जाति जंजाल
वैदिक काल में वर्णों का वर्णन है जो कि कर्म के आधार पर वर्गीकृत हैं तथा जन्मजात नहीं हैं। मनुस्मृति में भी वर्ण कर्म आधारित हैं, जो कर्म बदलने पर बदल भी सकते हैं। जाति की उत्पत्ति संभवतः संक्रमण काल में तब हुई होगी जब संस्कृति को बचाने की चुनौती आ पड़ी। समाजशास्त्रियों तथा इतिहासकारों के एक वर्ग के अनुसार जाति शब्द ज्ञाति से बना है, यानि जिसे जिस विषय का ज्ञान अर्थात ज्याति (ज्ञाति) थी उसी की जिम्मेदारी उस ज्ञान को संजोने की दी गई यही बाद में रूढ़ हो कर जाति हो गया। यह बात एक ही गौत्र का अलग - अलग जातियों में पाए जाने का एक मजबूत तर्क हो सकती है। यदि ऐसा है तो इस घटना और आबू पर्वत पर हुए उस यज्ञ में बहुत अधिक समय का अंतर नहीं रहा होगा जिस से चार वीर पुरुषों की उत्पत्ति हुई तथा क्षत्रिय की जगह राजपूत शब्द अधिक प्रयोग होने लगा। जैसे- जैसे विदेशी आक्रमण और संक्रमण का उत्पात बढ़ने लगा, संस्कृति बचाने के नियम भी दृढ़ होते चले गए परिणाम स्वरूप जाति व्यवस्था भी कठोर होने लगी। पहले से चले आ रहे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के नियम भी बदले। सब से बड़ी चुनौती तो इस्लामी संक्रमण की थी जो कि सनातनी व्यवस्था में घुलने को कतई तैयार नहीं था तथा पूरी काफिर दुनिया को मोमिन बनाने के उद्देश्य से जिहाद को प्रथम कर्तव्य माने बैठा था। लगता है जब तक वर्ण व्यवस्था थी तब तक तो ठीक था किंतु जैसे ही वर्ण व्यवस्था जन्मानुसार हुई और फिर जाति व्यवस्था स्थापित हुई तब अनेक समस्याएं आई होंगी। जिनमें से एक थी अलग जाति की कन्या और पुरुष का विवाह। अब सबसे बड़ा प्रश्न था कि अंतरजातीय प्रेम विवाहों से कैसे निपटा जाए। रोजाना होने वाले विदेशी आक्रमणों से रक्षा का भार क्योंकि क्षत्रियों पर था जिनके लिए क्षत्रिय के अलावा राजपूत शब्द लगभग छठी शताब्दी में रूढ हो चुका था। हालांकि यह शब्द राजपुत्र के रूप में सदा प्रयोग होता रहा था। बहरहाल लगातार विदेशी आक्रमणों ने राजपूतों का महत्व बढ़ा दिया तथा उनकी लड़ने की जिजीविषा को जीवित रखना समाज के सामने और बड़ी चुनौती हो गई। अस्तित्व बचाए रखने के लिए जिस प्रकार कठोर जाति व्यवस्था स्थापित हुई उसी तरह कठोर राजपूत धर्म भी स्थापित कर दिया गया। अब समाज के रक्त के साथ राजपूती रक्त को शुद्ध रखना और अधिक आवश्यक था। अंतर्जातीय प्रेम विवाह इस शुद्धता में सब से बड़ा रोड़ा थे जबकि सम्मान, शक्ति तथा अधिकारों से लैस राजपूतों के लिए ये विवाह सहज सुलभ ही थे। वो भी तब जब अनुलोमा तथा प्रतिलोमा विवाह की खिड़की मौजूद थी। अतः यह विवाह संबंध इस नियम के साथ स्वीकार किए गए लगते हैं कि यदि कोई राजपूत पुरूष किसी अन्य जाति की कन्या से विवाह कर लेता है तो उसकी संतान को राजपूती से हाथ धोना पड़ेगा तथा उसकी संतान को कन्या की जाति में स्थान दिया जाने लगा। हां इतना अवश्य था कि संपत्ति अथवा राज्य में उसको उसका भाग अवश्य दिया गया। अतः माता की जाति के अन्य गोत्रों से उसका सम्मान स्वतः ही अधिक हो गया। आज भी इस प्रकार के गोत्रों का अपनी-अपनी जातियों में एक सम्मानजनक स्थान है तथा इनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति तथा रहन सहन अपने सजातीय बंधुओं से इक्कीस है। अर्थात यह कोई अपमानजनक बात नहीं थी बल्कि एक सामाजिक समाधान था। यह निःसंदेह एक अभिनव प्रयोग था जिस ने एक ओर तो समर्थ के स्वेच्छाचार पर लगाम लगाई, महिलाओं को शोषण के विरुद्ध सुरक्षा दी तथा दूसरी ओर ऐसे दंपतियों के वंशजों का समाज में सम्माननीय स्थान निर्धारित कर के सामाजिक संकट का सुंदर समाधान कर दिया। उस दंपति के ऐसे वंशजों को गौत्र पिता के नाम (जैसे मांधाता से 'मान' जाट, केवल राव से केवल नाई), किसी स्थान (खोल से 'खोला' अहीर) या घटना (पुरुष पूर्वज द्वारा शेर का सर काटने पर 'मूंडड़ा' गूजर) या परम्परा (दो बार मुंडन करवाने से 'दोलट' जाट) आदि से दिया जाता! कभी कभी पिता के मूल वंश का नाम गौत्र के रूप में भी प्रयुक्त होता। जैसे 'भाटी'- गूजर, कुम्हार, मनियार! जैसे 'चौहान' - जाट, गूजर, खटीक, चमार, धोबी, माली। जबकि राजपूतों के गोत्र आज भी प्राचीन गोत्र ही हैं जैसे चौहानों और उनकी चौबीस शाखाओं का गौत्र वत्स, राठौड़ व शाखाएं - कश्यप, भाटी व शाखाएं- अत्री, सोलंकी व शाखाएं - भारद्वाज, आदि। ऐसा सिर्फ राजपूतों के साथ ही नहीं था बल्कि अनुलोमा विवाह से उत्पन्न संतान का कन्या की जाति में जाने का नियम अन्य जातियों में भी कहीं कहीं दिखाई देता है। ऐसा नहीं है कि उसे पूर्वज पिता ने अपनी जाति में शामिल करने का प्रयास नहीं किया। किंतु ऐसा प्रयास समाज के कठोर नियमों ने कहीं सफल नहीं होने दिया। ऐसे मौके भी आए जब राजा को देश छोड़कर भागना तक पड़ा।
ऐसे भी उदाहरण हैं कि किसी राजपूत ने युद्ध से इनकार कर दिया तथा अन्य जाति के कार्य अपना लिए और उस जाति में शामिल हो गया।
देखिए कैसे जातियों की स्थापना ने राष्ट्र की आत्मा को बचा कर रखा और क्यों वामपंथियों के लिए सबसे आवश्यक जाति खत्म करना है। एक समय था जब सारे पूर्वज महापुरुष सबके थे। गोगा जी, तेजाजी, रामदेव, देवनारायण, आदि सब! फिर वामियों ने जातिवाद घुसेड़ा और अब ये जातियों के हैं। यहां तक कि राम और कृष्ण की भी जाति है। लोग सोशल मीडिया पर लड़ रहे हैं, एक दूसरे को गालियां निकाल रहे हैं महापुरुषों को कलंकित कर रहे हैं। इस से भी बुरा समय तो अभी बाकी है। फिर भी कहूंगा, जब भी संशय हो जड़ों की ओर जाओ, समाधान मिलेगा!
(गोत्रों के उद्भव से संबंधित उपरोक्त सभी उदाहरण प्रमाणिक पुस्तकों से लिए गए हैं। सोर्स जानने के लिए कमेंट कर सकते हैं)
सादर
राकेश चौहान
#RSC
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