगी और न ही इंधन की। बचे हुए दूध और खाद से आय होगी सो अलग। इस के अलावा तीन वर्ष बाद से मवेशियों को बेचने पर दो से तीन लाख की आमदनी हर वर्ष होगी सो अलग। मेरी बात ये कह कर हवा में उड़ा दी गई कि आप पांच घरों की कहते हो यहाँ एक घर में ही लोग मिल कर नहीं रह रहे। मेरा जवाब था कि नहीं रह सकते तो फिर खरीदो ब्लैक में रसोई गैस।
गौरक्षा के लिए इस के अलावा भी एक योजना चलायी जा सकती है। अक्सर पशु पालक के सामने एक समस्या होती है कि उन दिनों में क्या हो जिन दिनों में पशु दूध नहीं दे रहा। इस समस्या को गौशालाओं की मदद से हल किया जा सकता है। जैसे ही गाय दूध देना बंद करे उसे गौशाला पंहुचा दिया जाये। गौपालक से हर महीने उस के भरण पोषण का खर्चा लिया जाये और उस के ब्याने पर गाय उस के मालिक को वापस दे दी जाये। बदलते परिवेश में थोडा बहुत फेर बदल तो करना ही होगा। इस तरह की योजनाएँ चलाने से ही गाय रुपी अर्थव्यवस्था को बचाया जा सकता है। और यदि गाएं बच गयीं तो गाँव भी बच जायेंगे और गाँव बचे तो ये महान देश और इस की पुरातन संस्कृति बच जाएगी वरना विदेशी अर्थव्यवस्थाओं की गुलाम शोषित मजदूरों और शोषक पूँजीपतियो की एक जमात सारी मान्यताओं और संस्कारों को कुचल कर सामने खड़ी दिखाई देती है।
बहरहाल गाय को गौशाला में छोड़ कर वापसी में रास्ते में हो रहे सत्संग में भजन चल रह था ‘यमुना किनारे गऊएँ चराए घनश्याम’। मेरे मन में जमा हुआ रोष क्षोभ में बदल गया


Wednesday 2 October, 2013

फेसबुक्कड़ बुद्धिजीवी

हर चीज का जमाना होता है। एक समाय था जब एक पत्थर उखाड़ो उस के नीचे तीन नेता निकलते थे। आज समय है एक पत्थर  उखाड़ो उस के नीचे पांच बुद्धिजीवी निकलते हैं। पर शर्त ये है कि ये पत्थर  आप को फेसबुक में उखाड़ना होगा। वाकई इन्टरनेट और सोशल साइटों ने आम आदमी को अपनी भावनाएं प्रकट करने का कितना अच्छा मंच दिया है। अक्सर ये बुद्धिजीवी किसी न किसी तरफ झुकाव वाले पाए जा रहे हैं। इन में ऊर्जा खूब है पर अध्यययन की कमी है। अध्ययन है तो वो भी पूर्वाग्रही। कोई मुसलमानों को गाली दे कर हिन्दू धर्म को महान बता रहा है, तो कोई महाशय हिन्दू के खिलाफ बोल कर खुद को सेक्युलर साबित करने पर तुले हैं। कुछ कुंठित हैं और इतने कुंठित कि अपने पूर्वजों और संस्कारों को भी गालियाँ देने, कोसने में में उन्हें गुरेज नहीं। कुछ अपने गौरवशाली अतीत, जिस में उन का लेशमात्र भी योगदान नहीं, के नीचे दबे जा रहे हैं। कुछ कट्टरवादी इतने प्रतिभावान कि जिन में समाज को दिशा देने की आपार सम्भावनाएँ दिखाई देती हैं और कमाल की बात न जाने क्यों मुझे उन के कट्टर होने में इतना खतरा नजर नहीं आता जितना कुंठित बुद्धिजीवियों से। शायद इस लिए कि मेरा मानना है कि समाज में कुंठित व्यक्ति सब से खतरनाक होता है। बहरहाल इस दुनिया में कुछ लोग इतने सुलझे हुए हैं कि उन का एक-एक शब्द कई पुस्तकों जैसा है। पर जैसा ज़माने में सदा होता रहा है उन की आवाज हो-हल्ला मचाने वालों की आवाज में दब जाती है। पर असल में ये लोग वो लोग हैं जिन कि  बात सुनी जानी चाहिए और यही वो बात है जो समाज के लिए सही और सम्यक रास्ता तैयार करेगी। मैं आभारी हूँ इन्टरनेट क्रांति का कि मैं अपने छोटे से जीवनकाल में मानवीय संवेदनाओं से भरे इतने रंगबिरंगे विचार पढ़ पर रहा हूँ। ये अहसास होली के बहुरंगी उत्सव जैसा है। चलिए फिर लौटें अपने फेसबुक की वाल पर इस उत्सव के नए रंग में भीगने को। 

Wednesday 25 September, 2013

धर्मान्तरण

साजिद मेरा पुराना साथी है। जितना अच्छा वो क्रिकेट और हॉकी का खिलाडी है उतना बेहतरीन इन्सान भी है। मेरे एक 2010 में लिखे ब्लॉग पर उसे इस बात पर आपत्ति है कि भारत में इस्लाम में धर्मान्तरण जबरदस्ती हुआ। उस का कहना है कि ये ठीक है कि भारत के मुसलमान पहले हिंदू थे पर ये धर्म परिवर्तन कहीं भी जबरदस्ती नहीं हुआ। इस के अलावा उसे ये भी शिकायत है कि बेगम हजरत महल को झांसी की रानी जितना महत्त्व नहीं मिला। उस के अनुसार इतिहास को पूर्वाग्रह से लिखा गया है।
आज वो महान दिन यानि 11 सितम्बर है जिस दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में कहा था कि जिस प्रकार सभी नदियाँ समंदर में समा जाती हैं उसी प्रकार सभी धर्म भी एक ईश्वर में समा जाते हैं। इस में कोई शक नहीं कि सब धर्मों का सार एक ही है और सभी में लगभग एक सी ही बातें बताई जाती हैं। परन्तु इतिहास का सही ज्ञान और विश्लेषण जरूरी है। इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करना या फिर अपनी सुविधानुसार ढालना कालांतर में अनेक विषमताओं का कारण बन सकता है। कुछ ही समय पहले ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के एक मंत्री नेजो कि अहमदीनेजाद के रिश्तेदार भी हैंकहा था कि मेरे लिए इस्लाम से बढ़कर ईरान है क्यों कि ईरान का इतिहास पाँच हजार साल से ज्यादा पुराना है और इस्लाम का उदय हुए महज पंद्रह सौ साल हुए हैं। मेरे प्रिय अनुज साजिद का कहना है कि भारत में करीब हजार साल मुगलों ने राज किया परन्तु सभी लोगों का धर्मान्तरण नहीं हुआ ये इस बात का सबूत है कि धर्म परिवर्तन जबरदस्ती नहीं हुआ। मेरे विचार से ऐसा कहना भारी भूल है। भारत में मुस्लिम शासकों का शासन लगभग छह सौ साल रहा। इस में मुग़लों का हिस्सा लगभग ढाई सौ साल का है (बाकी के सौ साल तो मुग़लों का शासन दिल्ली के आस पास ही रह गया थाभारत में मुस्लिम आक्रान्ताओं का पहला हमला आठवीं शताब्दी में सिंध में हुआ। उस के बाद अनेकों हमले हुए और ये सभी हमले जेहाद यानि धर्मयुद्ध की शक्ल में थे। सैनिकों को वेतन और लूट के अलावा ये भरोसा दिलाया जाता था कि वे जो भी कर रहे हैं धर्म के लिए कर रहे हैं। हालाँकि हमलावरों को धर्म से कुछ खास लेना देना नहीं था परन्तु सैनिकों के उत्साह को बनाये रखने और खलीफ़ा के अनुमोदन के लिए ये आवश्यक था। इसी क्रम में हिन्दू  जैन मंदिरों को बड़े पैमाने पर तोड़ा गया। बौद्ध विहार नष्ट कर दिए गए। इस तोड़ फोड़ को और अधिक 'नैतिक 'धार्मिकरूप देने के लिए उन स्थानों पर मस्जिदें या इबादत खाने खड़े कर दिए गए और प्रारम्भ में तो जो सामान इन इमारतों में प्रयोग किया गया वो भी इन मंदिरों और विहारों से लिया गया। अजमेर में ढाई दिन का झोंपड़ा और क़ुतुब कॉम्प्लेक्स में कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के अलावा अनेकों स्मारक इस का जीवंत उदहारण हैं। (देखें मेरा ब्लॉग http://navparivartan.blogspot.in/2010/10/major-general-retired-afsar-kareem-has.html) हर ऐसी लूट खसूट और बर्बादी के बाद खलीफा के नाम का कुतबा पढ़ा जाता रहा जो कि लगभग पूरे सल्तनत काल में जारी रहा। ऐसे भय के माहौल में धर्मान्तरण का कार्य भी चलता रहा। भारत में स्थित शिक्षा के प्रमुख केंद्र जैसे तक्षशिला और नालंदा नष्ट कर दिए गए। वहां स्थित साहित्य को आग के हवाले कर दिया गया। नालंदा का पुस्तकालय तो इतना समृद्ध था कि उस में लगी आग कई महीनों तक जलती रही। धर्मान्तरण का भय और ताकत से भी बड़ा हथियार था जजिया। लोगों को धर्मांतरण के लिए बहलाया फुसलाया और धमकाया जाता और जो धार्मंतरण के लिए राजी नहीं होता उस पर जजिया नाम का कर लगा दिया जाता। ये कर सिर्फ गैर मुस्लिमों के लिए था और मुस्लिम बनते ही इस से छूट मिल जाती थी। स्वाभाविक था कि ऐसे में कामगारों की पूरी की पूरी जातियां ही मुसलमान हो गयीं। जिन में जुलाहेतेलीडोमसिकलीगरलोहारसक्केभटियारे आदि थे। हालाँकि कुछ मुस्लिम शासकों ने जजिया कर माफ़ भी किया पर ऐसे उदहारण बहुत कम हैं। औरंगजेब के समय में जबरदस्ती धर्मान्तरण बहुत बड़े पैमाने पर किया गया। यमुना गंगा के दोआब में गाँव के गाँव मुसलमान बना दिए गए। जो भाग गया वो ही अपना धर्म बचा पाया। खुद को धर्मान्तरण से बचाने को गाँव खाली हो जाते और लोग जंगलों में भाग जाते। औरंगजेब का लक्ष्य तो पूरे भारत को इस्लाम की धरती बनाना था। इस को प्राप्त करने के लिए उसने हजारों मंदिर तुडवाए। कहते हैं कि औरंगजेब धर्मांतरित हिन्दुओं के जनेऊ तुलवा कर भोजन करता था। असहिष्णु इतना कि अपने सगे भाई की आँखें निकलवा दी थीं। उस भाई का कुसूर इतना था कि उस ने इस्लाम और हिन्दू को धर्म की दो आँखें कह दिया था। बहरहाल इस तरह से धर्मान्तरित बहुत से लोगों ने शासन का दवाब कम होने के पश्चात अपने मूल धर्म में वापस आने का प्रयास किया। परन्तु हिन्दू धर्म में ऐसा कोई तरीका उस वक्त नहीं था जिसका परिणाम एक नए वर्ग के उदय के रूप में हुआ उस का एक उदाहरण है ‘अधबरिया ठाकुर ये उत्तरप्रदेश में राजपूत समाज का ऐसा वर्ग है जिन्होंने धर्मान्तरण के पश्चात् अपने मूल धर्म में आने का प्रयास किया परन्तु उन के समाज ने उन्हें अपनाने से इंकार कर दिया। इसी प्रकार अन्य जातियों में भी ऐसा ही हुआ। 
औरंगजेब के कल में पंजाब में तो धर्मान्तरण का  हाल था कि इस्लाम स्वीकार  करने पर गुरु गोविन्द सिंह के 7 और 9 साल के  पुत्रों को जीवित दीवारों में चुनवा दिया गया इस से पहले उन अबोध बालकों को इस्लाम स्वीकार करने हेतु तरह-तरह के प्रलोभन दिए गए। गुरु गोविन्द सिंह को हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु विशेष सैन्य दल (खालसाबनाना पड़ा।
टीपू सुल्तान ने मालाबार में लगभग चार लाख हिन्दुओं का जबरदस्ती धर्म परिवर्तन किया। बीसवीं सदी में मोपला और नोआखली के दंगों में हजारों हिन्दू जबरदस्ती मुसलमान बना दिए गए। जिस ने भी धर्मंतारण से इंकार किया उसे मौत के घाट उतार दिया गया। अब आती है बात पूरे भारत के मुस्लिम  होने की। इस्लाम की आंधी ने बड़े बड़े वृक्ष उखाड़ दिए। खाड़ी के देशों के अलावा अफ्रीका में प्रचलित धर्मों का जबरदस्ती सफाया कर दिया गया। पारसी और यहूदियों को अपना धर्म बचाने के लिए अपने पुरखों की जमीन छोड़ भागना पड़ा। पारसियों ने तो जब भारत में शरण ली तो उन की संख्या सौ से कुछ ही ऊपर रही होगी। परन्तु भारत का पूरी तरह से इस्लामीकरण  हो सका इस का कारण संभवतः ये रहा कि यहाँ पर धर्म जीवन शैली के रूप में था  कि आचरण के सिद्धांतों (code of conduct) के रूप में। code of conduct पर आधारित बौद्ध संप्रदाय का तो लगभग सफाया ही हो गया और सल्तनत काल तक बड़ी संख्या में बौद्धों का जबरन धर्मान्तरण हुआ। कश्मीर में चौदहवीं शताब्दी तक बौद्ध अधिसंख्य थे परन्तु आने वाली दो शताब्दियों में लद्दाख को छोड़ कर पूरी कश्मीर घाटी में बौद्ध समाप्त हो गए। भारत का इस्लामीकरण  होने का दूसरा कारण रहा भारतीयों का धर्मान्तरण के विरुद्ध खड़ा होना। बहुत से वीरों ने अपने धर्म की रक्षा में प्राण गंवा दिए। वीरांगनाओं ने अपने धर्म और आबरू की रक्षा हेतु जिन्दा ही चिताओं में कूद कर जौहर किया। उन के इस बलिदान से आम आदमी को अपने धर्म की रक्षा की प्रेरणा मिली। अब फिर से आते हैं मुस्लिम शासकों और उन के सर्वशक्तिमान होने की धारणा पर। ये ठीक है कि पृथ्वीराज चौहान के बाद भारत पर केन्द्रीय सत्ता के रूप में हिन्दू धर्म का वर्चस्व समाप्त हो गया था परन्तु छोटे राज्यों के रूप में यह बना रहा। इन राज्यों से निपटना  तो दिल्ली सल्तनत के वश में रहा मुग़लों के और  ही अंग्रेजों के।  ये राज्य आक्रमणकारियों के सामने मजबूत प्रतिरोध प्रस्तुत करते। अपने से संख्या में एक चौथाई राजपूत वीरों से समेल की लडाई के बाद शेरशाह सूरी ने कहा था कि  मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैंने हिंदुस्तान की बादशाहत लगभग खो ही दी थी अतः शासकों ने इन से मित्रता करने में ही अपनी भलाई समझी। आजादी के समय लगभग साढ़े पांच सौ छोटी बड़ी देशी रियासतें थीं जिन में महज पाँच-सात प्रतिशत ही मुसलमान शासकों के अधीन थीं। इन रियासतों में बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण  होना निश्चित ही समझ में आता है। गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्रसिन्धु और इस की सहायक नदियोंकृष्णा-गोदावरी दोआब में मुस्लिम शासकों का होना और जबरदस्ती धर्मान्तरण भी समझना भी मुश्किल नहीं। इस ब्लॉग काअर्थ ये  लगाया जाये कि धर्मांतरण सिर्फ जबरदस्ती ही हुआ। बल्कि बड़े पैमाने पर लोग अपनी मर्जी से भी मुसलमान हो गए। ऐसे धर्मान्तरण का सब से प्रमुख जरिया रहे सूफी संत। भारत सदा से ही संतों से प्रभावित रहा है। चाहे वो हिन्दू रहे या मुसलमान। आज के दौर में भी अजमेर शरीफ जाने वाले हिन्दुओं की संख्या देख कर ये अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। कश्मीर में तो सूफी संतों का धर्मान्तरण में उल्लेखनीय योगदान रहा। ये कहने की आवश्यकता नहीं कि इन संतों को शासन की तरफ से समर्थन और मदद दोनों मिलते थे। कुरान की कुछ आयतों का हवाला दे कर भी जबरदस्ती धर्मान्तरण होता रहा। जबरदस्ती धर्मान्तरण या फिर दूसरे धर्म के अनुयायिओं पर अत्याचार के दोषी सिर्फ मुस्लिम हमलावर या शासक ही रहे हों ऐसा नहीं है। यह दौर लगभग सभी धर्मों में आया। बौद्ध मत के अनुयायी कई शासकों ने बड़े पैमाने पर अन्य मतों को मानने वालों पर अत्याचार किए। उदाहरण के लिए बौद्ध शासक चंगेज खान ने बड़ी संख्या में मुस्लिमों का क़त्ल किया। हिन्दू राजा पुष्यमित्र शंगु ने बड़ी संख्या में बौद्धों की हत्या की। गोवा में पुर्तगालियों ने स्थानीय निवासियों पर भयंकर अमानवीय अत्याचार किये। और उनका जबरन धर्मान्तरण किया। बड़ी संख्या में मंदिरों को तोडा गया। हिन्दू रीति से विवाह और जनेऊ पहनने पर पाबन्दी लगा दी। यूरोप में ईसाई शासकों ने धर्म के नाम पर नरसंहार किए। अतः जबरन धर्मान्तरण की बात उठने पर किसी मुस्लिम को विचलित होने की जरूरत नहीं है। 
आज के दौर में चिंता का विषय भूतकाल में हुए धर्मान्तरण नहीं है बल्कि भारतीय मुसलमानों का  इस्लामीकरण है। जिस में पूर्वजों के दिए हजारों सालों के संस्कारों को इस्लाम के विरुद्ध बता कर धीरे-धीरे मुसलमानों के जीवन से मिटाया जा रहा है। इतिहास पढ़ाने के समय स्थानीय इतिहास  पढ़ा कर उस की शुरुआत खाड़ी के देशों से शुरू की जा रही है। विदेशी हमलावरों की अगली ही पीढ़ी तो स्वयं को सांस्कृतिक रूप से भारतीय मानने लगी थी। परन्तु दोनों धर्मों को जोड़ने वाले स्थलों पर से सांस्कृतिक चिन्हों को हटा कर इन का भी इस्लामीकरण किया जा रहा है। उदाहरण के रूप में कश्मीर घाटी में प्रचलित सूफी प्रभाव वाले इस्लाम को भी धीरे-धीरे कट्टरवाद में बदला जा रहा है। मुझे ध्यान है कि पीर की एक मजार के प्रवेश द्वार की miniature पेंटिंग में कुछ साल पहले तक स्वास्तिक बना हुआ था और हाल ही में सब कुछ पुतवा कर नई पेंटिंग कर दी गयी और स्वास्तिक मिटवा दिया गया। मजहबी तब्लीकें घूम घूम कर भोले भाले लोगों के जहन में इस्लाम के नाम पर जहर भर रही हैं। उन से बुजुर्गों के संस्कार त्यागने को कहा जा रहा है। हजारों सालों से चले आ रहे रीति रिवाज और संस्कार गैर इस्लामिक बता कर नष्ट किये जा रहे हैं। बाकी  काम राजनीति कर रही है।