दूर क्षितिज में,
घटाओं के केश,
नितम्बों पर फैलाये,
धरती इठलाई!
यादों के बीज,
छुपे थे जो माटी के मन में,
नव अंकुर को आतुर,दौड़े बाहें पसारे,
स्वागत में बरखा रानी के!
मोती सी बूंदों का,
प्यासी धरती से मिलन हुआ,
तन गीला, मन पुलकित,
महका रोम-रोम अनछुआ!
बांटने लगी उपहार वर्षा,
जहाँ जो भी मिला,
किसान को प्राण,
कोयल को मिठास,
आसमान को सतरंग,
मोर को ताल,
चकोर को तृप्ति,
मैंने पूछा, मेरे लिए क्या लायी हो?
छू गयी मेरे कान को,
एक बूँद ऐसे,
नाजुक होंठ किसी ने,
छुए हों जैसे!