'सामाजिक न्याय के पुरोधा वीपी सिंह को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि', वगैरा-वगैरा......। परसों पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुण्यतिथि थी। पूरे दिन पिछड़ा विमर्श के तथाकथित पुरोधाओं की छातियों से इतना दूध टपका कि सोशल मीडिया पर घड़े के घड़े भर गए। किंतु एससी एसटी आरक्षण से लाभान्वित वर्ग अंबेडकर को जिस तरह सर पर उठाए रखता है ऐसा पिछड़ों ने वी पी सिंह के लिए कभी नहीं किया। इसका एक बहुत बड़ा कारण मुझे यह लगता है यह उनके सामंती अत्याचार के नॉरेटिव को कभी सूट नहीं किया, क्योंकि पिछड़े के नाम पर लाभान्वित वर्गों में अधिकतर वही लोग हैं जो अब तक सामंती नॉरेटिव का सिक्का चला कर अपना रोजगार चलाते आ रहे हैं और वीपी सिंह तो सचमुच के राजा थे। यह बात राजनीति के मामले में तो और सटीक लगती है। 1941 में मांडा की छोटी सी रियासत के राजा बने वीपी सिंह ने भारत का राज हाथ में आते ही एक दशक से ठंडे बस्ते में पड़ी मंडल कमीशन की रिपोर्ट को एक झटके में लागू कर दिया। कुछ अजीब सा संयोग था कि वी पी सिंह को याद करने की एक दो पोस्ट का नोटिफिकेशन मुझे दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में लगे एफडीडीआई के स्टाल में मिला। एफडीडीआई यानि 'फुटवियर डिजाइन एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट'। यह संस्था प्रशिक्षित फुटवियर डिजाइनर तैयार करती है। मुझे रमेश भाई की याद आई। रमेश भाई से मेरी मुलाकात प्रतिदिन प्रातः तालाब पर होती है। बाजार में उनकी दुकान है मुझे याद है बचपन में गोविंद टॉकीज में 'आजाद शू मेकर्स' के नाम से उनकी विज्ञापन स्लाइड चला करती थी। रमेश जी के पिता जूते के अच्छे कारीगर थे, वे स्वयं भी हैं और उनके दोनों पुत्र भी जूते के व्यवसाय में ही हैं। उनके पूर्वजों ने महाराजा पटियाला के नारनौल आगमन पर उन्हें एक तोले तथा 10 तोले के जूतियों के दो जोड़े उपहार स्वरूप दिए थे। एक तोला यानी 12 ग्राम! एक तोले की जूतियों की खासियत थी कि दोनों जूतियां मुट्ठी में आ जाती थी और दस तोले वाली जूती के अंदर कुछ छल्ले लगे थे, ऐसा रमेश भाई बताते हैं कि वह उतारने के बाद 5- 6 कदम दूर जाकर रुकती थीं। महाराजा पटियाला ने उन मोचियों को मुंह मांगा इनाम दिया तथा एक बड़ी इमारत, जिसे आज भी महल के नाम से जाना जाता है, उन्हें उपहार स्वरूप दी। रमेश भाई ने बताया कि पहले इस तरह की छल्ले वाली जूतियां और चर्र - मर्र की जूती फैशन में थी जो चलते समय चर्र- मर्र आवाज करती थीं।
इतिहास में कभी भी किसी राष्ट्र अथवा प्रदेश के स्वर्णिम काल का आधार उपजाऊ भूमि अथवा सरकारी नौकरियां नहीं रही, अपितु कलाकार, शिल्पकार, व्यापार आदि रहे हैं। अनेक गुरुकुलों का अध्ययन करने के बाद राजपाल जी ने लिखा है कि गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले 80% छात्र इन्हीं श्रेणियों के थे जिन्हें आज पिछड़ा कहा जा रहा है। पहली सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी तक का समय भारत के इतिहास में व्यापार का युग माना जाता है। इस काल के अधिकतर दान के ताम्रपत्र शिल्पियों तथा व्यापारियों से संबंधित हैं। शिल्पी अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान गुरुकुलों में तराशते थे तभी तो भारत में बना रेशम और मलमल सोने के बराबर तुल कर पश्चिम के बाजारों में बिकता था। ब्राह्मण वैद्य, तो कुम्हार और नाई चिकित्सक और सर्जन होते थे। बढ़ई आर्किटेक्ट हुआ करते। कांटी गांव में मेरे पूर्वज ठाकुर साहब रामबख्श सिंह जी द्वारा बनाई गई धोली कोटडी का नक्शा एक बढ़ई द्वारा तैयार किया था जो कि वास्तु कला का अद्भुत नमूना है! गोखुर आकार के प्लाट पर बनी इस इमारत की सबसे बड़ी खूबी यह है कि अंदर का कोई भी भाग टेढ़ा नहीं है तथा सभी कक्ष आयताकार या वर्गाकार हैं।मैकाले शिक्षा पद्धति ने गुरुकुल शिक्षा को तहस-नहस कर दिया। शिल्पकार जो अपने पूर्वजों से तथा गुरुकुल में सीखते थे वही अब एफडीडीआई सिखा रहा है। एफडीडीआई के फेकल्टी शर्मा, वर्मा, त्रिपाठी, सक्सेना, यादव इत्यादि हैं। इनमें से कई नाम से पहले डॉक्टर और प्रोफ़ेसर भी लिखते हैं। जूतों का काम कर के न ये मोची बने और न जूते बनाने वाली एडिडास, नाइक, रीबॉक आदि कंपनियां! किंतु अपने पैतृक हुनर से व्यवसाय कर के डेढ़ करोड़ का मकान बनाने वाला मोची ही है। उसके मोहल्ले के कुछ बच्चे आरक्षण से नौकरी पा गए कुछ आठ दस हज़ार की अस्थाई नौकरियां करते हैं। बाकी रीबॉक के सेकंड कॉपी जूते पहन के छोटा मोटा काम करके शाम को दो पैग मार कर सो जाते हैं। एफडीडीआई ने इनके बुजुर्गों से कुछ नहीं सीखा और ना ही यह एफडीडीआई से कुछ सीख रहे। आरक्षण सब को नौकरी नहीं देता, बढ़ई, नाई, कुम्हार, लोहार इत्यादि अपना पैतृक काम छोड़ कर छोटी मोटी नौकरियां तलाशते घूमते हैं। इन के व्यवसायों पर मोहम्मदवादी काबिज़ होते जा रहे हैं। यह है पिछड़ों के मसीहा का सामाजिक न्याय और उनकी समाज को भेंट!
सादर!
राकेश चौहान
#RSC
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