poems

Wednesday 2 October, 2013

फेसबुक्कड़ बुद्धिजीवी

हर चीज का जमाना होता है। एक समाय था जब एक पत्थर उखाड़ो उस के नीचे तीन नेता निकलते थे। आज समय है एक पत्थर  उखाड़ो उस के नीचे पांच बुद्धिजीवी निकलते हैं। पर शर्त ये है कि ये पत्थर  आप को फेसबुक में उखाड़ना होगा। वाकई इन्टरनेट और सोशल साइटों ने आम आदमी को अपनी भावनाएं प्रकट करने का कितना अच्छा मंच दिया है। अक्सर ये बुद्धिजीवी किसी न किसी तरफ झुकाव वाले पाए जा रहे हैं। इन में ऊर्जा खूब है पर अध्यययन की कमी है। अध्ययन है तो वो भी पूर्वाग्रही। कोई मुसलमानों को गाली दे कर हिन्दू धर्म को महान बता रहा है, तो कोई महाशय हिन्दू के खिलाफ बोल कर खुद को सेक्युलर साबित करने पर तुले हैं। कुछ कुंठित हैं और इतने कुंठित कि अपने पूर्वजों और संस्कारों को भी गालियाँ देने, कोसने में में उन्हें गुरेज नहीं। कुछ अपने गौरवशाली अतीत, जिस में उन का लेशमात्र भी योगदान नहीं, के नीचे दबे जा रहे हैं। कुछ कट्टरवादी इतने प्रतिभावान कि जिन में समाज को दिशा देने की आपार सम्भावनाएँ दिखाई देती हैं और कमाल की बात न जाने क्यों मुझे उन के कट्टर होने में इतना खतरा नजर नहीं आता जितना कुंठित बुद्धिजीवियों से। शायद इस लिए कि मेरा मानना है कि समाज में कुंठित व्यक्ति सब से खतरनाक होता है। बहरहाल इस दुनिया में कुछ लोग इतने सुलझे हुए हैं कि उन का एक-एक शब्द कई पुस्तकों जैसा है। पर जैसा ज़माने में सदा होता रहा है उन की आवाज हो-हल्ला मचाने वालों की आवाज में दब जाती है। पर असल में ये लोग वो लोग हैं जिन कि  बात सुनी जानी चाहिए और यही वो बात है जो समाज के लिए सही और सम्यक रास्ता तैयार करेगी। मैं आभारी हूँ इन्टरनेट क्रांति का कि मैं अपने छोटे से जीवनकाल में मानवीय संवेदनाओं से भरे इतने रंगबिरंगे विचार पढ़ पर रहा हूँ। ये अहसास होली के बहुरंगी उत्सव जैसा है। चलिए फिर लौटें अपने फेसबुक की वाल पर इस उत्सव के नए रंग में भीगने को। 

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