poems

Wednesday 9 September, 2015

स्थानीय निकाय चुनाव

मित्रों, पंचायतों और परिषद्/पालिकाओं के चुनाव आखिर आ ही पहुंचे। काफी लम्बा इंतजार करवा दिया, बहुत से भावी उम्मीदवार तो दारू पिला-पिला के दिवालिया हो गए। जैसा हमेशा होता आया है चुनावी मौसम में समाजसेवक जैसे जमीन की दरारों में से निकाल कर आ जाते हैं। हालत इस बार भी यही हैं। समाज सेवकों द्वारा जागरण करवाए जा  रहे हैं, चिकित्सा कैम्प लगाये जा रहे हैं, दान दिए जा रहे हैं! इस बार तो छह-छह महीने पर चुनाव हुए हैं। अगर यही गति बनी रहे तो देश में न कोई बीमार रहेगा न कोई गरीब और न कोई ‘प्यासा’! अब सोचने वाली बात यह है कि इन समाजसेवियों और पोस्टरबाजों के बीच आप कहाँ हैं? क्या आप भी सरपंच/पार्षद समर्थक, विरोधी और गुट निरपेक्ष तीन खेमों में से किसी एक में शामिल हैं? अगर ऐसा है तो तैयार हो जाइए भ्रष्टाचार में लिप्त पालिकाओं और पंचायतों के लिए! आप शायद नहीं भूले होंगे कि हमारी परिषद् के पार्षद 10 से 20 लाख प्रति पार्षद बिके थे! क्या इस बार हम फिर से ऐसे जनप्रतिनिधि चुनने वाले हैं? जो उम्मीदवार ‘डोले’ बना रहे हैं उन से तो ऐसा ही लगता है। अभी समय है क्यों न हम ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित करें जो ईमानदार हों, जिन के पास विजन हो, कुछ करने की इच्छा रखते हों, जो बिके नहीं। जाहिर बात है ऐसे लोग स्वयं आगे नहीं आएंगे बल्कि हमें प्रयास करना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि अच्छे लोग चुनाव लड़ें। इस बात का ध्यान रखें कि चुनाव का खर्च 5 हजार से ऊपर न जाए, फालतू पोस्टरबाजी न हो, शराब न चले, हलवा पूरी न हो। यह बिलकुल संभव है और किया जाना चाहिए। मुझे तथा अन्य साथियों को इस पोस्ट पर आपकी राय का और आपके सुझावों  का इंतज़ार रहेगा।
हम आए मैदान में तो हम बताएँगे, न सर कटायेंगे अपना, न झुकायेंगे।

खुली फ़जाओं में, हम तुम को आजमाएंगे।। 

पंचायत/नगर परिषद् चुनाव

मित्रों, पंचायतों और परिषद्/पालिकाओं के चुनाव आखिर आ ही पहुंचे। काफी लम्बा इंतजार करवा दिया, बहुत से भावी उम्मीदवार तो दारू पिला-पिला के दिवालिया हो गए। जैसा हमेशा होता आया है चुनावी मौसम में समाजसेवक जैसे जमीन की दरारों में से निकाल कर आ जाते हैं। हालत इस बार भी यही हैं। समाज सेवकों द्वारा जागरण करवाए जा  रहे हैं, चिकित्सा कैम्प लगाये जा रहे हैं, दान दिए जा रहे हैं! इस बार तो छह-छह महीने पर चुनाव हुए हैं। अगर यही गति बनी रहे तो देश में न कोई बीमार रहेगा न कोई गरीब और न कोई ‘प्यासा’! अब सोचने वाली बात यह है कि इन समाजसेवियों और पोस्टरबाजों के बीच आप कहाँ हैं? क्या आप भी सरपंच/पार्षद समर्थक, विरोधी और गुट निरपेक्ष तीन खेमों में से किसी एक में शामिल हैं? अगर ऐसा है तो तैयार हो जाइए भ्रष्टाचार में लिप्त पालिकाओं और पंचायतों के लिए! आप शायद नहीं भूले होंगे कि हमारी परिषद् के पार्षद 10 से 20 लाख प्रति पार्षद बिके थे! क्या इस बार हम फिर से ऐसे जनप्रतिनिधि चुनने वाले हैं? जो उम्मीदवार ‘डोले’ बना रहे हैं उन से तो ऐसा ही लगता है। अभी समय है क्यों न हम ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित करें जो ईमानदार हों, जिन के पास विजन हो, कुछ करने की इच्छा रखते हों, जो बिके नहीं। जाहिर बात है ऐसे लोग स्वयं आगे नहीं आएंगे बल्कि हमें प्रयास करना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि अच्छे लोग चुनाव लड़ें। इस बात का ध्यान रखें कि चुनाव का खर्च 5 हजार से ऊपर न जाए, फालतू पोस्टरबाजी न हो, शराब न चले, हलवा पूरी न हो। यह बिलकुल संभव है और किया जाना चाहिए। मुझे तथा अन्य साथियों को इस पोस्ट पर आपकी राय का और आपके सुझावों  का इंतज़ार रहेगा।
हम आए मैदान में तो हम बताएँगे, न सर कटायेंगे अपना, न झुकायेंगे।

खुली फ़जाओं में, हम तुम को आजमाएंगे।। 

Tuesday 1 September, 2015

जातिगत आरक्षण

व्यवस्था अवस्था से बनती है। एक ही गांव में एक ही दादा की औलाद अलग-अलग सम्मानजनक और अपमानजनक उपनामों से जानी जाती है। और सम्मान या अपमान भी अवस्था ही निर्धारित करती है। इतिहास में अलग-अलग वर्गों को कम और अधिक महत्ता के कारण अलग-अलग अवस्थाओं में पाया जाता है। बहरहाल एक बात तो होनी ही चाहिए कि जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था में किस जाति को कितना लाभ मिला इस का हिसाब किताब जरूर मिलना चाहिए। स्पष्ट है कि कुछ जातियों ने इस व्यवस्था का भरपूर लाभ उठाया है। आज भी धाणक, खटीक, कुचबंदा, मुसहर, कालबेलिया, कंजर, बावरिया, गाड़िया लुहार, बंजारा, भोपा, कीर, धोबी, नाई, डाकोत आदि जातियों की अवस्था जस की तस है। मजे की बात तो यह है कि जब भी इस तरह की गणना की बात होती है तो सब से ज्यादा शोर उन्हीं वर्गों के लोग मचाते हैं जो जातिगत आरक्षण की व्यवस्था से सब से ज्यादा लाभान्वित होते हैं। सावधान मित्रों जाति व्यवस्था का एक नया वर्ग तैयार हो रहा है और कुछ समय बाद उपरोक्त किस्सों को तोड़ मरोड़ कर बदले हुए नायक और खलनायकों के साथ कुछ और मित्र हमारे सामने उपस्थित होंगे। कितने आरक्षित वर्गों के मित्रों ने इस बात पर गंभीरता से विचार किया है? आरक्षण का लाभ आज भी असल जरूरतमंद दलित तक नहीं पहुँचा। अगर ब्राह्मण को सर्वाधिक संम्पन्न और विकसित होने का पैमाना माना जाता है तो चमार जाति को SC और मीणा को ST का ब्राह्मण कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

कुचबंदों की बस्ती में कितनों ने जाकर देखा कि आरक्षण से उन्हें क्या मिला? जुलाहों का हाल जानना चाहा? या कीरों की हालत देखी कि वो सिंघाड़े और टोकरियों से ऊपर उठे या नहीं? घुमंतू कबीलों में ले चलता हूँ! क्या कंजर कछुओं और खरगोश से बाहर निकल पाए? क्या गाड़िया लुहार आईएस अफसर बने? क्या भोपों की नौजवान कन्याओं ने चलती रेलगाड़ियों में, बदन चीरती प्यासी नजरों के बीच, उँगलियों में पत्थर दबा कर 'परदेसी परदेसी जाना नहीं' गाना बंद कर दिया? क्या बावरियों पर भरोसे से सम्बंधित कहावतें ख़त्म हो गयी? क्या काटली नदी में बसे कालबेलियों को उनके पुश्तैनी धंधे से दूर करने के बाद वेश्यावृति के कगार पर खडी उनकी पुत्रियों को सुरक्षा की गारंटी मिली? ये तो मैंने वही जातियां लिखी जिनकी अवस्था मैं व्यक्तिगत जानता हूँ वरना मुसहर जैसी नारकीय जीवन बिताने वाली जातियों का तो जिक्र तक नहीं किया! बड़ा सवाल ये नहीं है कि मैं किस जाति का हूँ बल्कि यह कि आखिर जातिगत आरक्षण का लाभ समान रूप से उस तबके को मिला कि नहीं जिसकी उसे जरुरत है? यदि नहीं मिला तो यह आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था की असफलता है! मेरी आपसे प्रार्थना है कि अपने सीने पर हाथ रखिये और टटोलिये कि क्या वर्तमान आरक्षण व्यवस्था का लाभ कुछ गिनी चुनी जातियां ही नहीं उठा रही हैं? यहाँ आप जागरूकता की बात मत कीजिए आरक्षण था ही उन लोगों के लिए जो जागरूक नहीं हैं! आजादी के कुछ साल बाद कुछ दबे हुए वर्गों को ऊपर उठाने के लिए आरक्षण की शुरुआत की गयी परन्तु आज जरुरत है कि ये पता लगाया जाए कि आरक्षण का लाभ किन वर्गोों को मिला? इसके लिए आप हक़ से वंचित उन वर्गों को बहुत समय तक वंचित नहीं कर पाएंगे! जातीय आरक्षण रहे या जाए इस से भी बड़ा मुद्दा ये है कि क्या SC और ST में ही एक सवर्ण वर्ग तैयार नहीं हो गया है जो कि सब का हक़ खा रहा है? अगर आप रक्षित वर्ग से  हैं और आप को ये चिंता नहीं है तो बंधुवर मुझे पूरा विश्वास है कि आप भी उस सवर्ण वर्ग से ताल्लुक रखते हैं!