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Wednesday, 24 February 2016

मनुस्मृति, संविधान और आज का भारत

सब से बड़ी ग़लती तो यही हुई कि संविधान का मूल मनुस्मृति को नहीं बनाया गया। जिस वक्त संविधान बना हमारे पास समय था कि हम मनुस्मृति समेत अन्य स्मृतियों, वेदों, शास्त्रों, पुराणों आदि का अध्ययन करते, उनके लिखे जाने से अब तक हुए मानव जाति के विकास की तुलना करते और फिर संविधान का निर्माण करते। न जाने क्यों लोग ये मानने से डरते हैं की भारत में संवैधानिक प्रक्रिया का निर्माण मनुस्मृति काल से ही हुआ है न  कि 1950 से। किन्तु संविधान निर्माण के समय बाबा साहेब समेत देश का पूरा शिक्षित वर्ग मैकाले पद्धति की शराब के नशे में दुत्त था हम अपनी परम्पराओं को नष्ट कर के पश्चिम की और देख रहे थे। ऐसे समय में, पूर्वाग्रहों की पृष्ठभूमि में, मनुस्मृति में आई मिलावटों को परे हटा कर उसे संविधान का मूल बनाने की भारी भूल कर दी गई। सनातन में प्रचलित मान्यताओं और परम्पराओं की विवेचना करके कालांतर में हुए प्रदूषण से उन्हें मुक्त कर अंगीकार करने की बजाय उन्हें riddles (पहेलियाँ) करार दिया गया। इस बात को बिलकुल नजरंदाज कर दिया गया कि एक कान से दूसरे कान तक पहुंची बात में ही मानव नामक जीव मिलावट कर देता है तो हजारों साल पुरानी मनुस्मृति के साथ क्या हुआ होगा! किन्तु संविधान बनाते समय 5 हजार साल से ज्यादा पुरानी सभ्यता को लगभग नजरंदाज कर के नए-नए ‘इन्सान’ बने देशों की तरफ देखा गया। अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता के लिए अमेरिका जाने की क्या जरुरत थी जब उसके ढेरों उदाहरण भारतीय उपमहाद्वीप पर ही मौजूद थे! कल्पनाशील लेखकों ने अपनी यौन कुंठाओं की तुष्टि हेतु जब ऋषियों और देवताओं के मिथ्या किस्से गढ़ दिए और उनका सर कलम करने की बजाय साहित्य में स्थान मिला इस से बड़ी अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता क्या हो सकती है? समाज के बाहर से आए और सामाजिक ढर्रे से उतरे सदस्यों को समाहित करने की व्यवस्था के प्रावधानों समेत अनेकों उदाहरण होते हुए भी संशोधन के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा! राज्य के नीति निर्धारक सिद्धांतों हेतु आयरलैंड क्यों गए जब इसके लिए चाणक्य नीति और अशोक के शिलालेख भरपूर मदद कर रहे थे? क्या उपनिषदों को नकारना चाहिए था? क्या सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः और वसुधैव कुटुम्बकम को सिर्फ भगवाँधारी साधुओं के प्रयोग हेतु ही न छोड़ कर संविधान में इसे उचित स्थान नहीं दिया जाना चाहिए था? क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बौद्धकाल में भी अस्तित्व में रहे लोकतन्त्रों के पास कुछ नही मिला? क्षमा चाहूँगा किन्तु असल में संविधान के निर्माताओं ने भारत के संविधान को बनाते समय, पाश्चात्य मूल्यों की रौशनी में, हजारों साल पुरानी भारतीय सामाजिक व्यवस्था और परम्पराओं की घोर उपेक्षा करते हुए संविधान का निर्माण किया है। प्राचीन साहित्य को सिर्फ riddles करार देना एक विकसित सभ्यता के साथ क्रूर अन्याय के सिवा कुछ नहीं है। मैं यह नहीं कहता कि अन्य सभ्यताओं के विकास से शिक्षा नहीं ली जानी चाहिए थी किन्तु इसमें कोई शक नहीं कि संविधान निर्माण के समय भारतीय सभ्यता की घोर उपेक्षा की गयी। निश्चय ही संस्कार कानून से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। संस्कार प्रेरित होते हैं और कानून बाध्यकारी। एक संस्कारी मनुष्य कभी कानून विपरीत कार्य नहीं करता। संस्कारों और सामाजिक मान्यताओं को समाप्त करके हम ने समाज को कानून के हवाले कर दिया। नतीजा, न हम कानून के रहे न संस्कार के! देश जातिवाद की आग में जल रहा है। जाति समाप्त करने के नाम पर किये गए प्रयास ही जातिगत वैमनस्य का कारण बन रहे हैं और हम मनु समर्थक और मनु विरोधी जैसे खेमों में बंटे है। जबकि हकीकत में मनुस्मृति न ये खेमा पढता है न वो! व्यवस्था में जब भी विकार आए हमें आयातित पैबंद लगाने की बजाय जड़ों की तरफ जाना चाहिए! जरूरत है सभी को साथ बैठ कर मनुस्मृति पर विचार करने की, स्वार्थी तत्वों द्वारा उस में किये गए घालमेल को पहचान कर अलग करने की तथा प्रारंभ से ले कर आज तक की सामाजिक घटनाओं और दुर्घटनाओं की विवेचना करने की। यह सब करने के बाद हम बची हुई शुद्ध परम्पराओं की तुलना समकालीन व्यवस्थाओं से करते हुए वर्तमान में आएँ बिना ‘ख़त्म करो’ और ‘बचाओ’ के नारे लगाये एक संगठित समाज और देश के रूप में हम एक फैसले पर आ जायेंगे और वहीँ से सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः एवं वसुधैव कुटुम्बकम की शुरुआत संवैधानिक रूप से होगी