poems

Tuesday 11 November, 2014

किस ऑफ़ लव

कुछ शाश्वत नियम (cardinal principles) होते हैं, उन में से दो की बात कर रहा हूँ। पहला ‘जो चर्चा में रहना चाहता है उसकी चर्चा मत करो अपनी मौत मर जाएगा’ और दूसरा ‘जिस चीज से हम बचते फिरते हैं उस का अंततः सामना करना ही पड़ता है।’ ‘किस ऑफ़ लव’ का शोर मचा है इस बीच यह भी खबर आई कि कुछ दिलजले, जिनकी शक्ल देख कर भैंस भी मुंह घुमा लेती है, अपने होठों पर पॉलिश करवा कर ‘कुछ’ मिलने की आस में दिल्ली जा कर ‘सूखे’ ही वापस लौट आए हैं। मजाक की बात नहीं है पर इस वाहियात और बेशर्म अभियान पर कुछ न लिख कर मैंने पहले नियम के अनुसार इसके अपनी मौत मरने की कामना की थी। परन्तु एक फेसबुकिया मित्र ने इसे अपना समर्थन देने की घोषणा कर दी। वो बात अलग है कि ये घोषणा ऐसे ही थी जैसे किसी एक पार्टी की दो तिहाई बहुमत की सरकार को किसी निर्दलीय का समर्थन। अब साहब समर्थन के इस महत्वपूर्ण दस्तावेज की खबर अजीब-अजीब शक्लों में ढले चौराहों पर चुम्बन को अपना अधिकार समझते ‘लौंडे-लौंडियों’ को तो नहीं लगी होगी पर मुझे जरुर अजीब लगा कि 'किस ऑफ़ लव' सार्वजनिक रूप से करने के ये सज्जन समर्थक हैंफिर तो ऐसे लोग  नंगा घूमने के भी हामी होंगे, चौराहे पर सम्भोग करने के भी! ये भी आजादी ही है न! यही आजादी पश्चिम भी खोज रहा था इस आजादी के चक्कर में उन्होंने वो सब कुछ चौराहों पर किया जो बंद बेडरूम में गहरे पर्दों के पीछे होना चाहिए। वो लोग भूल गए कि उन की इस आजादी को नन्हे बच्चे भी देख रहे हैं। आज परेशान है 12-13 साल की स्कूली बच्चियों के गर्भवती होने की समस्या पर! अब इस बीमारी से निजात पाने को पश्चिम, भारतीय संस्कृति की तरफ देख रहा है! ये चौक चौराहों पर 'किस' कर के अपनी आजादी का रोना रोने वाले जरा ये सोचें कि बच्चों के मस्तिष्क पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा! सब कुछ आजादी ही है सामाजिक जिम्मेदारी कुछ नहीं!??? पर ये तो हम हिन्दुस्तानियों की आदत ही है कि हम योग करना भी तब शुरू करते हैं जब वो पश्चिम जाकर ‘योगा’ बन कर लौटता है! धन्य हैं लव किसर्स और धन्य हैं आप के समर्थक। इनका जो भी हो पर देखिए न कैसे एक नियम पर चलते हए मैं दूसरे नियम का शिकार हो गया। 

Friday 7 November, 2014

शिलान्यास

लीजिए साहब पेश है हमारे नए नवेले विधायक द्वारा नया नवेला पत्थर! नारनौल शहर में कहीं भी निकल जाओ या गाँव की गलियों में चले जाओ हर गली में पत्थर लगे हैं। वो अलग बात है कि  उन पर पूर्व विधायक का नाम लिखा है।  अगर शहर की गलियों में दिन भर घूमा जाए तो ऐसा लगता है जैसे कि पूर्व विधायक सड़क बनाने का ही काम करते हों। अगर इन शिला स्तंभों से ईंटें निकाल कर सड़क बनायीं जाए तो एक वार्ड की और यदि शिलालेख उखाड़ कर बनाई जाए तो एक पूरे महल्ले की सड़कें बन जाएँ। बहरहाल मैं यहाँ पर पूर्व विधायक का बखान नहीं करना चाहता मेरी चिंता इन शिलालेखों पर होते फिजूलखर्च को ले कर है। सड़क, बिजली, पानी ये तो मूलभूत जरूरते हैं इन्हें तो पूरा करते हुए शर्म आनी चाहिए कि आजादी के इतना बरसों बाद भी हम इन पर पर नहीं पा सके  शिलान्यास तो इस शर्मिंदगी में कोढ़ में खाज की तरह है। एक सड़क पक्की करवा कर ऐसा क्या विकास का तीर मार लिया जाता है ये समझ से परे है। भ्रष्ट परिषद् को तो किसी न किसी को ‘टमूरना’ है ताकि खीर पकती रहे और चक्की चलती रहे। लाजमी है कि नए नवेले विधायक से शिलान्यास करवाने का ये कदम नयी ब्याहता के हाथ की खीर में अपना हिस्सा पक्का करवाने के प्रयास जैसा है क्योंकि 15 दिन पुराने विधायक का निश्चित तौर पर ही सड़क निर्माण में कोई योगदान नहीं हो सकता, आखिर एक सड़क को बनने में ही 15 दिन से ज्यादा का समय लग जाता है घोंघे की गति से चलने वाली सरकारी फाईलों का तो कहा ही क्या जाए। यह भी सब जानते हैं कि इस नयी बनी सड़क को यही परिषद् किसी न किसी बहाने तोड़ देगी ताकि न तो इसमें इस्तेमाल हुई सामग्री पर कोई आवाज उठे और न ही निर्माण प्रक्रिया पर अगर बचा रह जाएगा तो यह शिलालेख। जो भी हो इन पंक्तियों का कारण न तो विधायक महोदय को प्रचार कर वाही-वाही लूटने से रोकने का है और न ही उन्हें बदनाम करने का, अपितु प्रदेश की जनता बीजेपी सरकार के रूप में एक उम्मीद देख रही है और वही पुराने गलियाँ-नालियां पक्की करवा शिलान्यासों की तस्वीरें खिंचवाने के काम होते रहे तो फिर ढ़ाक के तीन पात ही रहने वाले हैं। एक बार को भूल जाईए शिलान्यास में प्रयुक सामग्री के खर्चे को जरा सोचिये विधायक, उपायुक्त और अन्य अधिकारियों के कीमती समय के बारे में! शिलान्यास एक परंपरा है, जरूर कायम रहनी चाहिए परन्तु एक निश्चित बजट से कम की परियोजनाओं के लिए शिलान्यास पर रोक लगनी चाहिए। उम्मीद है कि नयी सरकार का ध्यान इस बेकार की शोशेबाजी की तरफ जाएगा और यह तमाशा बंद किया जाएगा और उस से पहले हमारे विधायक अपने स्तर पर इसे बंद करेंगे। 

Monday 13 October, 2014

आओ बाधा पहुँचायें

विधानसभा के उम्मीदवार की एक तस्वीर 5 अक्टूबर को तीन समाचार पत्रों में छपती है, उम्मीदवार के साथ SDM (चुनाव रिटर्निंग अफसर) और कुछ अन्य अधिकारी नजर आ रहे हैं। समाचार की हैडलाइन है, ‘कांग्रेस प्रत्याशी ने किया चुनाव प्रचार’। प्रथम दृष्टया यह अधिकारियों के कदाचार का मामला है। अधिकारियों का किसी प्रत्याशी के चुनाव अभियान में हिस्सा लेना काफी गंभीर बात है। एक व्हिसल ब्लोअर साथी मनीष वशिष्ठ ने उक्त समाचार पत्रों की तस्वीरों के साथ इस घटना पर प्रकाश डाला और इसे फेसबुक पर प्रकाशित कर दिया। हमारे संविधान में व्यवस्थित ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ सभी को अपने विचार रखने की आजादी देती है। परन्तु मनीष वशिष्ठ की आजादी कुछ ही घंटे जिन्दा रही और उन के पास APRO का फोन आया तथा उन्हें साहब से मिल लेने की ताकीद की गई तथा धमकाया गया कि उन के खिलाफ मुकद्दमा दर्ज होगा।
अब जरा SDM साहब का पक्ष सुनिए। उनका कहना है कि यह तस्वीर लगभग डेढ़ महीने पुराने, आचार संहिता लगने से काफी पहले के, एक सरकारी कार्यक्रम की है जिस में उक्त विधानसभा उम्मीदवार स्वास्थ्य मंत्री के तौर पर मुख्य अतिथि थे। यहाँ पर SDM बेकुसूर नजर आते हैं। पर उनकी बेकुसुरी दूसरे सवालों को जन्म देती है। मसलन अगर यह तस्वीर पुरानी है तो फिर चुनाव के समय समाचार पत्रों में क्यों है? यह पुरानी तस्वीर समाचार पत्रों ने क्यों लगायी? इस तस्वीर में अधिकारियों के अलावा अन्य गणमान्य लोग भी हैं, इस तस्वीर के माध्यम से क्या यह चुनावों को गलत तरीके से प्रभावित करने का मामला नहीं है? अगर यह तस्वीर पुरानी है तो कुछ समझदारी पूर्ण कदम उठाये जाते। सब से पहले SDM तथा समाचारपत्रों की तरफ से इस बारे में अख़बारों में स्पष्टीकरण दिया जाता। दूसरा यह तस्वीर अख़बारों में क्यों छपी इस का पता लगाया जाता। तीसरा यदि यह तस्वीर अख़बारों ने स्वयं अपनी तरफ से लगायी है तो उनके खिलाफ कार्यवाही की जाती। चौथा यदि यह तस्वीर खुद उम्मीदवार ने अपनी तरफ से दी है तो उम्मीदवार के खिलाफ प्रावधानों के तहत कार्यवाही की जाती, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से चुनावों को प्रभावित करने का मामला है। परन्तु न ये किया जाता है और न वो और मामला बनाया जाता है मनीष वशिष्ठ के खिलाफ। अब जरा मामला क्या बना इस पर गौर फरमाएंगे तो बेकुसूर नजर आने वाले SDM महोदय विलेन नजर आएंगे। SDM साहब ने पुलिस में एक शिकायत दी जिस की भाषा अवांछनीय और अभद्र है। इस शिकायत में मनीष वशिष्ठ पर ब्लैकमेलर होने का इल्जाम लगाया गया है। इस शिकायत में ‘बदनाम’ और ‘दुरूपयोगी’ SC/ST एक्ट के एक मुकद्दमे का भी हवाला दिया गया है। इस शिकायत में यह भी कहा गया है कि मनीष वशिष्ठ के पिता को JBT घोटाले में सजा हो चुकी है। जब कि सच्चाई यह है कि SC/ST एक्ट का झूठा मुकद्दमा मनीष वशिष्ठ द्वारा एक अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला उठाने पर हुआ था और इस झूठे मुकद्दमे से वशिष्ठ बरी हो चुके हैं, और इस मुकदमे की साजिश रचने वाले अधिकारी पर मनीष वशिष्ठ की शिकायतों पर सरकारी संपत्ति के गबन के दो मामलों में जमानत पर हैं। जहाँ तक सवाल है मनीष के पिता का यह सर्वविदित है कि मनीष वशिष्ठ के पिता ने अपने जीवन में कभी बेईमानी नहीं की यह बात पूरा नारनौल जानता है। उन पर आक्षेप लगाने से बड़ी शर्म की बात कुछ नहीं हो सकती। बहरहाल इन तथ्यों को ‘सुनी-सुनाई’ सूचनाओं के रूप में आधार बना कर SDM महोदय ने वशिष्ठ के खिलाफ झूठे आरोप लगाने, चुनावों में बाधा पहुँचाने और अफवाह फ़ैलाने की शिकायत दर्ज करवा दी। उधर मनीष वशिष्ठ ने भी जनप्रतिनिधि कानून तथा आईपीसी की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत उक्त रिटर्निंग अफसर के खिलाफ शिकायत दे दी। परन्तु सभी नागरिकों को एक आंख से देखने वाले कानून की आँख तब फूट गयी जब ‘सुनी-सुनाई’ बातों पर आधारित एक सरकारी अफसर की शिकायत पर वशिष्ठ के खिलाफ FIR दर्ज हो गयी और दस्तावेजों पर आधारित वशिष्ठ की शिकायत पर अब तक कोई कार्यवाही नहीं हुई।
सोचने वाली बात ये है कि इस पूरी प्रक्रिया में चुनाव में बाधा पहुँचाने वाली बात कहाँ से आ गयी। तीन समाचार पत्रों में छपी इस खबर को पुनः प्रकाशित कर के और उसे आधार बना कर कमेन्ट करके मनीष ने कोई अपराध नहीं किया है ऐसे ही एक मामले में माननीय उच्चतम न्यायलय ने हाल ही में ऐसी व्यवस्था दी है! यह स्पष्ट तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। अच्छा होता कि इस विषय को समझदारी से सुलझाया जाता। प्रशासन इस पर लीपापोती करने में लग गया है। परन्तु लगता है कि ये बेर और बिखरेंगे। मेरे विचार से यह निश्चित ही मनीष वशिष्ठ के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है और कोई भी व्यक्ति संविधान से ऊपर नहीं चाहे वो SDM ही क्यों न हो! अगर प्रशासन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चुनाव में बाधा लग रही है तो ये बाधा मैं भी पहुंचा रहा हूँ! आईये बाधा पहुँचायें!


Tuesday 7 October, 2014

छक्कड़ के पक्ष में

“किस का समर्थन कर रहे हो?” चुनावों के मौसम का आम सवाल। ये सवाल तब बार-बार पूछा जाने लगता है जब आंदोलनों, धरनों और प्रदर्शनों का आप का कोई साथी चुनाव लड़ रह हो। “उमाकांत छक्कड़” स्वाभाविक जवाब देने के बाद मैं सामने वाले के चेहरे के बदलते भावों से उस की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करता हूँ।
इस बात को आगे बढ़ाएं इस से पहले चलिए एक नजर नारनौल विधानसभा के उम्मीदवारों पर डाल ली जाये। एक बड़ी पार्टी के उम्मीद्वार, पार्टी की टिकट उन की झोली में ऐसे गिरी जैसे अंधे की झोली में सेब! वो कब क्या बयान देदें भगवन को भी पता नहीं। उन के सर पर एक ऐसे वंशवादी नेता का हाथ जिन्हें 9 साल तक सत्ता की खीर खाने के बाद पता चला कि उन के क्षेत्र के साथ अन्याय हो रहा  है। निर्णय में इतना समय लगते देख कर मुझे रीजनिंग परीक्षा में मात्र 40 मिनट का समय रखने वालों की बुद्धि पर तरस आ रहा है। बहरहाल नेता जी किसी मदारी की तरह पूछते हैं “बोलो रख दूँ इस के सर पर हाथ?” हर बार लुटती-पिटती, ठगी जाती जनता मदारी की बातों से सम्मोहित हो कर दोनों हाथ उठा कर चिल्लाती है “हाँ-हाँ”। जमूरे की आँखों में आंसू हैं और आंसू उस कार्यकर्त्ता की आँखों में भी हैं जो राष्ट्रवाद का पाठ कंठस्त करने के बाद उसे व्यक्तिवाद के सामने नतमस्तक देख रहा है।
दूसरी बड़ी पार्टी का उम्मीदवार। जिन को गालियाँ दे-दे कर चुनाव जीता पहला मौका मिलते ही उन की ही गोदी में जा बैठा। सरकार के तारणहार इस उम्मीदवार को इनाम में मंत्री पद मिला और दोनों हाथों से पैसा बटोरने की छूट! मुझे नहीं पता था कि कपूरों, खानों और रोशनों के बलिष्ठ शरीर और पदुकोनों, चोपड़ाओं की सुडौल काया देखने की आदी जनता को एक मंत्री को सीडी में देखना पड़ेगा! कल ही की बात है एक बहुत ही संस्कारी, चरित्रवान सज्जन इस उम्मीदवार की सिफारिश ले कर मेरे पास आए, मैंने अफ़सोस किया कि उन जैसे व्यक्ति को ऐसे उम्मीदवार के लिए घूमना पड़ रहा है। उनके चहरे पर ग्लानि थी पर वो ‘क्या करें’ कह कर चलते बने।   
तीसरी बड़ी पार्टी का उम्मीदवार। (मैं सोचता हूँ कि पार्टी की टिकट का नाम ‘टिकट’ बिल्कुल सही रखा है। लेने के लिए लाइन में लगना पड़ता है और पैसे से मिलती है।) नेता जी अपने अंतिम पड़ाव पर हैं पर जिस पार्टी का झंडा उठा रखा है उस में तो पोस्टर में दादा से ले कर पडपोते तक की तस्वीरें लगती हैं फिर बिना जनता को ‘वारिस’ दिए कैसे चले जायेंगे। लो जी बेटा न सही बेटे की बहु ही सही। लो मिल गयी टिकट, बल्ले-बल्ले! अनुभव और योग्यता गयी तेल लेने।
अब इन की सुनिए ये हैं चौथे। तमाम उम्र सार्वजानिक जगहों पर कब्ज़ा करके उन्हें बेचने में गुजार दी, धर्मशालाओं और मंदिर मस्जिद तक को नहीं छोड़ा और चले हैं भ्रष्टाचार मिटाने। हाँ भाई आधा शहर कब्ज़ा लिया अब तो भ्रष्टाचार मिट ही जाना चाहिए।
लीजिये पांचवे सिर्फ इस लिए मैदान में हैं क्योंकि मदारी ने इन्हें अपना जमूरा न बना कर उम्मीदवार नंबर एक को बना लिया। अब लोकतंत्र में जमूरों को भी विद्रोह का हक़ तो है ही।
ये हैं मिस्टर छठे इन्होने कुछ और किया हो या न किया हो पर उम्मीदवार नंबर तीसरे को छठी का दूध याद दिला दिया। जाति सूंघ कर वोट देने वाली जनता में से समाज का काफी बड़ा हिस्सा तोड़ कर तीसरे की नींद हरम कर दी। इनकी योग्यता है इनका पैसा जो कि समाज सेवक बन कर इन्होने खूब लुटाया है।

बाकी लोग भी इन छह उम्मीदवारों के अगल-बगल की योग्यता के हैं। यही कहानी हर जगह है। चाहे देश में कहीं भी चले जाओ। खैर मैं मेरे समर्थन का उम्मीदवार पूछने वाले सज्जन की आँखों में झांकता हूँ उनकी मुस्कराहट में व्यंग की मात्रा सौम्यता से अधिक दिखाई देती है। ‘छक्कड़ आदमी तो अच्छा है पर जीतेगा थोड़े ही’। मैं सवाल दागता हूँ कि जीतने वाले को वोट देना चाहिए या अच्छे उम्मीदवार को? जवाब आता है ‘जीतने वाले को’। ‘आप मेरे हितैषी है?’ मेरा अगला सवाल। ‘जी’। ‘अगर 10 लोग आ कर मुझे पीटने लगें तो आप मुझे बचाने की कोशिश करेंगे या उन के साथ मिल कर पीटने लगेंगे?’ सज्जन कुछ विचलित होते हैं। मैं उनकी हालत पर तरस खाता हूँ और विदा लेता हूँ। परन्तु मूल प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। क्या चुनाव के समय हम वहीँ पर आ जाएँ जिन बातों की खिलाफत करते रहे? क्या मौजूदा उम्मीदवारों में उमाकांत छक्कड़ सब से उपयुक्त उम्मीदवार नहीं है? क्या वो बेईमान है? क्या वो दलाल है? क्या उसे शाम होते ही लालपरी चाहिए? क्या उसे नौकरी दिलवाने के बदले हुस्नपरी चाहिए? क्या वो भूमाफिया है? क्या वो बिकाऊ है? इन सवालों को मैंने खुद के सामने रखा और फिर निर्णय किया कि हाँ छक्कड़ ही वो उम्मीदवार है जिसका समर्थन किया जाना चाहिए। आखिर जिन मुद्दों के लिए इस शहर में हम कुछ लोग आवाज उठा रहे हैं छक्कड़ का समर्थन उन मुद्दों की अगली कड़ी है। इसी कारण मैं उमाकांत छक्कड़ के समर्थन में नुक्कड़ सभाओं में अपने विचार रख रहा हूँ। परिणाम चाहे जो भी रहे पर मुझे गर्व होगा कि मैंने एक अच्छे उम्मीदवार का समर्थन किया। हाँ इस पोस्ट के बाद मैं इस बारे में कुछ नहीं लिखूंगा और न ही फेसबुक पर छक्कड़ के गीत गाऊंगा किन्तु आप से एक प्रार्थना करूँगा कि अपने दिल पर हाथ रख कर पूछिए कि मौजूदा उम्मीदवारों में सब से उपयुक्त उम्मीदवार कौनसा है। क्या आप उस के कदम में अपने कदम मिलायेंगे?  

Thursday 2 October, 2014

पत्रकारिता

     एक अन्तराष्ट्रीय समाचार एजेंसी के प्रमुख से जब उन के काम करने का तरीका पूछा गया तो उन्होंने कुछ ऐसा कहा, “यदि किसी देश में सरकार गिर रही है तो हम उसे न तो गिराने में मदद करते हैं और न ही बचाने में।” अर्थात ये पत्रकारिता का धर्म है जो हुआ वो दिखाए न कि उस के होने या न होने में मदद करे। दो दिन से शोर मचा है कि राजदीप सरदेसाई को पड़ी। परन्तु पूरा विडियो देखने के बाद लगता है कि यह देसाई तो बिना सर का है! भीड़ में उस व्यक्ति का ये बर्ताव जिसे अति सहनशील होना चाहिए! ये तो खैर मनाईये श्रीमान् कि आप अमेरिका में थे वरना उत्तर भारत में कहीं रहे होते तो पब्लिक मार-मार कर आप का भूत बना देती। इतने सीनियर पत्रकार का ये व्यवहार! इतना ही नहीं सोशल मीडिया और टेलीविजन पर शोर मच गया कि राजदीप को पड़ गयी। ऐसा माहौल बना रहा जैसे कि कौवों की मय्यत हो रही हो। ऐसे में कुछ कौवों के साथ आम आदमी पार्टी के रूप में सरदेसाई को एक स्वाभाविक मित्र मिल गया जिसका एक सूत्रीय कार्यक्रम आजकल मोदी विरोध ही रह गया है (हालाँकि ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में शामिल होना एक अच्छा फैसला है)। बहरहाल बिना सर के देसाई से किसी प्रकार की सह्नाभूति न रखते हुए वहां उपस्थित जनता की सराहना की जानी चाहिए जिस ने बड़े संयम से काम लिया।  
    मुश्किल से सप्ताह भर पहले गुजरात के आणंद शहर में एक पत्रकार महोदय से मुलाकात हुई जो एक नामी अख़बार में काम करने के बाद आजकल स्वयं का समाचार पत्र निकाल रहे हैं। ये जान कर कि मैं भी प्रेस से जुड़ा हूँ वो सज्जन कुछ खुलने लगे। मैंने उनसे समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में आने वाली दिक्कतों की चर्चा की। उन के वचन थे कि वो 2004 में 300 रुपये ले कर आणंद आए थे और आज उन के पास शहर के पॉश इलाके में बंगला है, गाड़ी है, बैंक बलेंस है, सब कुछ है (क्षमा करें माँ के बारे में मैंने पूछा नहीं)। मैं सोच में पड़ गया कि महज 10 साल में ही फर्श से अर्श पर? परन्तु उन्होंने मेरे दिमाग का पेट्रोल ज्यादा नहीं जलने दिया, लगे खुलासा करने। ‘सर ख़बरें लगाने में कुछ नहीं है, कमाई तो ख़बरें रुकवाने में हैं।‘ ‘लोग सामने से बोलते हैं ये मत लगाओ, ये लगाओ।‘ येल्लो जी ये है पत्रकारिता। जी जनाब मेरे दिमाग में भी आप ही की तरह कुछ पत्रकारों के गाड़ी और बंगले घूम गए। एक तरफ बिना लालच के ईमानदारी से जो है वो दिखाते पत्रकार, तो दूसरी तरफ पैसे के पीछे भागते पत्रकार, दुकानों-जमीनों में दलाली खाते पत्रकार, चापलूसी करते पत्रकार, लोगों के कुसूर दबाते-उघाड़ते पत्रकार, ब्लैक मेलिंग करते पत्रकार, 500 करोड़ की संपत्तियों के मालिक पत्रकार! ये हैं आज की पत्रकारिता के सफ़ेद और स्याह पहलू! दुखद है कि स्याह पक्ष धीरे-धीरे सफ़ेद पर अपना रंग चढ़ाता चला जा रहा है। ऐसे में नई पीढ़ी के कुछ पत्रकारों की निर्भीकता और स्वाभिमान थोड़ी आस जगाता है वरना नेताओं पर से भरोसा उठा चुकी जनता के लिए पत्रकारों से मुंह मोड़ने में भी ज्यादा समय नहीं है और हैरानी नहीं होगी कि किसी दिन टीवी पर कोई सरदेसाई पिटता नजर आए।  


Saturday 27 September, 2014

पंचायत का निर्णय

मित्रों नारनौल में चुनाव का अखाड़ा सज गया है। पहलवान अपने-अपने लंगोट कस रहे हैं। ‘...का बटन दबाईये और ....को विजयी बनाईये’ का शोर एक ही डबिंग आर्टिस्ट की आवाज में दिन भर सुनाई पड़ रहा है। एक नामचीन उम्मीदवार जिन्होंने पिछले पांच साल सिर्फ पैसा बटोरने में ही निकाल दिए अनमने ढंग से फिर सामने हैं तो दूसरे ईश्वर की कृपा और ईश्वरीय स्वरुप व्यक्ति से अमरत्व का वरदान ले कर मौजूद हैं। तो एक पारिवारिक पार्टी ने परिवारवाद में आस्था जताते हुए घर-गृहस्ती में लगी महिला का चौका चूल्हा छुड़ा कर चुनावी आग में झोंक दिया है। एक उम्मीदवार जिन की सारी उम्र सार्वजनिक जगहों पर कब्ज़ा करने में गुजर गयी वो भ्रष्टाचार से मुक्ति की बात कर रहे हैं। एक श्रीमान योग्यता की कसौटी पर सब को कसने पर जोर दे रहे हैं तो एक धनी ‘समाज सेवी’ ने समाजसेवी का चोला उतार कर नेताजी का खोल ओढ़ लिया है और पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। वहीँ एक बंधु अपनी महिला कर्मचारी के शोषण के आरोप में जेलयात्रा का इंतजार करते पार्टी प्रमुख के धन से हलवा-पूरी और अन्य ‘आवश्यक सामग्री’ उपलब्ध करवाते हुए हरियाणा की ‘तकदीर’ बदलने का सपना दिखने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में बेवडों को मग्गड़ मारे, नशे में टुल्ल ‘साले ये चुनाव तो हर छह महीने में होने चाहिए’ कहते हुए हर मोड़ पर सुना जा सकता है। हमेशा की तरह मूल मुद्दे फिर हवा हो गए हैं और हर उम्मीदवार को अपनी जाति के वोटरों को रिझाते देखा जा सकता है। सोशल मीडिया पर भी चापलूसों की फ़ौज अपने आकाओं के महिमामंडन में लगी है। इस बीच एक मित्र ने एक लघु कथा भेजी है।
         एक बार एक हंस और हंसिनी हरिद्वार के सुरम्य वातावरण से भटकते हुए उजड़े, वीरान और रेगिस्तान के इलाके में आ गये! हंसिनी ने हंस को कहा कि ये किस उजड़े इलाके में आ गये हैं? यहाँ न तो जल है, न जंगल और न ही ठंडी हवाएं हैं! यहाँ तो हमारा जीना मुश्किल हो जायेगा ! भटकते-भटकते शाम हो गयी तो हंस ने हंसिनी से कहा कि किसी तरह आज की रात बिता लो, सुबह हम लोग हरिद्वार लौट चलेंगे ! रात हुई तो जिस पेड़ के नीचे हंस और हंसिनी रुके थे उस पर एक उल्लू बैठा था। वह जोर जोर से चिल्लाने लगा। हंसिनी ने हंस से कहा, अरे यहाँ तो रात में सो भी नहीं सकते। ये उल्लू चिल्ला रहा है। हंस ने फिर हंसिनी को समझाया कि किसी तरह रात काट लो, मुझे अब समझ में आ गया है कि ये इलाका वीरान क्यूँ है ? ऐसे उल्लू जिस इलाके में रहेंगे वो तो वीरान और उजड़ा रहेगा ही। पेड़ पर बैठा उल्लू दोनों कि बात सुन रहा था। सुबह हुई, उल्लू नीचे आया और उसने कहा कि हंस भाई मेरी वजह से आपको रात में तकलीफ हुई, मुझे माफ़ कर दो। हंस ने कहा, कोई बात नही भैया, आपका धन्यवाद!  यह कहकर जैसे ही हंस अपनी हंसिनी को लेकर आगे बढ़ा, पीछे से उल्लू चिल्लाया, अरे हंस मेरी पत्नी को लेकर कहाँ जा रहे हो। हंस चौंका, उसने कहा, आपकी पत्नी? अरे भाई, यह हंसिनी है, मेरी पत्नी है, मेरे साथ आई थी, मेरे साथ जा रही है! उल्लू ने कहा, खामोश रहो, ये मेरी पत्नी है।दोनों के बीच विवाद बढ़ गया। पूरे इलाके के लोग इक्कठा हो गये। कई गावों की जनता बैठी। पंचायत बुलाई गयी। पंच लोग भी आ गये ! बोले, भाई किस बात का विवाद है ? लोगों ने बताया कि उल्लू कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है और हंस कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है ! लम्बी बैठक और पंचायत के बाद पंच लोग किनारे हो गये और कहा कि भाई बात तो यह सही है कि हंसिनी हंस की ही पत्नी है, लेकिन ये हंस और हंसिनी तो अभी थोड़ी देर में इस गाँव से चले जायेंगे। हमारे बीच में तो उल्लू को ही रहना है। इसलिए फैसला उल्लू के ही हक़ में ही सुनाना है ! फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाया और कहा कि सारे तथ्यों और सबूतों की  जांच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुंची है कि हंसिनी उल्लू की पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है ! यह सुनते ही हंस हैरान हो गया और रोने, चीखने और चिल्लाने लगा कि पंचायत ने गलत फैसला सुनाया ! उल्लू ने मेरी पत्नी ले ली ! रोते- चीखते जब वहआगे बढ़ने लगा तो उल्लू ने आवाज लगाई -ऐ मित्र हंस, रुको ! हंस ने रोते हुए कहा कि भैया, अब क्या करोगे ? पत्नी तो तुमने ले ही ली, अब जान भी लोगे ? उल्लू ने कहा, नहीं मित्र, ये हंसिनी आपकी पत्नी थी, है और रहेगी ! लेकिन कल रात जब मैं चिल्ला रहा था तो आपने अपनी पत्नी से कहा था कि यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ उल्लू रहता है ! मित्र, ये इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए नहीं है कि यहाँ उल्लू रहता है !यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ पर ऐसे पंच रहते हैं जो उल्लुओं के हक़ में फैसला सुनाते हैं !
साथियों बिना विजन, बिना आस्था, बिना त्याग, बिना चरित्र, बिना शिक्षा, बिना ज्ञान, सिर्फ जाति, धन, पार्टी के बल पर अनेकों उल्लू आपके सामने हैं अब आप सोचिये कि आप किस उल्लू के हक़ में फैसला देने वाले हैं!


Wednesday 10 September, 2014

जूतों में दाल


लीजिए साहब आखिर नारनौल विधान सभा की भाजपा की टिकट घोषित हो ही गई। दिमाग में दो कहानियाँ आ रही हैं। पहली तो बिल्लियों की लड़ाई में बन्दर के फायदा उठाने वाली और दूसरी उस माँ वाली जो राजा के इस न्याय पर कि बच्चे के दो टुकड़े कर के दोनों औरतों को दे दो, रोती है और टुकड़े करने से मना करती है व इस की बजाय राजा से बच्चा दूसरी औरत को देने की प्रार्थना करती है। समझ नहीं आ रहा यहाँ कौन सी कहानी लागू होगी पर इतना तय है कि बीजेपी के टिकटार्थियों में उस माँ जैसा संवेदनशील हृदय किसी का नहीं जो बच्चे की जान बचाने के लिए उसे दूसरी औरत को देना मंजूर कर लेती है।

सुबह ही सुबह एक मित्र ने सूचना दी कि बीजेपी की टिकट की घोषणा हो गई। 'किसे मिली?' स्वाभाविक सा सवाल था। उन्होंने नाम बताया। 'ये कौन है?' अगला स्वाभाविक सवाल। पता लगा यादव सभा के प्रधान, तो एक धुंधली सी आकृति उभरी। फिर बारी-बारी से बीजेपी नारनौल के क्षत्रपों के चेहरे आँखों के सामने घूम गए। पर आश्चर्य अगली जो तस्वीरें सामने आई वो इंसानों की नहीं चप्पलों की थी, घिसी, टूटी, पुरानी चप्पलें। काफी दिमाग लगाया तो समझ आया कि ये कार्यकर्ताओं की चप्पलें हैं। बेचारा कार्यकर्त्ता फिर ठगा गया। जिंदगी गुजर गयी दरियाँ उठाते-बिछाते पर रहा वहीं। झंडा उठाएगा, 'की जय' 'की जय' बोलेगा और फिर चुनाव के समय कोई पैराशूट से प्रकट होगा और मज़बूरी में उस के पीछे हो लेगा। ऐसे हो गया जैसे पार्टियाँ मालिक हैं और कार्यकर्त्ता नौकर। कुछ दिन पहले इनेलो की टिकटों में भी यही हुआ जब कार्यकर्ताओं को धता बता कर नाकारा नेताओं की पुत्र वधुएँ और पूंजीपति पसंद किए गए। पर इनेलो तो प्राइवेट लिमिटेड पार्टी है। ऊपर से चाबुक चली और सारे शेर हो लिए सीधे! लगे मंजीरे 'जय चौटाला' 'जय कमलेश'! पर बीजेपी का क्या होगा। यहाँ तो वही एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते जो साल भर सक्रिय रहते हैं! रामबिलास शर्मा की चाबुक से तो कुत्ता भी स्टूल पर नहीं बैठता, शेर तो कहाँ बैठेंगे लगता है यहाँ अमित शाह को चाबुक चलाने खुद आना पड़ेगा। सजातीय उम्मीदवार के सात खून माफ़ करने की मानसिकता रखने वाले इलाके में दो सशक्त सैनी उम्मीदवारों के बीच अहीर उम्मीदवार को टिकट देना अच्छा फैसला हो सकता है पर बीजेपी हाई कमान को इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए था कि चुनाव यादव सभा के नहीं विधान सभा के हो रहे हैं। बहरहाल मैं उम्मीद करता हूँ कि बीजेपी के झंडे उठाते बूढ़े हो चले कार्यकर्ताओं को चप्पलों की नयी जोड़ी तो नसीब होगी क्यों कि उन्हें भी पता है की ये दाल तो जूतों में ही बंटेगी।

Saturday 6 September, 2014

मिट्टी के शेर

शिक्षक दिवस पर प्रधानमंत्री द्वारा बच्चों से संवाद पर बहुत से तथाकथित बुद्धिजीवियों ने काफी हो हल्ला मचाया। एक भारतीय होने के नाते मैं मानता हूँ कि फ़िलहाल हमें राष्ट्रीय चरित्र की जरूरत है और प्रधान मंत्री द्वारा बच्चों से संवाद स्थापित करने जैसे कार्य इस में बहुत मदद करेंगे। मेरे विचार से ये एक उत्तम कदम था और दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर इस का स्वागत किया जाना चाहिए था। ये अफ़सोस की बात है कि कुछ राज्यों की सरकारों ने सिर्फ इर्ष्यावश अपने राज्यों के स्कूलों में येनकेन प्रकारेण इस संवाद को बच्चों तक नहीं पहुँचने दिया। जाहिर है कि राजनैतिक प्रतिद्वंदिता इस का कारण है और जब बात राजनैतिक छिछोरेपन की आती है तो देश जाए भाड़ में! चलिए राष्ट्र और राज्यों से नीचे हमारे अपने नारनौल में आते हैं। पर पहले एक छोटी सी कहानी! एक मेंढकी ने टापों की आवाज सुन कर पानी से बाहर सर निकाला और सरपट दौड़ते घोड़े को कौतुहल से निहारा। उस ने जोश में आ कर तालाब से बाहर चार-छह छलांगें लगायी और फिर गर्व से गर्दन ऊँची कर पीछे मुड़  कर फासले को निगाहों से नापा-तोला! ‘बहुत अच्छे! अब होगा घोड़े से मुकाबला!’ उसी समय घोडा फिर वहां से गुजरा। ‘अरे ये टप-टप कैसे होती है?’ तभी मेंढकी की नजर घोड़े की नालों पर पड़ी। ‘ओह ये है राज इस रफ़्तार का!’ और मेंढकी अपने पैरों में नाल ठुकवाने चल दी लुहार की तरफ!

आदर्श सनातन धर्म विद्यालय नारनौल का पुराना और प्रतिष्ठित विद्यालय है! मुझ जैसे न जाने कितने हजार लोगों पर इस विद्यालय का कर्ज है! न जाने कितने ही लोग यहीं पढ़ कर देश विदेश में नाम कमा रहे हैं! पर ट्रष्ट की अंदरूनी राजनीति के चलते यहाँ न कुछ आदर्श बचा है, न सनातन, न धर्म और न ही विद्यालय! इस राजनीति ने स्कूल की प्रतिष्ठा को बहुत नुकसान पहुँचाया है। बहरहाल इस खींचतान के बीच श्री गोपाल शरण गर्ग और श्री गोविन्द भारद्वाज क्रमशः प्रधान और उप प्रधान के पद पर सुशोभित हैं। इन में से एक तो प्रसिद्द मौसम वैज्ञानिक हैं! इन्हें मौसम विज्ञान में इतनी महारत हासिल है कि ये हवा को सूंघ कर पता लगा लेते हैं की किस पार्टी की सरकार आने वाली है! बस जी ये उस पार्टी की सभाओं में मंच पर मुख्यातिथि के बगल की सीट का जुगाड़ किये मिलते हैं! कट्टर स्वयंसेवक का दम भरने वाले इन महाशय ने उल्लेखनीय छलांग तब लगायी जब ये इनेलो की सरकार आने पर वहां नजर आए और इन्होने संघ से ऐसी बेरुखी से किनारा किया कि बेचारों को शाखा लगाने की जगह तक देने से इंकार कर दिया। फिर चौटाला से लोगों ने किनारा कर लिया और हुड्डा को सत्ता सौंप दी पर ये मौसम वैज्ञानिक वहां पहले से ही नजर आए और मित्रों इन के पाला बदल से लग रहा है कि इस बार बीजेपी के आसार हैं पर घबराईये मत बीजेपी नहीं भी आती है तो भी ये सत्ता में आई पार्टी में ही मिलेंगे! वैसे लोग इन के बारे में तरह-तरह की बातें करते हैं परन्तु सच होने पर भी उन का उल्लेख उचित नहीं है! दूसरे सज्जन बीजेपी के पुराने नेता हैं! इन सब बातों का उल्लेख यहाँ इस लिए जरूरी हो गया कि ये कहा जा सके कि आदर्श सनातन धर्म विद्यालय एक प्रकार से भाजपामय है और जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि प्रधानमंत्री का कार्यक्रम देश के लिए था! दलगत राजनीति से ऊपर! फिर क्या कारण रहा कि एक प्रतिष्ठित विद्यालय, जिस के ट्रष्ट के प्रधान और उपप्रधान दोनों ही भाजपा से जुड़े हैं, ने अपने विद्यार्थियों को प्रधानमंत्री का संबोधन दिखाना जरूरी नहीं समझा? अगर ये भूल है तो बहुत बड़ी भूल है और ये ट्रष्ट के पदों के लिए जूतम पैजार करने वाले महानुभावों की विद्यालय में रूचि प्रदर्शित करता है। हाँ एक पहलू और भी हो सकता है कि ये दोनों सज्जन भी नरेंद्र मोदी के लम्बे हो चले कद से असहज महसूस कर रहे हों, कुछ राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की तरह! यदि ऐसा है तो ए मेरे नारनौल की एतिहासिक भूमि, तुझे शतशत प्रणाम कि तूने ऐसी मेंढकी पैदा की जिन में पैरों में नाल ठुकवाने की कुव्वत है! तू ही ऐसे सूरमा पैदा कर सकती है। 

Tuesday 15 April, 2014

बम्बा तेरी गली में

कुछ सालों पहले एक पत्रिका में एक हास्य व्यंग पढ़ा था आज के मोदी मय वातावरण को देख कर ताज़ा हो उठा। एक कवि सम्मलेन में कवि ने एक नौजवान पर एक कविता लिखी जो कि रोजाना एक हैंडपंप (बम्बा) से घर का पानी भर के लाता था। हैंडपंप जहाँ लगा था वहीं एक खूबसूरत बाला का घर था और वो उस नौजवान को वहां रोजाना आता देख उस की मजबूरी को उस की आशिकी समझ बैठी। नाजनीन के नाज नखरों से नौजवान को उस की गलतफहमी का आभास हुआ और नौजवान के स्पष्टीकरण को कवि ने कुछ यों प्रस्तुत किया-
हमें नहीं तेरी दरकार, हम आते हैं यहाँ,
क्योंकि, बम्बा तेरी गली में।
तू हसीं होगी, नाजनीन होगी, लाखों मरते होंगे तेरी अदा पर, हमें क्या?
हम आते हैं यहाँ,
क्योंकि, बम्बा तेरी गली में।
न घूर हमें इन आँखों से, न दिखा वो टूटी चप्पल,
हम नहीं आते तेरे लिए, हम आते हैं यहाँ,
क्योंकि, बम्बा तेरी गली ।
न बुला अपने खूंसट बाप को, न पुकार तू लंगड़े भाई को,
हम नहीं डरते उनसे, हम आते हैं यहाँ,
क्योंकि बम्बा तेरी गली।
‘बम्बा तेरी गली में’ श्रोताओं को इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे अपना तकिया कलाम बना लिया।
एक कवि ने कुछ ऊलजलूल कविता पढनी शुरू की
“आसमान का बिछौना बना लूं और धरती की चादर .......” श्रोता उस बेतुके से इतने नाराज हुए कि ‘बम्बा तेरी गली में बम्बा, तेरी गली में’ से पूरा पंडाल गूँज उठा और उस कवि को बैठना ही पड़ा।

‘मोदी सरकार’ का नारा भी आज ‘बम्बा तेरी गली में’ बन गया है। हर चीज में मोदी सरकार! एक दिलजले ने तो कुछ यूँ लिखा “सनी लिओनी को कपडे पहनाने वालो, जनता माफ़ नहीं करेगी.. अब की बार मोदी सरकार।” कुछ मोदी विरोधी कडवाहट भरे फिकरे भी बना रहे हैं। मेरी मोदी समर्थकों और विरोधियों से प्रार्थना है कि कडवाहट भूल जाएँ और मिल कर बोलें .... बम्बा तेरी गली में। 

Sunday 23 March, 2014

स्वाभिमानी गुजरात

गुजरात से मुझे गहरा लगाव है। 1998 में पहली बार वहां जाने के बाद से गुजरात से मेरा रिश्ता कभी नहीं टूटा। साल में दो बार अपने काम के सिलसिले में मैं गुजरात के लगभग हर छोटे बड़े कस्बे की यात्रा करता हूँ। केजरीवाल गुजरात का विकास ढूँढने शायद आँखों पर पट्टी बाँध कर गए थे। अगर उन के पास समय हो तो इस बार मैं उन्हें सड़क मार्ग से दिल्ली से गुजरात की यात्रा करवाउंगा उस के बाद उन्हें लगेगा कि विकास ढूँढने गुजरात जाने की बजाय वैशाली स्थित उन के घर से कुछ किलोमीटर के दायरे में ही ऐसी अनेकों चीजें मिल जाएँगी जिन्हें गुजरात के स्तर पर लाने की उन की तीव्र इच्छा जाग उठेगी। केजरीवाल की ईमानदारी पर शक किये बिना मैं उन से गुजारिश करता हूँ कि सिर्फ विरोध करने के लिए किसी का विरोध उचित नहीं। आपका विरोध रचनात्मक होना चाहिए। केजरीवाल के घर से मुश्किल से एक किलोमीटर दूर साहिबाबाद औद्योगिक क्षेत्र है, छोटे-बड़े अनेक उद्योग हैं। वहां जाने पर उन्हें पता लगेगा कि प्रदूषण विभाग, बिजली विभाग, श्रम विभाग, जिला प्रशासन, आयकर विभाग किस तरह खून चूसने में लगे हैं। ऐसा नहीं है कि केजरीवाल महोदय को इस बात की जानकारी नहीं है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि वो मूल रूप से राजनेता नहीं सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं (मेरी तरह) और सामाजिक कार्यकर्त्ता का प्रिय खेल है ऊँगली-ऊँगली और ये ऐसा सामाजिक खेल है जिस में कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई जाती बल्कि जहाँ भी पता लगे कि काम ढंग से हो रहा है वहां पहुँच जाओ और ऊँगली करो और ये दिखाओ कि ढंग से काम होने की बात अफवाह है। जिस मैदान में काम ठीक से ना हो रहा हो वो मैदान इस खेल के लिए मुफीद नहीं। इस नियम को अपना धर्म मानते हुए केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने गुजरात का रुख किया। यहाँ मेरा ये मतलब कतई नहीं है कि गुजरात में भ्रष्टाचार नहीं है। पूरे भारत की तरह गुजरात के सरकारी दफ्तरों में भी रिश्वत चलती है आखिर हथेली गरमाना तो हमारा राष्ट्रीय प्रतीक है। परन्तु गुजरात के जिक्र की पृष्ठभूमि में विरोध भ्रष्टाचार का नहीं मोदी का किया जाना है। बेशक गुजरात की स्थिति बाकी देश से काफी अच्छी है। सड़क, बिजली जैसी बुनियादी जरूरतों के मामले में अच्छे-अच्छे राज्य गुजरात के सामने पानी भरते हैं। पालनपुर से चलने वाली पानी की ट्रेन अब नहीं मिलती बल्कि कच्छ और सौराष्ट्र के हर गाँव तक पीने का मीठा पानी पहुँच गया है। मैं इस का श्रेय मोदी को भी नहीं दे रहा बल्कि वहां की जनता को दूंगा। 1998 के समुदी तूफ़ान और उस के बाद 2001 के भूकंप के समय मैं भुज में था। मैंने देखा कि किस प्रकार गुजरातियों ने प्रकृति के कहर से उबरते हुए बहुत जल्दी खुद को संभाल लिया। मुझे याद है देश के बाकी हिस्सों से भेजे गए पुराने वस्त्रों को स्वाभिमानी गुजरातियों ने पहनने से इंकार कर दिया था। तीन दिनों से भूखे और जनवरी की ठण्ड में ठिठुरते लोगों ने कहीं भी भोजन-वस्त्र के वितरण में लूटपाट नहीं की। एक मंदिर के प्रांगण से मेरी देख रेख में चल रहे वितरण कार्य में पीड़ितों ने धैर्य और अनुशासन का अद्भुत उदाहरण दिया। जबकि पूर्वी भारत और देश के पूर्वी तट पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के समय ऐसा देखने को नहीं मिलता। गुजरातियों के जज्बे को सलाम के साथ ही AAP और  केजरीवाल से मेरी ये गुजारिश है कि मोदी के विरोध में गुजरातियों के स्वाभिमान पर चोट न करने का ध्यान रखें। व्यक्ति का निर्माण समाज ही करता है और कोई आश्चर्य नहीं कि देश के स्वाभिमान की बात करने वाले गाँधी और पटेल (और अब मोदी) गुजरात में ही पैदा हुए।  

Saturday 22 March, 2014

बिजनेस पार्टनर

कुछ समय पहले एक वरिष्ठ और आर्थिक रूप से संम्पन्न साथी ने मेरे सामने बिजनेस पार्टनर बनने का आकर्षक प्रस्ताव रखा उस के पीछे जो कारण उन्होंने बताया वो बड़ा रोचक था। उन्होंने कहा सदा ही हर आदमी उन से बेईमानी करता है और उन्हें धोखा देता है तथा मुझ में उन्हें ईमानदार शख्स नजर आया। मैंने कहा कि जिसे यह लगता है कि सब लोग उसे धोखा ही देते हैं ऐसे व्यक्ति के साथ सांझेदारी खतरनाक है। मेरी ईमानदारी का आधार जो मुझे उन्होंने बताया वो भी कम मज़ेदार नहीं था। वो था मेरे पिता की ईमानदारी, मेरी जाति और मेरी सेना की पृष्ठभूमि। मैंने उन्हें कुछ ईमानदार पिताओं की बेईमान संतानों, मेरी जाति के कुछ भ्रष्टाचारियों तथा कुछ ईमान बेचने वाले फौजियों के नाम गिनाये। अंत मैंने बड़े सम्मान से उन का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और उन से निवेदन किया कि ईमानदार सहयोगी ढूँढने की बजाय कृपया वो कमी दूर करें जिस की वजह से लोग उन्हें धोखा देते हैं। आज वो सज्जन आम आदमी पार्टी में हैं और मुझे यकीन है कि ईमानदार पार्टनर की उन की खोज बंद नहीं हुई है।

Sunday 16 March, 2014

लाल- गुलाबी


बचपन में दूरदर्शन पर आने वाला एक विज्ञापन याद आ रहा है। “ ये क्या भाई साहब आप लाल ही में अटके हैं? ये लीजिये गुलाबी और बड़ा ।“ पहले से स्थापित लाइफबॉय से प्रतिस्पर्धा में ये ओके साबुन का विज्ञापन था।
आम आदमी पार्टी के नेता योगेन्द्र यादव की हाल ही की जनसभा के बाद एक पत्रकार मित्र ने पूछ लिया कि क्या मैं आआपा में शामिल हो गया। उनका सवाल जायज भी था क्यों कि मैंने इस कार्यक्रम का मंच संचालन किया था। आम आदमी पार्टी के प्रति अपने झुकाव को मैं कभी नहीं छुपाता और अक्सर इस के कार्यक्रमों में भी शामिल होता रहता हूँ। इसी वजह से कुछ साथियों के निशाने पर अक्सर रहता हूँ। कारण कि जिन मुद्दों को ले कर हम साथियों ने जनलोकपाल आन्दोलन में भाग लिया, धरने, प्रदर्शन, यात्राएँ की, आआपा की विचार धारा में उस की झलक दिखती है । परन्तु किसी राजनैतिक दल में शामिल होने का फैसला छोटा नहीं होता। योगेन्द्र यादव की जनसभा भी इस फैसले को रोके रखने का एक मजबूत कारण ही साबित हुई। अपनी मृदु भाषा में उन्होंने प्रभावित करने वाले विचार रखे और उस के बाद मैंने कई व्यक्तिओं को भावुक होते पाया। उन्होंने अपना एजेंडा भी बताया। किसान, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा आदि विषयों पर भी सावधानी पूर्वक प्रकाश डाला। पर ये कहानियां तो हम लोग कब से सुनते आ रहे हैं। उन्होंने ग्राम स्वराज की बात की। उन्होंने कहा कि गाँव मृत हो चुके हैं। लगा कि आआपा की सरकार आएगी तो ग्राम स्वराज आ जायेगा गाँव फलेंगे फूलेंगे। अच्छा लगता है सुनने में! पर हकीकत ये है कि गाँव मरे  नहीं हैं बल्कि उन की हत्या कर दी गई है और उन के हत्यारे हैं मंचों पर खड़े हो कर सपने दिखाने वाले राजनेता। हर किसान की आत्महत्या की खबर पर किसी फ़िल्मी  डायलॉग की तरह कानों में आवाज गूंजती है “ये आत्महत्या नहीं हत्या है।“ ऐसा लगता है कि योगेन्द्र यादव जैसे लोगों को व्यवस्था परिवर्तन की जल्दबाजी है और इसी लिए सदस्यता अभियान, पार्टी, झाड़ू जैसे सत्ता प्राप्ति के पुराने परन्तु कारगर हथकंडे अपनाते दिखाई देते हैं। ऐसे में क्या आश्चर्य कि चार पैसे खर्च करके कुछ लोग खम्बों पर लटके मिलते हैं। राजनीति में कैरियर तलाशते राजनैतिक दलों के द्वारा लतियाये और धकियाये छुटभैयों, मेलों में होती कुश्तियों में भारी दान दे कर मुख्यातिथि बनते चेहरा चमकाऊओं  और खम्बों पर लटक दिसंबर-जनवरी की ठण्ड में ठिठुरते महानुभावों के आआपा की कश्ती में सवार होने की कार्यकर्ताओं की चिंता पर योगेन्द्र जी ने बड़ा सरल और देसी उदाहरण दिया कि गाडी में सवार  होने वाले लोग पहले बाहर से चिल्लाते हैं कि खोलो आने दो और फिर अन्दर घुस कर दूसरे घुसने वाले यात्रियों पर चिल्लाते हैं कि जगह नहीं है। महोदय आप के उदाहरण में थोड़ी कमी रह गयी। हो ये रहा है कि कुछ लोगों ने गाड़ी तैयार की और उन में से एक ड्राईवर की सीट पर बैठ बाकी सब को गच्चा दे कर किन्हीं दूसरों को ही बैठा कर गाड़ी भगा ले गया।
ऐसा लगता है कि अन्ना हजारे के सीधे, सरल और निर्दोष विचारों को ले कर चलने वाले केजरीवालों और मनीष सिसोदियाओं सरीखे सामाजिक कार्यकर्ताओं को योगेन्द्र यादव जैसे ‘प्रचलित दूषित’ राजनीति की गोद में पले धुरंधरों की सोच का ग्रहण लग गया है और आआपा की राजनीति उन्ही विचारों के इर्दगिर्द घूमती नजर आती हैं। सत्ता प्राप्ति से परिवर्तन के विचार में कुछ भी बुरा नहीं है परन्तु वह विचार अपनी सोच में लाना होगा। सब से बड़ी चिंता है कि क्या सत्ता हथिया कर गावों में स्वराज आएगा? बल्कि क्या ऐसे एक और भ्रष्ट जमात खड़े होने का खतरा नहीं है जैसा कि जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के बाद हुआ। जिस गाड़ी का जिक्र योगेन्द्र यादव ने किया सचमुच वैसी ही गाड़ी फिर से तैयार हो रही है। चुनाव, पार्टी और प्रचार के हथकंडों ने व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को कहीं पीछे धकेल दिया है। एक गंभीर प्रयास को ले कर बनी पार्टी राजनीति में कैरियर तलाशते लोगों का लॉन्चिंग पैड बनती जा रही है। बदलाव रातों-रात तो नहीं आते उन के लिए समय देना होता है बलिदान करना होता है। भाजपा जैसी पार्टी को खड़े करने में आरएसएस के लाखों स्वयंसेवकों ने अपना जीवन संगठन को समर्पित कर दिया। संपन्न घरों के नवयुवक भिक्षा के भोजन से गुजारा कर के संगठन के लिए अपना जीवन दे रहे हैं तब आरएसएस का वजूद है। आरएसएस को साम्प्रदायिक कह कर पल्ला झाड़ने वालों को इस की कार्यशैली से जरूर सीखना चाहिए। आआपा को सीखना होगा उन कामरेडों से जो कंधे पर झोला लटका कर चने खा कर पैदल घूमते घूमते बूढ़े हो गए। कांग्रेस बनने के 65 साल बाद आजादी मिली और कम से कम आम आदमी पार्टी को तो यह सीखना ही चाहिए कि कुछ लोग जो गुमनाम रह कर बलिदान देने को तैयार नहीं होंगे तब तक ना तो व्यवस्था बदलेगी ना ही पार्टी ही खडी होगी। गांवों की स्थिति तब सुधरेगी जब वहां जा कर गाँव के सामाजिक ढांचे को मजबूत किया जायेगा। सरपंच समर्थक, विरोधी और तटस्थ, तीन खेमों में बंटे लोगों को जब तक एक चबूतरे पर ला कर सामाजिक ढांचा ठीक नहीं किया जायेगा गाँव आबाद नहीं होंगे। अगर व्यवस्था बदलनी है तो त्याग करना होगा, बलिदान देने होंगे। ब्रांड वही चलेगा जो बेहतर भी होगा सिर्फ गुलाबी और बड़ा होने से काम नहीं चलने वाला।