poems

Sunday 16 March, 2014

लाल- गुलाबी


बचपन में दूरदर्शन पर आने वाला एक विज्ञापन याद आ रहा है। “ ये क्या भाई साहब आप लाल ही में अटके हैं? ये लीजिये गुलाबी और बड़ा ।“ पहले से स्थापित लाइफबॉय से प्रतिस्पर्धा में ये ओके साबुन का विज्ञापन था।
आम आदमी पार्टी के नेता योगेन्द्र यादव की हाल ही की जनसभा के बाद एक पत्रकार मित्र ने पूछ लिया कि क्या मैं आआपा में शामिल हो गया। उनका सवाल जायज भी था क्यों कि मैंने इस कार्यक्रम का मंच संचालन किया था। आम आदमी पार्टी के प्रति अपने झुकाव को मैं कभी नहीं छुपाता और अक्सर इस के कार्यक्रमों में भी शामिल होता रहता हूँ। इसी वजह से कुछ साथियों के निशाने पर अक्सर रहता हूँ। कारण कि जिन मुद्दों को ले कर हम साथियों ने जनलोकपाल आन्दोलन में भाग लिया, धरने, प्रदर्शन, यात्राएँ की, आआपा की विचार धारा में उस की झलक दिखती है । परन्तु किसी राजनैतिक दल में शामिल होने का फैसला छोटा नहीं होता। योगेन्द्र यादव की जनसभा भी इस फैसले को रोके रखने का एक मजबूत कारण ही साबित हुई। अपनी मृदु भाषा में उन्होंने प्रभावित करने वाले विचार रखे और उस के बाद मैंने कई व्यक्तिओं को भावुक होते पाया। उन्होंने अपना एजेंडा भी बताया। किसान, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा आदि विषयों पर भी सावधानी पूर्वक प्रकाश डाला। पर ये कहानियां तो हम लोग कब से सुनते आ रहे हैं। उन्होंने ग्राम स्वराज की बात की। उन्होंने कहा कि गाँव मृत हो चुके हैं। लगा कि आआपा की सरकार आएगी तो ग्राम स्वराज आ जायेगा गाँव फलेंगे फूलेंगे। अच्छा लगता है सुनने में! पर हकीकत ये है कि गाँव मरे  नहीं हैं बल्कि उन की हत्या कर दी गई है और उन के हत्यारे हैं मंचों पर खड़े हो कर सपने दिखाने वाले राजनेता। हर किसान की आत्महत्या की खबर पर किसी फ़िल्मी  डायलॉग की तरह कानों में आवाज गूंजती है “ये आत्महत्या नहीं हत्या है।“ ऐसा लगता है कि योगेन्द्र यादव जैसे लोगों को व्यवस्था परिवर्तन की जल्दबाजी है और इसी लिए सदस्यता अभियान, पार्टी, झाड़ू जैसे सत्ता प्राप्ति के पुराने परन्तु कारगर हथकंडे अपनाते दिखाई देते हैं। ऐसे में क्या आश्चर्य कि चार पैसे खर्च करके कुछ लोग खम्बों पर लटके मिलते हैं। राजनीति में कैरियर तलाशते राजनैतिक दलों के द्वारा लतियाये और धकियाये छुटभैयों, मेलों में होती कुश्तियों में भारी दान दे कर मुख्यातिथि बनते चेहरा चमकाऊओं  और खम्बों पर लटक दिसंबर-जनवरी की ठण्ड में ठिठुरते महानुभावों के आआपा की कश्ती में सवार होने की कार्यकर्ताओं की चिंता पर योगेन्द्र जी ने बड़ा सरल और देसी उदाहरण दिया कि गाडी में सवार  होने वाले लोग पहले बाहर से चिल्लाते हैं कि खोलो आने दो और फिर अन्दर घुस कर दूसरे घुसने वाले यात्रियों पर चिल्लाते हैं कि जगह नहीं है। महोदय आप के उदाहरण में थोड़ी कमी रह गयी। हो ये रहा है कि कुछ लोगों ने गाड़ी तैयार की और उन में से एक ड्राईवर की सीट पर बैठ बाकी सब को गच्चा दे कर किन्हीं दूसरों को ही बैठा कर गाड़ी भगा ले गया।
ऐसा लगता है कि अन्ना हजारे के सीधे, सरल और निर्दोष विचारों को ले कर चलने वाले केजरीवालों और मनीष सिसोदियाओं सरीखे सामाजिक कार्यकर्ताओं को योगेन्द्र यादव जैसे ‘प्रचलित दूषित’ राजनीति की गोद में पले धुरंधरों की सोच का ग्रहण लग गया है और आआपा की राजनीति उन्ही विचारों के इर्दगिर्द घूमती नजर आती हैं। सत्ता प्राप्ति से परिवर्तन के विचार में कुछ भी बुरा नहीं है परन्तु वह विचार अपनी सोच में लाना होगा। सब से बड़ी चिंता है कि क्या सत्ता हथिया कर गावों में स्वराज आएगा? बल्कि क्या ऐसे एक और भ्रष्ट जमात खड़े होने का खतरा नहीं है जैसा कि जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के बाद हुआ। जिस गाड़ी का जिक्र योगेन्द्र यादव ने किया सचमुच वैसी ही गाड़ी फिर से तैयार हो रही है। चुनाव, पार्टी और प्रचार के हथकंडों ने व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को कहीं पीछे धकेल दिया है। एक गंभीर प्रयास को ले कर बनी पार्टी राजनीति में कैरियर तलाशते लोगों का लॉन्चिंग पैड बनती जा रही है। बदलाव रातों-रात तो नहीं आते उन के लिए समय देना होता है बलिदान करना होता है। भाजपा जैसी पार्टी को खड़े करने में आरएसएस के लाखों स्वयंसेवकों ने अपना जीवन संगठन को समर्पित कर दिया। संपन्न घरों के नवयुवक भिक्षा के भोजन से गुजारा कर के संगठन के लिए अपना जीवन दे रहे हैं तब आरएसएस का वजूद है। आरएसएस को साम्प्रदायिक कह कर पल्ला झाड़ने वालों को इस की कार्यशैली से जरूर सीखना चाहिए। आआपा को सीखना होगा उन कामरेडों से जो कंधे पर झोला लटका कर चने खा कर पैदल घूमते घूमते बूढ़े हो गए। कांग्रेस बनने के 65 साल बाद आजादी मिली और कम से कम आम आदमी पार्टी को तो यह सीखना ही चाहिए कि कुछ लोग जो गुमनाम रह कर बलिदान देने को तैयार नहीं होंगे तब तक ना तो व्यवस्था बदलेगी ना ही पार्टी ही खडी होगी। गांवों की स्थिति तब सुधरेगी जब वहां जा कर गाँव के सामाजिक ढांचे को मजबूत किया जायेगा। सरपंच समर्थक, विरोधी और तटस्थ, तीन खेमों में बंटे लोगों को जब तक एक चबूतरे पर ला कर सामाजिक ढांचा ठीक नहीं किया जायेगा गाँव आबाद नहीं होंगे। अगर व्यवस्था बदलनी है तो त्याग करना होगा, बलिदान देने होंगे। ब्रांड वही चलेगा जो बेहतर भी होगा सिर्फ गुलाबी और बड़ा होने से काम नहीं चलने वाला। 

No comments:

Post a Comment

your comment please