डम- डम डम-डम ढोल बाजे, बाजे थाप नगाड़ां की।
आसे घर दुर्गाे ना होतो, सुन्नत होती सारां की।।
आज बात आसकरण के वीर पुत्र दुर्गादास राठौड़ की! दस ही दिन हुए होंगे जब उज्जैन में क्षिप्रा नदी के किनारे उस महापुरुष की छतरी पर मैं कृतज्ञ खड़ा था जिसने औरंगज़ेब से धर्म की रक्षा की, आज उसी की पुण्यतिथि है। जितना भाव विभोर और कृतज्ञ मैं महाकाल के सामने था उतना ही दुर्गादास की छतरी पर था!
मारवाड़ का राजा जसवंत सिंह औरंगजेब को पसंद नहीं करता था। अतः उसने ने उत्तराधिकार संघर्ष में दारा शिकोह और फिर शुजा का साथ दिया था। शिवाजी की शाइस्ता खान पर हमले में मदद की, औरंगजेब के पुत्र को उसके विरुद्ध बगावत को भड़काया। औरंगजेब ने भी कसर नहीं छोड़ी। पहले तो जसवंत सिंह के पुत्र पृथ्वी सिंह को शेर से निहत्था लड़ने के पुरस्कार स्वरूप ज़हर बुझी पोशाक भेंट की जिस से वह बीमार हो कर मर गया, फिर जसवंत सिंह को मारवाड़ से दूर काबुल भेज दिया और मारवाड़ में सारे मंदिर तुड़वाने का हुक्म दे दिया बदले में जसवंत सिंह ने ईरान तक की मस्जिदें तोड़ने का आदेश दे दिया। औरंगजेब को अपना फरमान वापस लेना पड़ा। इसी शह मात में जसवंत सिंह की काबुल में ही मृत्यु हो गई। उस समय जसवंत सिंह की दोनों रानियां गर्भवती थीं। दोनों ने एक एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन उनमें से एक शिशु की मृत्यु हो गई।
जब दुर्गादास राठौड़ जसवंत सिंह के नवजात पुत्र तथा उसकी रानियों को काबुल से मारवाड़ ले कर आ रहा था तो औरंगज़ेब ने उन्हें नजरबंद कर लिया तथा मारवाड़ पर अधिकार कर लिया। तथा अजीत सिंह का धर्म परिवर्तन करने का दबाव बनाने लगा। 250 सैनिकों की टुकड़ी के साथ एक दिन दुर्गादास, ठाकुर मोकम सिंह बलुंदा और मुकुंद दास खींची चौहान बालक अजीत और उसकी माताओं को ले कर निकल गए। रास्ते में दस-दस की टुकड़ियों में राजपूत पीछा करते सैनिकों से लोहा लेकर बलिदान होते रहे! जिस से दुर्गादास और मुग़ल सेना के बीच अंतर बढ़ता गया। पूरे देश में एक ही सुरक्षित जगह थी मेवाड़। अजीत सिंह वहीं पला और उधर दुर्गादास राठौड़ 30 साल मुगलों से लड़ते रहे।
"आठ पहर चौंसठ घड़ी, घुड़लै ऊपर वास।
सैल अणी हूँ सेकतो, बाटी दुर्गादास।।"
अर्थात दिन रात घोड़े की पीठ पर बैठा दुर्गादास बाटी भी भाले की नोक पर सेक कर खाता।
औरंगजेब से बगावत करके आए उसके पुत्र अकबर के पुत्र और पुत्री को दुर्गादास ने अपने पास रखा और उन्हें मौलवी नियुक्त करके इस्लामी शिक्षा प्रदान की। बाद में बड़े होने पर उन्हें उसने सकुशल औरंगजेब के पास पहुंचा दिया। जब औरंगजेब ने अपनी पोती से पूछा कि दुर्गादास अब कैसा दिखता है तो उसने कहा कि अब का तो पता नहीं मैंने उन्हें बचपन में ही देखा था । अब वह जब भी आते थे तो हमारे और उनके बीच में पर्दा रहता था। कहते हैं कि दुश्मन की बहू बेटियों को माल ए गनीमत समझने वाला भावुक हो गया था! क्योंकि वह तो अजीत सिंह को भी इस्लाम कबूल करवाना चाहता था। जसवंत सिंह के मरने के तुरंत बाद उसने पूरे देश में जजिया लगा दिया था। यही फर्क था दुर्गादास और औरंगजेब में और यही फर्क है हम में और उनमें। इतिहासकारों ने दुर्गादास राठौड़ को सही स्थान नहीं दिया लेकिन कवि ने सही ही कहा है
' आसे घर दुर्गाे ना होतो, सुन्नत होती सारां की।।'
अर्थात आसकरण के घर दुर्गादास ना होता तो सब की सुन्नत हो गई होती।
सादर
राकेश चौहान
#RSC
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