प्रातः भ्रमण के दौरान रास्ते के सभी कुत्तों से मित्रता ही हो गई है और उनके में से कई तो दूर से आता देख कर या आवाज सुन कर दौड़े चले आते हैं । उन में से कुछ पास आ कर घूम घूम के मेरी टांगों से कमर रगड़ने का लुत्फ़ भी उठाने लगते हैं। क्योंकि कपड़े मुझे नहीं धोने होते तो मैं घणी सी परवाह भी नहीं करता। कपड़े स्वयं न धोने की बात यहां लिखना मात्र संयोग नहीं अपितु मेरा दंभ है तथा इसे आप अपने तरीके से समझने के लिए स्वतंत्र हैं। बहरहाल इस प्रातः कालीन यात्रा में मैं रात की बची रोटियां अपने इन मित्रों के लिए लेकर जाता हूं। मार्ग में मिलने वाले कुत्तों के कई दलों में से एक में एक मादा हाल ही में ब्याई है। इस दल का दलपति एक तगड़ा शेरू सा कुत्ता है और खाना डालते ही वह सबसे पहले खाता है, बाकी कुत्ते उसके खाकर हटने तक दूर खड़े देखते रहते हैं। कल मैं ने जब रोटियां डाली तो अन्य कुत्तों के साथ शेरू भी दूर ही खड़ा रहा! मैं समझ नहीं पाया कि माजरा क्या है। तभी वह मादा दूर से दौड़ती आई और कुत्तों के बीच से निकलती रोटियों तक पहुंच कर मासूमियत और कृतज्ञता के भाव आंखों में लिए रोटी चबाने लगी। आश्चर्य! कुत्तों को भी यह समझ है कि किसको भोजन की अधिक आवश्यकता है! अर्थात त्याग और कृतज्ञता ईश्वर प्रदत्त नैसर्गिक गुण हैं। सबल का त्याग और निर्बल की कृतज्ञता परिवारों और समाज को जोड़ कर रखने की सनातन परंपरा है। कथा कहानियों के अलावा सार्वजनिक कुएं, अस्पताल, तालाब, धर्मशाला इत्यादि इसके अनेकों उदाहरण आज भी मौजूद हैं। 'एक कमाया करता दस खाया करते' की बात तो बुजुर्गों से सुनते ही हैं। उन 'दसों' का पेट भरने के लिए न जाने कितने 'एकाें' ने अपनी जिंदगियां होम कर दी होंगी! किंतु त्याग और कृतज्ञता के आधार पर सब स्वतः ही चलता रहा।
आरक्षण भी वही त्याग और कृतज्ञता के ईश्वर प्रदत गुण से उपजी व्यवस्था है ! किन्तु मनुष्य कुत्तों जितना 'उत्कृष्ट ' जीव नहीं है। उसमें स्वार्थ है, आपाधापी है! वो तो कुत्तों को भी उनके स्कूल खोल-खोल कर अपने जैसा ही बनाना चाहता है। अनारक्षित के अनुसार आरक्षण आरक्षित को दी जानेवाली भीख है तो आरक्षित के लिए सदियों से रोक कर रखा गया उसका हक़। इसमें न कहीं त्याग ही है और न कृतज्ञता! जबकि न भीख भारतभूमि का शब्द और न हक़!
वोट चटोरे राजनेताओं के अलावा भी बहुत से प्रज्ञावान लोगों से सुन चुका कि आरक्षण समय की यात्रा में पीछे छुटे बांधवों को साथ लेकर चलने का प्रयास है किंतु आज तक एक भी आरक्षित को सार्वजनिक मंच तो छोड़िए निजी तौर पर भी इस व्यवस्था के लिए समाज का धन्यवाद करते नहीं सुना! अम्बेडकर ने आरक्षण दिया यह चपरासी से ले कर सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश तक गाता फिर रहा है, किंतु समाज के लिए आभार के दो शब्द किसी के पास नहीं हैं। नवबौद्धों और क्रिप्टो क्रिश्चियनों के पास इन्हीं हिंदुओं के लिए प्रार्थनाओं और शपथों तक में कोसा काटी और गालियां तो हैं किंतु कृतज्ञता का दाना भी नहीं है। हैरानी है कि आज तक खुलकर यह कहने वाला कोई नहीं मिला कि पहले जो हुआ सो हुआ होगा किंतु आज हमारी पीड़ा समझ कर इसी समाज ने हमें अलग से अवसर उपलब्ध कराए। खेद है कि आरक्षण ऐसी व्यवस्था हो गई है जिसमें न त्याग बचा है और न कृतज्ञता! यदि मनुष्य अपने निकटतम मित्र कुत्तों से भी नहीं सीख सकता तो विनाश अधिक दूर नहीं।
शेष अगली बार!
सादर!
राकेश सिंह चौहान
#RSC
 
 
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