poems

Sunday 6 November, 2016

जय जवान

 इतिहास गवाह है कि सेवा वालों को कभी मेवा नहीं मिली। पूरी जवानी देश को देने के बाद बिना किसी स्थाई रोजगार के 35-40 की उम्र में सेना से बाहर धकेले जाने वाले जवानों की आवाज़ हर बार हाशिए से बाहर कर दी जाती है। OROP, 70% पेंशन, CPC में कमी की लड़ाईयाँ उसी जवान के कंधे पर रख कर लड़ी जाती हैं ऐसे ही जैसे दुश्मन से जंग लड़ी जाती है। हैरत की बात है कि दुश्मन की पहली गोली झेलने वाले जवान का जान जोखिम वेतन (military service pay) अफसर और नर्सों से काफी कम है! हर बार अफसर की तीन मांगों के साथ जवान की एक मांग घुसा कर प्रेशर ग्रुप सरकार पर दवाब बनाते हैं और सरकार को थोड़ा ढीला छोड़ते हुए दो मांगों पर से दवाब हटा देते हैं। कहने की जरुरत नहीं कि दो में से एक मांग जवान की होती है। जवानों का सरकार से सौदेबाज़ी का न कोई प्लेटफॉर्म है, न अधिकार हैं और न ही प्रेशर ग्रुप हैं। ये बिल्कुल किसी लड़की की शादी नाई-बामण द्वारा तय किए जाने जैसा मामला है। सरकार में बैठे बाबुओं को न अफसर से मतलब न जवान से! पहले से ही मलाई डकार चुके बाबू देखते हैं कि कम से कम बजट में काम कैसे हो। उन्हें एक लाख अफसरों को 10 रुपए देना 15 लाख जवानों को 2 रुपए देने से सस्ता लगता है। और खबर बनती है सेना की मांगें मान ली गईं! और सच भी होती है क्योंकि माँग उठाने वाला भी अफ़सर है और मानने वाला भी अफ़सर। तीनों सेनाओं के सेनापतियों ने 'विसंगतियां' दूर किए बिना 7th CPC के अनुसार वेतन लेने से इंकार किया हुआ है, ज़रा तह में जाइए और देखिए कि वो मांगें हैं किसकी। इस हरक़त पर सरकार को तीनों सेनाध्यक्षों को बर्खास्त कर देना चाहिए था पर उरी और सर्जिकल स्ट्राइक के 'राष्ट्रवाद' में डूबे देश से घबरा कर 'मजबूत' प्रधानमंत्री की सरकार ये हिम्मत नहीं जुटा पाई! याद दिला दूँ कि पांचवें वेतन आयोग के दौरान कुछ सैनिकों ने वेतन लेने से मना किया था उन्हें जबर्दस्ती/समझा कर/डरा कर वेतन दिया गया और जिन्होंने फिर भी विरोध किया उन्हें गर्म हीटरों तक पर बैठा कर प्रताड़ित किया गया था। हक़ीक़त ये है कि सेना की 'देशभक्ति की गाथा' के नक्कारे में 'निरीह' जवानों की आवाज़ दब जाती है। सोशल साइट्स पर एक msg चला कि कोई भी सैनिक यदि बिना सीट के यात्रा कर रहा है तो उसे स्थान दें! बड़ी अच्छी भावना है। जनता है भी भावुक और तब तो और ज्यादा जब युद्ध की गंध आने लगे! पर क्यों नहीं यह सुनिश्चित किया जाता कि सैनिक को आरक्षण मिले ही मिले। क्यों दो-दो दिन जवान को शौचालयों के सामने बैठ कर सफ़र तय करना पड़ता है? क्या किसी ने किसी अफसर को बच्चे गोदी में लिए सामान सर पर रखे यात्रा करते देखा है? एक-डेढ़ दशक पुरानी बात है। एक ट्रांजिट कैंप में मैंने जवानों के शौचालयों में ताला लगा पाया पूछताछ में पता लगा कि चाभी इंचार्ज हवलदार के पास है। मैं  उसके पास गया चाभी मांगी, उसने दे भी दी। मैंने पूछा कि ताला क्यों लगाया तो उसका जवाब था कि इस्तेमाल करना तो आता नहीं सा** गंदा कर देते हैं, आप ले जाइए, वापस मुझे दे दीजिए। मैंने कहा क्या ये लोग बंदूक चलाना घर से सीख कर आए थे? आप इन्हें बंदूक चलाना सिखा सकते हैं पर हगना नहीं? ट्रांजिट कैम्पों तक में हर तरह की साज-सज्जा और ऐशो आराम से सुसज्जित  अफ़सरों की मेस और जवानों के शौचालयों के दरवाज़े टूटे हुए! वाटर कूलर लगा है पर उस में पानी नहीं! पानी है तो कूलर ख़राब है! एक प्लास्टिक की बालटी, उसे ले कर जवान निबटने जा रहा है, कई बार खुले में भी, उस से ही मंजन कर रहा है, उसी से नहा रहा है और उस में ही पानी भर के दिन भर के कार्यों में इस्तेमाल कर रहा है! सुघड़ गृहणी जैसा भारत का जवान! 'जय हिंद, जय भारत, भारत माता की जय' लीजिए साहब हो गया जवान का कल्याण! क्या कोई बता सकता है कि आपको जम्मू से रामबन में सुबह 6 बजे सन्देश मिला कि लंच में 100 बसों में 2000 जवान आ रहे हैं। आपने 3 चपाती और दो कड़छी चावल की दी उस से ज्यादा मांगने वाले को आपने झाड़ पिलाई फिर भी 200 आदमी को खाना नहीं मिला! क्यों? कहते हैं कि रामबन ट्रांजिट कैम्प का कमांडिंग अफसर बनने के लिए अधिकारियों को लाखों रुपए रिश्वत के और पूरे कार्यकाल 'हरामखोरी' का हिस्सा देना पड़ता है।
क्या ये ताज़्जुब की बात नहीं है कि नर्स की MSP सूबेदार मेज़र से भी ज़्यादा है? कौन अधिक जोख़िम में काम करता है? नर्स या सूबेदार मेजर? तीन-तीन महीने बढ़ा कर सार्जेंट के प्रमोशन में पांच साल से ज्यादा की बढ़ोतरी कर दी जबकि कैप्टन, मेजर और लेफ्टिनेंट कर्नल व उनके समकक्षों के प्रमोशन में उतने ही समय की कमी कर दी। 2nd लेफ्टिनेंट का तो रैंक ही खत्म कर दिया पर सिपाही का रैंक बरकार है और बड़ी संख्या में तो जवान सिपाही भर्ती होते हैं तथा सिपाही ही वापस आ जाते हैं। क्या कोई अफसर लेफ्टिनेंट रिटायर हुआ? पिछले पे कमीशन में मेजर से ले. कर्नल/समक्ष बनने पर 32000 से 35000 की बढ़ोतरी दी गई जबकि उतनी ही नौकरी किए हवालदार/समकक्ष बनने पर मात्र 1800 रुपए बढ़ाए गए! 'जितना छोटा पद, पदोन्नति का तरीका उतना ही सरल!' सुन्दर और सरल नियम है। किंतु जवानों का प्रमोशन ACR आधारित और अफ़सरों का समय आधारित! जब कि पहले इसका विपरीत था। किसने बदला? लेफ्टिनेंट कर्नल को तो पे बैंड 4 में ले कर चले गए पर हवलदार को पे बैंड 2 में नहीं डाला, जबकि मांगें दोनों रखी गई थीं। पर वही 2 रुपये और 10 रुपये वाला मामला! 70% से अधिक सिपाहियों को उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा इस्तेमाल करके, बिना किसी संरक्षण के लात मार दो और अफसर को आधी सदी से अधिक गुजर जाने तक सज़ा कर रखो। ये कैसे निर्धारित हुआ कि जवान की कार उम्र भर हसीन रहेगी और अफ़सर की 4 साल में बुढ़ा जायेगी? CSD से जवान को जिंदगी भर में सिर्फ एक कार और अफ़सर को 4 साल बाद दूसरी! ये सब निर्धारित करने वाला है कौन? अफसर हर जगह लाभान्वित और जवान वंचित, शोषित, अपमानित! वो भी उस अफसर द्वारा जिस पर उसकी समस्या-सुविधा की जिम्मेदारी है!! नतीजा- बड़ी संख्या में जवानों का पलायन! आखिर क्यों एक बैच के सिर्फ 8% जवान ही सेवा में टिकें? सब सुविधाओं के बावजूद! यह सवाल मैंने पूर्व सेनाध्यक्ष एयरचीफ मार्शल ब्राउने से पूछा। उस समय वे पश्चिम वायु कमान के AOC-in-C थे। मेरा मानना है कि मैनेजमेंट के प्रयोगों की प्रयोगशाला बन चुकी सेना में अच्छे समाधान की उम्मीद बेमानी है अगर अच्छी सफाई (explanation) मिल जाए तो खैर मानिए! पर मुझे वो भी न मिली! उन्होंने आश्वासन दिया कि देखते हैं क्या किया जा सकता है! उसके बाद वे वायुसेनाध्यक्ष बने पर कुछ न किया जा सका क्योंकि कुछ किया जाना ही नहीं है। बेचारा जवान भी यह भूल चुका है कि उसे एक सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है। सब से बड़ी ज़रूरत जवान की समस्या समझने और उपयुक्त स्तर पर उसकी पैरवी करने के लिए एक मजबूत प्लेटफॉर्म की जरुरत है। आज उन्हें समझने और उठाने का काम अफसर कर रहा है जो कि हक़ीक़त में उस की दिक्कतों को स्वयं की जायज़ और नाजायज़ मांगें मनवाने के मुलम्मे के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।
तीनों सेनाओं के प्रमुख ने मुख्यतया अफसरों की मांगें (कुछ जायज भी) ले कर पे कमीशन अटकाया हुआ है, बाबू कम खर्च और अपनी सर्वोच्चता बरकार करने में उलझे हैं। देश अपने सैनिक की बहादुरी की अफीम के नशे में झूम-झूम कर सोशल साइट्स पर वायरल है। और इस सब से बेख़बर जवान देश सेवा में डटा है।
कितना लिखूँ मैं??  आप सेवा करने वाले को मेवा बाँटने की पैरवी कीजिए मैं बस इतना ही कहूंगा
'समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र।
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।।'
जयहिंद!!

Wednesday 12 October, 2016

अरविन्द केजरीवाल के नाम खुला पत्र

श्री अरविन्द केजरीवाल,
      मैं दुर्भाग्य से (जिसे मैं लम्बे समय से अपना सौभाग्य समझता रहा) अन्ना आन्दोलन के दौरान आपका सहभागी रहा हूँ। हालाँकि आप के पार्टी गठन के फैसले से सहमत न होने के बावजूद मैं कुछ समय तक आप लोगों से जुड़ा रहा और उस से भी लम्बे समय तक आप का प्रशंसक रहा। मैं नारनौल के ऐतिहासिक आज़ाद चौक में आपकी (AAP की नहीं) सभा करवाने वाले अग्रणी स्वयंसेवकों में शामिल रहा और इस रैली का मंच सञ्चालन भी किया। आपके कारनामों से आपके प्रति प्रशंसा पहले निराशा फिर तरस और अंततः खीज में बदल गयी। किन्तु आज भी मैं ट्विटर पर आपको फ़ॉलो करता हूँ। उसका कारण आप जैसा बनने की चाह तो बिलकुल ही नहीं है हाँ आपका स्तर जांचते रहना अवश्य ही है। आज ही आपने ट्वीट किया है-
      ‘SALUTATIONS ON IMAM HUSAAIN
            The Greatest Martyr of Mankind
अंग्रेजी भाषा के मेरे ज्ञानानुसार इस का अर्थ हुआ-
     ‘मानवता के महानतम शहीद इमाम हुसैन को अनेकों सलाम’
 क्षमा चाहूँगा इस पत्र के द्वारा मेरा मकसद इमाम हुसैन की शहादत पर सवाल उठाना या कम करके आंकना नहीं है। जन्म से सनातनी हिन्दू, मैं बिना किसी भेदभाव के मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर जाता रहता हूँ और यह तो कुछ नहीं 20 साल सेना के ऐसे माहौल में रहा हूँ, जहाँ हर धर्म स्थल का साँझा आहता होता है तथा धार्मिक भेदभाव का नाम निशान तक नहीं होता। ईश्वर से मेरा सम्बंध नितांत निजी है और मैं कर्मकांडी या नियमित पूजापाठी भी नहीं हूँ। ‘वसुदैव कुटुम्बकम’ पर आधारित मेरा सनातन धर्म मुझे अधिकार एवं स्वतंत्रता देता है कि मैं स्वविवेकानुसार इस प्रकार का जीवनयापन कर सकूँ। बहरहाल मैं आपको भी अब तक मेरे जैसा ही सनातनी हिन्दू समझता रहा और आपको भी मेरे जैसी ही आजादी  का अधिकारी मानता रहा। और यह भी मानता रहा हूँ कि मेरी तरह आपको भी सनातन धर्म हर सम्प्रदाय में मौजूद तत्वों की सराहना करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है! किन्तु हक़ीकत में धर्म आपके लिए तुष्टिकरण की राजनीति का विषय ही बन कर रह गया है।
      आपने अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी स्वराज का रोना रोने में गुजार दी आज आपसे प्रश्न है कि स्वराज आखिर है क्या? क्या स्वधर्म स्वराज का हिस्सा नहीं? क्या ग्रामदेवता का महत्व ब्रह्मा से भी ज्यादा नहीं? आपने हुसैन साहब को मानवता के इतिहास का सब से बड़ा शहीद कहा, मुझे इस से कोई ऐतराज नहीं होता अगर आप मुस्लिम रहे होते। मुझे तब भी ऐतराज न होता यदि आपने उन्हें इस्लाम के लिए कुर्बान होने वाला सब से  बड़ा शहीद कहा होता। लेकिन आपने उन्हें मानवता का सब से बड़ा शहीद कहा है! आश्चर्य है, आपने स्वराज और स्वधर्म के स्थानीय नायकों के प्रति इतना प्रेम और सम्मान कभी नहीं दिखाया! स्वराज नामक पुस्तक लिखने वाले तथाकथित लेखक से यह प्रश्न तो बनता ही है कि देश के इतिहास की उसे कितने जानकारी है? यदि जानकारी है तो फिर यह ताज़ा-ताज़ा सोच नाटक नहीं है तो क्या है? इमाम साहब ने धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा हेतु लड़ते हुए अपनी जान दे दी। अवश्य ही उन्हें इस बलिदान के लिए याद किया जाता है, किन्तु मानवता के इतिहास की बात विशेषकर आप यदि करते हैं तो आप से प्रश्न होगा कि हुसैन साहब की शहादत का जिक्र करते समय आपने, खासकर आपने, एक सनातनी हिन्दू होते हुए राजा दाहिर की शहादत का जिक्र क्यों नहीं किया जिसने पैगम्बर मोहम्मद (स.) के बच्चों की रक्षा के लिए राज्य और जीवन बलिदान कर दिया? एक भारतीय होते हुए आपका फ़र्ज़ था कि इस बात का जिक्र करते कि किस तरह इमाम हुसैन राजा दाहिर के आमंत्रण पर सिंध में शरण लेने जाते हुए करबला में शहादत को प्राप्त हुए! यह एक तरफ तो सनातन के इस्लाम की रक्षा के योगदान पर प्रकाश डालता और दूसरी तरफ हिन्दू-मुस्लिम को नजदीक लाता, जो आज की सब से बड़ी जरुरत है। आपने इतनी तत्परता और इतना प्रेम गुरु गोबिंद सिंह के अबोध बालकों के प्रति कभी नहीं दिखाया जिन्होंने अपना धर्म त्यागने की बजाय जिन्दा दीवार में चुना जाना स्वीकार किया। क्या आपको उनकी शहादत की तिथि याद है? आपने बंदा सिंह बहादुर का जिक्र नहीं किया जिन्हें तरह तरह की यातनाएं दी गयी और उनके पुत्र की हत्या कर के उसका कलेजा निकाल, उनके मुहँ में ठूँसा  गया! क्या आपको उनकी शहादत की तिथि याद है? आपने शिवाजी के पुत्र संभाजी का कभी नाम नहीं लिया जिन्हें धर्म बदलने का लालच दिया गया और इंकार करने पर उनके शरीर से चमड़ी नोच-नोच कर यातनाएं देते हुए उनकी हत्या कर दी गयी! क्या आपको उनकी शहादत की तिथि याद है? आप उन वीरों के प्रति क्या बोले जिन्होंने स्वधर्म, स्वराज और स्वतंत्रता के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी और उन वीरांगनाओं के प्रति जिन्होंने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर कर लिया? ऐसे अनगिनित गुमनाम शहीद जिन्होंने अपने धर्म की रक्षा हेतु अपनी जान दे दी! वो बहादुर सिन्धी और पंजाबी जो बंटवारे के समय अपना सब कुछ छोड़ कर सिर्फ धर्म अपने सर पर रख कर अपने ही देश में शरणार्थियों का जीवन जीने पर मजबूर हुए! वो कश्मीरी पंडित जो अपना सब छोड़ कर अपनी ही जमीन पर विस्थापितों का जीवन गुजार रहे हैं! इन सब में और हुसैन साहब में एक बात सांझी है और वो है स्वराज और स्वधर्म के प्रति उनका प्रेम! आपके मुख से कभी उनके लिए शब्द प्रकट नहीं हुए! आप की नवीनतम ट्वीट के प्रकाश में मैं जानना चाहता हूँ की इन सब का त्याग आपकी नज़र में किस प्रकार कम है? हुसैन साहब को शहादत किस ने दी? हिन्दुओं ने? ईसाईयों ने? या फिर यहूदियों ने? नहीं न? उन्हें मुसलमानों ने ही शहीद किया! मैं तो यह कल्पना भी नहीं कर पा रहा कि आपकी प्रतिक्रिया क्या होती यदि उनकी शहादत के लिए कोई हिन्दू जिम्मेदार हुआ होता! हुसैन साहब ने स्वराज और स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया, स्वराज के प्रति जो स्वाभिमान उन में था, स्पष्ट है कि आपमें बिलकुल नहीं है और आपका यह नवीनतम नाटक पाखंड के सिवा कुछ नहीं! आपके इस पाखंड से स्वराज, स्वधर्म और स्वाभिमान के लिए कुर्बान होने वाले हुसैन साहब की ही रूह सबसे अधिक आहत होगी! साथ ही इस पाखंड में बहकने वाले मूर्ख ही कही जायेंगे!

जयहिंद

Tuesday 27 September, 2016

Don't Cry for me

A friend has written a post regarding news of depositing money in some account for our soldiers. I don’t know the bonafide of the news but there was something in the friend’s post which has shaken the soldier in me. It was something as if it were soldiers behind opening of this account and like faujis join fauj at their own free will. This is something I found in bad taste. Who opened this account I am not aware. But I am sure no fauji has approached any one and begged money out of their hard earned money. Ppl join fauj with their own free will, that's true. But let me tell a thing, ppl don't join fauj but faujis r born as fauji. Those who join fauj, since their childhood they dream of being in fauj. Let me assure you friends, certainly faujis don't need alms. They need support of their fellow countrymen. When they guard nation in subzero temperature or under scorching sun, rain, storm or in waters or air, leaving their old parents and children behind, they expect, those who are left home, will be taken care of by the fellow countrymen. After walking or tattu or camel ride, in difficult terrain for days, when they board trains, holding AC class railway warrant in hand but without reservation, they travel upto 72 hrs sitting besides toilet, and sometimes inside the toilet, they expect frm you, the fellow countrymen, you will take their voice to the highest level for a confirm ticket. They don’t join fauj for money, as no currency has the power to pay for the service rendered by a soldier to his fellow countrymen. He joins, serves and ultimately dies owing to the emotions for his motherland. This is the emotion and not money which separates a soldier from a mercenary. Those who weigh everything in terms of money they can never understand what I mean to say. But when you enjoy weekend at some beach or in a mall, when you watch the first show of your favorite cine star’s new movie, when your entire family enjoys its dinner at some road side family dhaba, and when you smile at your kid while he unboards his school bus, there is somebody who does not get all these luxuries, still he is guarding you so that you can avail all that which he is deprived of. He has not seen his kid for months together, he has not heard his voice for days! Last thing he knows that his child had fever, his wife was arranging someone to visit a doctor. Yes he joined fauj on his own free will! He owns the whole responsibility of his decision but are we so materialistic that we can just shrug and say, ‘it was you own decision, be with it dear soldier!’
Remember my fellow countrymen for your every smile there is someone who is sweating and bleeding to hold it intact and to keep your head high. A soldier does not need your money what he needs is your faith in him and support, for he has not joined fauj for money he did so out of emotions! 

Monday 29 August, 2016

धार्मिक क्रूरता

इस्लाम जो आज हो गया है उसका उद्देश्य है समाजों में प्रचलित हजारों साल पुराने संस्कार और रीति रिवाजों का गला दबा कर अरब में प्रचलित व्यवस्थाओं को लागू करना। देवबंदी तंजीमों का ये सफ़ल प्रयोग कश्मीर में साफ़-साफ़ दिखाई देता है। ये वहाबी रिवाज़ भौगोलिक-सामाजिक रूप से अरब में सही कहे जा सकते हैं पर अन्य जगहों  पर इनकी सार्थकता पर विचार किया जाना जरूरी है। अगर पर्दा औरत के लिए जरुरी मान भी लिया जाये तो यह अरबी बुर्के की शक्ल में ही क्यों! बिना किसी सामाजिक-भौगोलिक विवशता के क्यों मूछें साफ़ कर के दाढ़ी बढ़ाई जाए! कुरान क्यों हिंदी, पंजाबी, उर्दू या संस्कृत की जगह  अरबी में ही पढ़ी जाए? अल्लाह का हिंदी अर्थ भगवान क्यों नहीं है?
मेरे गृह नगर के समीप एक मज़ार, जिस पर आमतौर पर हर मजहब के लोग जाया करते हैं, के मुख्य द्वार पर स्वास्तिक का चिन्ह बना था। कुछ साल पहले मज़ार प्रशासन ने नए सिरे से दीवारों पर चित्रकारी करवाई और इस क्रम में स्वास्तिक चिन्ह पोत दिया गया। भारत की भूमि ने हर संस्कृति का स्वागत किया है और उसे अपने जीवन में शामिल किया है। बशर्ते उस संस्कृति ने भी भारत की मिट्टी में रचने बसने की कोशिश की हो। मुस्लिम फकीरों की मज़ारों पर जाने वाले हिंदुओं की संख्या किसी भी सूरत में मुस्लिमों से कम नहीं होती। यही हाल ईसाई संतों की श्राइनों का भी है। कहते हैं धर्म तोड़ता नहीं जोड़ता है किंतु यहाँ विश्व के दो सब से बड़े 'मत' 'धर्म' का लिबास ओढ़ कर अधिक से अधिक लोगों को 'तोड़' कर अपने में 'जोड़ने' को लालायित हैं। मेरा विरोध न इस्लाम से है न ईसाईयत से। मुझे बड़ी तल्ख और कड़वी शिकायत हजारों सालों के मानव जीवन के विकास की गाथा को मिटा कर कुछ शताब्दियों के अंतराल में जन्मी पद्धतियों और वहाँ के रीति रिवाज़ों को अन्यत्र थोपने की कुचेष्टा पर है। ज़ाहिर सी बात है न तो ईसा मसीह ने ईसाई मत बनाया और न ही पैगम्बर मोहम्मद ने इस्लाम! उन्होंने तो उस काल के समाज की कुरीतियों को दूर करने के प्रयास हेतु एक जीवन शैली उस समय के समाज के सामने रखी। उसके बाद की गाथा तो उनके बाद के उनके तथाकथित अनुयायियों ने अपनी सुविधा के अनुरूप लिखी। और उस गाथा में वो सब है जो उन 'अनुयाइयों' ने चाहा, नहीं है तो प्रभु यीशू और मोहम्मद साहब की वो सोच जो कि उनके विचारों की आत्मा है। अगर ऐसा न होता तो इस्लाम इतने फिरकों और ईसाईयत इतनी शाखाओं में न बँटी  होती। इन शाखों का होना भी आश्चर्य की बात नहीं।  इस्लाम और ईसाइयत भी आख़िर दो महान पुरुषों के विचार ही तो हैं। निश्चित ही मानव समाज के विकास का ईंधन विचार ही है। उन विचारों में अन्य विचारों का आ मिलना मानवीय विकास के क्रम का एक सहज़ पक्ष है। उन नये विचारों से कुछ लोगों का सहमत और कुछ का असहमत होना भी एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। यही हर संप्रदाय के विभाजन का मूल कारण है। प्रभु यीशू और पैगम्बर साहब  के अनुयायियों का विभाजन भी उतना ही सहज़ और स्वाभाविक था जितना कि इन दो महापुरुषों का उन से पहले के अन्य महापुरुषों के मतों और विचारों से अलग होना। इन में से किसी ने स्वयं के ईश्वर होने का दावा नहीं किया। किन्तु इन के अनुयायियों ने इन्हें ईश्वर के रूप में स्थापित कर दिया। मैं इस स्वतंत्रता दिवस पर एक मिशनरी स्कूल के आयोजन में गया। वहां एक गाना चलाया गया जिस में जीसस से भारत को खुशहाली प्रदान करने की प्रार्थना की गयी थी। निःसंदेह इस का सन्देश सुखदायी है परन्तु क्या जीसस ने स्वयं को कभी भगवान के रूप में प्रचारित किया था? यही हाल इस्लाम का भी है। बुत परस्ती का विरोध करने वाले अनुयायियों के पास इस बात का संतोषजनक जवाब नहीं है कि आख़िर मक्का जाना बुत परस्ती से अलग कैसे है। और मुस्लिम संतों की कब्रें-दरगाहें बुत क्यों नहीं हैं? अब इनमें भी इस्लाम के अनुयायियों में विरोध है। कुछ के अनुसार यह इस्लाम में मान्य है कुछ के अनुसार नहीं। असल में तो ये सब बातें मानव स्वभाव  पर आधारित हैं। सहमति और असहमति मानव का अन्तर्निहित गुण है। किसी की मान्यताओं को धता बता कर अपनी मान्यताएं थोपना पूरी मानव जाति के प्रति अपराध है। मेरा सख्त विरोध किसी समाज की परंपराओं को मिटा कर आयातित परम्पराओं के प्रति है। इस्लाम और ईसाईयत के प्रचारकों ने यदि स्वयं के मत को उत्तम कह कर   भारत की सनातन परम्पराओं के स्थान पर स्थापित करने की बजाय यहाँ के समाज संस्कृति में मिलने की कोशिश की होती तो संभवतया आज मोहम्मद पैगम्बर और ईसा मसीह की भी अवतारों के रूप में पूजा हो रही होती। इसका जीता जागता उदाहरण शिरडी के साईं बाबा का है। कि किस प्रकार एक मुस्लिम फ़क़ीर को हिन्दू मंदिरों में स्थान मिल गया। मेरा प्रखर विरोध जनसमूहों द्वारा कालांतर में विकसित परम्पराओं को समाप्त कर नई विचारधारा लादने की 'धार्मिक' क्रूरता के प्रति रहा है और रहेगा।

Thursday 25 February, 2016

वैकल्पिक अध्ययन (alternate study)

वैकल्पिक अध्ययन यानि alternate study के नाम पर क्या किसी को कुछ भी कहने और करने की इजाज़त दी जा सकती है? वैकल्पिक अध्ययन? ये क्या है? निर्दोषों की हत्या में शामिल व्यक्ति को एक संप्रभु देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा सुनाई गयी और संवैधानिक तरीके उस देश के राष्ट्रपति द्वारा नामंजूर की गयी दया अपील के बाद दी गयी सजा का विरोध वैकल्पिक अध्ययन है? सिर्फ एक संस्कृति और और उस के रीति रिवाजों का विरोध एक तरफ रहा पर उसका निचले दर्जे का अपमान है वैकल्पिक अध्ययन? महिसासुर की पूजा और दुर्गा का अपमान है वैकल्पिक अध्ययन? बीफ पार्टियों का आयोजन है वैकल्पिक अध्ययन? देश की बहुसंख्यक आबादी की हजारों साल पुरानी संस्कृति की मान्यताओं का अपमान करके कुंठित मानसिकताओं की संतुष्टि है वैकल्पिक अध्ययन? सत्य का रूप एक हो सकता है उसके बोलने के तरीके अलग, यह है वैकल्पिक अध्ययन! क्योंकि ‘एकं सत् विप्रा: बहुदा वदंति’! सिर्फ बोलने के तरीके में फर्क के बावजूद प्रकटीकरण का जरिया है वैकल्पिक अध्ययन जो सत्य है वही सम्यक सोच है। सम्यक सोच वाले समूह को ही समाज कहते हैं। बिना सम्यक सोच के समाज सिर्फ एक बे-लगाम भीड़ है। और समाज बहुत जगह देवताओं और चरित्रों से भी बड़ा है। यह समाज ही है जो कि एक तरफ तो रावण को बुराई का प्रतीक मान कर हर साल उसका दहन करता है और दूसरी तरफ उसके द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र को उत्कृष्ट रचना मान कर उसका गायन करता है। एक तरफ राम की भगवान मान कर पूजा करता है दूसरी तरफ बाली वध के तरीके और सीता को त्यागने की आलोचना करता है, दुखी होता है। आपको बाली और मेघनाद नाम बहुत मिल जायेंगे लेकिन विभीषण नाम नहीं मिलेगा। चरित्र कभी भी सत्य से बड़े नहीं हो सकते। इसी लिए सत्य ही ईश्वर है, ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम्’! सत्य को स्वीकार कर के चलने वाला समाज ही सम्यक समाज हो सकता है क्योंकि सत्य ही सनातन है! बेशक सीता का हरण करने वाले रावण और अबलाओं पर कहर ढाने वाले महिसासुर यहाँ से चले जाएँ और साथ ही चले जाएँ भाई के खिलाफ़ दुश्मन से मिल जाने वाले विभीषण और एक सती को घर से निकालने वाले राम भी! एक सभ्य और सम्यक समाज में सिर्फ मर्यादा पुरोषत्तम राम, ज्ञानी-विद्वान-चरित्रवान रावण और सत्य को स्वीकार करने वाले भैरवनाथ को ही रहने की इजाज़त है।

Wednesday 24 February, 2016

मनुस्मृति, संविधान और आज का भारत

सब से बड़ी ग़लती तो यही हुई कि संविधान का मूल मनुस्मृति को नहीं बनाया गया। जिस वक्त संविधान बना हमारे पास समय था कि हम मनुस्मृति समेत अन्य स्मृतियों, वेदों, शास्त्रों, पुराणों आदि का अध्ययन करते, उनके लिखे जाने से अब तक हुए मानव जाति के विकास की तुलना करते और फिर संविधान का निर्माण करते। न जाने क्यों लोग ये मानने से डरते हैं की भारत में संवैधानिक प्रक्रिया का निर्माण मनुस्मृति काल से ही हुआ है न  कि 1950 से। किन्तु संविधान निर्माण के समय बाबा साहेब समेत देश का पूरा शिक्षित वर्ग मैकाले पद्धति की शराब के नशे में दुत्त था हम अपनी परम्पराओं को नष्ट कर के पश्चिम की और देख रहे थे। ऐसे समय में, पूर्वाग्रहों की पृष्ठभूमि में, मनुस्मृति में आई मिलावटों को परे हटा कर उसे संविधान का मूल बनाने की भारी भूल कर दी गई। सनातन में प्रचलित मान्यताओं और परम्पराओं की विवेचना करके कालांतर में हुए प्रदूषण से उन्हें मुक्त कर अंगीकार करने की बजाय उन्हें riddles (पहेलियाँ) करार दिया गया। इस बात को बिलकुल नजरंदाज कर दिया गया कि एक कान से दूसरे कान तक पहुंची बात में ही मानव नामक जीव मिलावट कर देता है तो हजारों साल पुरानी मनुस्मृति के साथ क्या हुआ होगा! किन्तु संविधान बनाते समय 5 हजार साल से ज्यादा पुरानी सभ्यता को लगभग नजरंदाज कर के नए-नए ‘इन्सान’ बने देशों की तरफ देखा गया। अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता के लिए अमेरिका जाने की क्या जरुरत थी जब उसके ढेरों उदाहरण भारतीय उपमहाद्वीप पर ही मौजूद थे! कल्पनाशील लेखकों ने अपनी यौन कुंठाओं की तुष्टि हेतु जब ऋषियों और देवताओं के मिथ्या किस्से गढ़ दिए और उनका सर कलम करने की बजाय साहित्य में स्थान मिला इस से बड़ी अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता क्या हो सकती है? समाज के बाहर से आए और सामाजिक ढर्रे से उतरे सदस्यों को समाहित करने की व्यवस्था के प्रावधानों समेत अनेकों उदाहरण होते हुए भी संशोधन के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा! राज्य के नीति निर्धारक सिद्धांतों हेतु आयरलैंड क्यों गए जब इसके लिए चाणक्य नीति और अशोक के शिलालेख भरपूर मदद कर रहे थे? क्या उपनिषदों को नकारना चाहिए था? क्या सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः और वसुधैव कुटुम्बकम को सिर्फ भगवाँधारी साधुओं के प्रयोग हेतु ही न छोड़ कर संविधान में इसे उचित स्थान नहीं दिया जाना चाहिए था? क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बौद्धकाल में भी अस्तित्व में रहे लोकतन्त्रों के पास कुछ नही मिला? क्षमा चाहूँगा किन्तु असल में संविधान के निर्माताओं ने भारत के संविधान को बनाते समय, पाश्चात्य मूल्यों की रौशनी में, हजारों साल पुरानी भारतीय सामाजिक व्यवस्था और परम्पराओं की घोर उपेक्षा करते हुए संविधान का निर्माण किया है। प्राचीन साहित्य को सिर्फ riddles करार देना एक विकसित सभ्यता के साथ क्रूर अन्याय के सिवा कुछ नहीं है। मैं यह नहीं कहता कि अन्य सभ्यताओं के विकास से शिक्षा नहीं ली जानी चाहिए थी किन्तु इसमें कोई शक नहीं कि संविधान निर्माण के समय भारतीय सभ्यता की घोर उपेक्षा की गयी। निश्चय ही संस्कार कानून से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। संस्कार प्रेरित होते हैं और कानून बाध्यकारी। एक संस्कारी मनुष्य कभी कानून विपरीत कार्य नहीं करता। संस्कारों और सामाजिक मान्यताओं को समाप्त करके हम ने समाज को कानून के हवाले कर दिया। नतीजा, न हम कानून के रहे न संस्कार के! देश जातिवाद की आग में जल रहा है। जाति समाप्त करने के नाम पर किये गए प्रयास ही जातिगत वैमनस्य का कारण बन रहे हैं और हम मनु समर्थक और मनु विरोधी जैसे खेमों में बंटे है। जबकि हकीकत में मनुस्मृति न ये खेमा पढता है न वो! व्यवस्था में जब भी विकार आए हमें आयातित पैबंद लगाने की बजाय जड़ों की तरफ जाना चाहिए! जरूरत है सभी को साथ बैठ कर मनुस्मृति पर विचार करने की, स्वार्थी तत्वों द्वारा उस में किये गए घालमेल को पहचान कर अलग करने की तथा प्रारंभ से ले कर आज तक की सामाजिक घटनाओं और दुर्घटनाओं की विवेचना करने की। यह सब करने के बाद हम बची हुई शुद्ध परम्पराओं की तुलना समकालीन व्यवस्थाओं से करते हुए वर्तमान में आएँ बिना ‘ख़त्म करो’ और ‘बचाओ’ के नारे लगाये एक संगठित समाज और देश के रूप में हम एक फैसले पर आ जायेंगे और वहीँ से सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः एवं वसुधैव कुटुम्बकम की शुरुआत संवैधानिक रूप से होगी